कटी फसल सा
पड़ा हुआ हूं
मिटा गझिन आकार
परती धरती
धूम धनुष ले
करती तीक्ष्ण प्रहार
छू लो तुम एकबार -- सुरमयी, छू लो तुम एकबार
कर्म ताल में
कीच भर गए
यत्न सकल बेकार
मन की घिर्नी
घूम थक चुकी
पंथ मिला ना द्वार
छू लो तुम एकबार -- सुरमयी, छू लो तुम एकबार
जलद पटल
क्या चित्र बनाऊं
किसपर करूं सिंगार
स्वर्णमृग तो
राम साधते
मुझे चापते हार
छू लो तुम एकबार --…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 25, 2013 at 12:24pm — 4 Comments
काग़जी
सारी कवायद
बोल में
रेशम-तसर है
*गुंजलक में
कै़द वादों
से हकीकत
मुख्तसर है
खोखले नारे उठाए ...............
*कर्दमी
लोबान जलते
टापता
दूभर डगर है
बेरूखी
कहती हवा की
फाग कितना
बेअसर है
खोखले नारे उठाए ...............
स्तब्ध
चंपा, नागकेसर
बर्खास्त सेमल
की बहर है
बिलबिलाते
नीम, बरगद
*भवदीय भौंरा
ही निडर…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 22, 2013 at 1:43pm — 5 Comments
बनिक भए
रंगरेज मेरे
बिछुआ, पायल
बेहाल सखी
फन काढ़
समीरन लाल चले
अंतर धधके सौ ज्वालमुखी
गठ जोड़ नयन
स्वादे आहट
कनखी जी का
जंजाल सखी
इत राग महावर
झाईं पड़े
उत फागुन है उत्ताल सखी
मन के झूमर
चुप बैठ गए
चूते अमिया
दुरकाल सखी
भ्रू-चाप चुने
महुआ नागर
मुसकै भदवा बैताल सखी
रस रस गलती
चलती चरखी
हर आस भई
पातालमुखी
अरदास…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 12, 2013 at 1:52pm — 11 Comments
रूठे घर में मानमनौव्वल
के दीपों को पलने दो
बहुत हो चुकी
टोका-टोकी
लस्टम-पस्टम
जीवन झांकी
बंद गली को
चौराहों से
गलबहियां दे
चलने दो
कोरी रातों में कलियों को
पल-दो-पल तो खिलने दो
अंधेरे में
डूबे घर भी
हमें देख
सकुचाते हैं
कल तक लगते
थे जो अपने
अब बरबस
डर जाते हैं
जंजीरों में बंधे बहुत अब
पंख जरा तो मलने…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 7, 2013 at 3:00pm — 11 Comments
खुरच शीत को फागुन आया
फूले सहजन फूल
छोड़ मसानी चादर सूरज
चहका हो अनुकूल
गट्ठर बांधे हरियाली ने
सेंके कितने नैन
संतूरी संदेश समध का
सुन समधिन बेचैन
कुंभ-मीन में रहें सदाशय
तेज पुंज व्योमेश
मस्त मगन हो खेलें होरी
भोला मन रामेश
हर डाली पर कूक रही है
रमण-चमन की बात
पंख चुराए चुपके-चुपके
भागी सीली रात
बौराई है अमिया फिर से
मौका पा माकूल
खा…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on March 6, 2013 at 12:44pm — 12 Comments
बाबा आए, बाबा आए
भरे हुए दो झोले लाए झोले में सपनों की बातें तारों भरी सुहानी रातें देख उन्हें राजू भी दौड़ा कर्मकीट सा… |
Added by राजेश 'मृदु' on March 5, 2013 at 5:44pm — 3 Comments
चार दशकों
के सफर में
चढ़ लिए
मंजिल कई
कुछ ने सांकल
जड़ दिए
बन गए
घुंघरू कई
रूबरू हूं
धूप से अब
चांदनी
मिलती कहां ?
अक्स मेरा
घुल गया है
सब्ज कर
सारा जहां
(मौलिक रचना)
Added by राजेश 'मृदु' on March 1, 2013 at 6:15pm — 9 Comments
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