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(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)
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अभी-अभी तो मिली सजन से,
आकर मन में बस ही गये।
इस बन्धन के शुचि धागों को,
ईश स्वयं ही बांध गये।
उमर सलोनी कुञ्जगली सी,
ऊर्मिल चाहत है छाई।
ऋजु मन निरखे आभा उनकी,
एकनिष्ठ हो हरषाई।
ऐसा अपनापन पाकर मन,
ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,
और मेरे सपनों का राजा,
अंतरंग मालूम खड़ा।
अ: अनूठा अनुभव प्यारा,
कलरव सी ध्वनि होती है।
खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,
गहना…
Posted on June 1, 2021 at 8:30am — 10 Comments
कष्ट सहकर नीर बनकर,आँख से वो बह रही थी।
क्षुब्ध मन से पीर मन की, मूक बन वो सह रही थी।
स्वावलम्बन आत्ममंथन,थे पुरुष कृत बेड़ियों में।
एक युग था नारियों की,बुद्धि समझी ऐड़ियों में।
आज नारी तोड़ सारे बन्धनों की हथकड़ी को,
बढ़ रही है,पढ़ रही है,लक्ष्य साधें हर घड़ी वो।
आज दृढ़ नैपुण्य से यह,कार्यक्षमता बढ़ रही है।
क्षेत्र सारे वो खँगारे, पर्वतों पर चढ़ रही है।
नभ उड़ानें विजय ठाने, देश हित में उड़ रही वो,
पूर्ण करती हर चुनौती…
Posted on May 31, 2021 at 5:00pm — 4 Comments
माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,
जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।
हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,
था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।
खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,
मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।
छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,
चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।
मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,
सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।
चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,…
Posted on May 25, 2021 at 8:30pm — 2 Comments
सुस्त गगनचर घोर,पेड़ नित काट रहें नर,
विस्मित खग घनघोर,नीड़ बिन हैं सब बेघर।
भूतल गरम अपार,लोह सम लाल हुआ अब,
चिंतित सकल सुजान,प्राकृतिक दोष बढ़े सब।
दूषित जग परिवेश, सृष्टि विषपान करे नित।
दुर्गत वन,सरि, सिंधु,कौन समझे इनका हित,
है क्षति प्रतिदिन आज,भूल करता सब मानव,
वैभव निज सुख स्वार्थ,हेतु बनता वह दानव।
होय विकट खिलवाड़,क्रूर नित स्वांग रचाकर।
केवल क्षणिक प्रमोद,दाँव चलते बस भू पर,
मानव कहर मचाय,छोड़ सत धर्म विरासत…
Posted on May 22, 2021 at 5:00pm — 2 Comments
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