Added by Ashish Srivastava on May 12, 2014 at 10:00pm — 16 Comments
Added by Ashish Srivastava on April 26, 2014 at 10:00pm — 9 Comments
खनकी,झनकी,लिपटी मुझसे पियकी चुटकी चटकी सि भली
हलकी फुलकी छलकी बलकी, ठुमकी सिमटी सलकी सि कली
Added by Ashish Srivastava on January 21, 2014 at 11:08am — 6 Comments
ममता का चित बड़ा चंचल चपल तब
तन मे सचल मन बड़ा ही प्रचल है
रमता ये जोगी छोटा नाटा ये कपट कब
तन में उदित मन बड़ा ही स्वचल है
समता का भाव जागा मन में भी मेरे अब
तन में न हलचल मन निशचल है
तमता नहीं है भाव में रहे निचल रब
तल में अतल में वितल में अचल है
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष (सागर सुमन)
Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 5:58pm — 9 Comments
गीत भी लिखे कलम भारती के गान के तो,
कागज भी नाच के ही आन करने लगा
वंदन हजार माँ को छंद ने किये है और
पंक्ति पंक्ति लिख के ही गान करने लगा
स्याही शूर वीरता के मंत्र लिखती गयी तो
अक्षर भी अक्षर का मान करने लगा
देशप्रेम वाला भाव मन में बसा लिया तो
शब्द शब्द राष्ट्र को सलाम करने लगा
मौलिक एवं अप्रकाशित
आशीष ( सागर सुमन)
Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 11:00am — 12 Comments
Added by Ashish Srivastava on October 5, 2013 at 3:00pm — 5 Comments
चाल चला जब हंस की, बगुला बहुत सयान
बगुला खाया मात तब, खोया अपना मान
खोया अपना मान, इस्तीफे की है मांग
बात बड़ेन की मान, है टूटी छोटी टांग
कह सागर कविराय, नेता इनका है बाल
इन्हीं को अब पड़ी, है उलटी इनकी चाल
आशीष ( सागर सुमन )
मौलिम एवं अप्रकाशित
Added by Ashish Srivastava on September 27, 2013 at 11:00pm — 10 Comments
टेरत टेरत जुग भया, सुधि नहि लीन्ही मोहि
Added by Ashish Srivastava on September 27, 2013 at 1:22pm — 9 Comments
मोहि दुखियारी आँख को,सुक्ख मिलत है नाहि
Added by Ashish Srivastava on September 26, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
मदिरा मत समझो मुझे , नहीं नशे की चीज़
एक दीवानी प्रेम की , प्रेम से जाओ भीज
Added by Ashish Srivastava on September 16, 2013 at 1:00pm — 5 Comments
प्रेम कि बांसुरि बाजि रही पिय के मन को अकुलाय रही
भोर समान खिलै मुखि चन्द चकोर पिया को बुलाय रही
रीझि गया मन लाजि गया तन सांझ क़ि बात सुनाय रही
रीति क़ि प्रीति बनी बिगरी पर प्रीति की रीति बताय रही
आशीष श्रीवास्तव ( सागर सुमन )
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Ashish Srivastava on September 5, 2013 at 10:00pm — 8 Comments
मौलिक एवं अप्रकाशित
तुम में ही लीन प्रान मेरे , प्राणों में मेरे प्रियवर हो
इसलिये विलग होकर भी तुम, मुझमे ही सदा निवासित हो
अलके पलकें भी रो रोकर , दो चार अश्रु ही चढ़ा रही
मेरे भगवन मेरे प्रियतम, बस राह धूल ही हटा रही
---
खुद के अन्दर तुम तक जाना, चरणोदक पीकर जी जाना
इस धूल धूसरित मन से ही , अपने प्रियतम में लग जाना
आकुल व्याकुल इस साधक पर, कुछ प्रेम सुधा बरसा…
Added by Ashish Srivastava on September 4, 2013 at 8:00pm — 21 Comments
उन्हें चस्का बहुत था बेरुखी हमसे भी करने का
Added by Ashish Srivastava on September 2, 2013 at 9:55pm — 16 Comments
बीमारी के अर्थ दो , नहि केवल ये रोग
इक तो केवल रोग है, दूसर केवल योग
दूसर केवल योग, बहूत है कठिन समझना
प्रेम रोग इक भाव , इसे है सरल समझना
कह सागर सुमनाय,कहो अब कुशल तिहारी
रोग योग दो अर्थ , प्रेम कहा या बिमारी
Added by Ashish Srivastava on September 2, 2013 at 8:30pm — 12 Comments
बादल भी है नुचा हुआ सा, वसुधा भी है टुकड़े टुकड़े
Added by Ashish Srivastava on August 28, 2013 at 2:00pm — 21 Comments
घोटाले कर कर हुई, भ्रष्ट आज सरकार
जनता डर डर रह रही, संसद भी बीमार
संसद भी बीमार, मिलै नहि मोहे चैना
जुल्मी है सरकार, बड़ा मुश्किल है रहना
कह सागर सुमनाय, काम तो इनके काले
खाना बांटे मुफ्त, करे नित नए घोटाले
आशीष श्रीवास्तव - सागर सुमन
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Ashish Srivastava on August 27, 2013 at 7:30am — 15 Comments
Added by Ashish Srivastava on August 26, 2013 at 11:00pm — 16 Comments
Added by Ashish Srivastava on August 3, 2013 at 11:00am — 4 Comments
एक मेरी कल्पना , एक मेरी अर्चना
हिंदी में ही स्वर सजें, हिंदी में ही गर्जना
माथे की बिंदी भी कही क्यूँ , ढूँढती अस्तित्व अपना
क्यूँ नहीं हमने निभाया माँ , भाष्य का दायित्व अपना
बहके हुए है हम सदा से , भाषा इंगलिस्तान में
बोलने में क्यूँ लाज आये, हिंदी हिंदुस्तान में
राष्ट्र के माथे की बिंदी , क्यूँ सभी हम नोचते
क्यों नहीं ये प्रण भी लेते , हिंदी में ही बोलते
Added by Ashish Srivastava on September 14, 2012 at 12:30pm — 5 Comments
दूंगा मैं लौटा तुम्हारी धरा ,
अगर तुम मेरे पंख बन कर उड़ो
संभालूँगा तुमको मैं हर मोड़ पर,
चलोगी कभी जब गलत राह पर
यही एक ख्वाहिश तुम्हारे हो मन में
मेरे साथ चलना बरस चौदह वन में
कभी राम का अनुसरण कर सकूँ तो
दायित्व सीता का गर तुम संभालो
कोई मित्र कलि युग की लंका दहन
भ्राता अगर मिल गया हो लखन
अगर रह सको तुम मन से भी पावन
तभी मर सकेगा यहाँ भ्रष्ट रावन
भारत बनेगा तभी फिर अयोध्या
कभी राम जैसे प्रकट होंगे योद्धा
गर कोई…
Added by Ashish Srivastava on September 12, 2012 at 8:30am — 1 Comment
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