आंदोलित विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने अपनी मांगे सरकार से मनवाने हेतु व्यस्ततम चौराहे को मानव श्रृंखला बना कर घेर दिये थे, मेरे नेर्तित्व में भी एक संगठन नारेबाजी और रास्ता अवरुद्ध करने मे संलग्न था, भीड़ में कुछ मरीजों के परिजन अपनी गाड़ियों को आगे जाने देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, राधे बाबू जोर जोर से सभी को निर्देशित कर रहे थे कि एक व्यक्ति को भी आगे नहीं जाने देना है, चाहे कुछ हों जाए | एकाएक राधे बाबू का स्वर बदला और कहने लगे कि जाने दो भाई मरीजों की गाड़ियों…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 28, 2012 at 4:03pm — 18 Comments
मैं कौन हूँ ?
अनंत आकाश या अन्तरिक्ष का मौन हूँ
धरती का श्रृंगार हूँ पाताल का आधार हूँ
पर्वतों में हूँ शिखर पाषाण में भगवान हूँ
नदियों का पाट हूँ निर्बाध उसका बहाव हूँ
झरने सा पतन मेरा झर झर आवाज हूँ…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 27, 2012 at 6:29pm — 11 Comments
बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है . आंदोलित कर्मचारी संगठनों द्वारा अपनी मांगों को शासन तक ज्ञापन के माध्यम से पहुँचाने हेतु निर्णय लिया गया कि सर्व प्रथम सभी कर्मचारी अपने - अपने कार्यालय में एकत्रित होंगे. फिर कार्यक्रम स्थल पर अपने -अपने बैनर के साथ जलूस के रूप में पहुचेंगे जहाँ पर मानव श्रखला बनाकर प्रदर्शन किया जायेगा. सवेरे से ही विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी अपने-अपने कार्यालय से एक जलूस के रूप में अपनी मांगों के समर्थन में नारे लगाते हुए पहुँचने लगे और मानव…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 21, 2012 at 2:30pm — 2 Comments
मनु और राकेश इंजीनियरिंग कोलेज में साथ - साथ पढ़ते थे. न जाने कब एक दूसरे को चाहने लगे पता ही नहीं चला. प्यार बिजली की तरह होता है जो दिखता तो नहीं महसूस होता है. प्यार की परिणिति विवाह के पवित्र सूत्र बंधन में हुई. यद्दपि कि प्रारंभ में परिवार, रिश्तेदारों और समाज के काफी विरोध का सामना इन दोनों को करना पड़ा , और विरोध स्वाभाविक भी था. खुद के परिवार में ऐसा हो जाये तो लोग खामोश रहते हैं अगर अन्य जगह ऐसा प्रकरण सामने आये तो फिर क्या कहने. सात पीढ़ियों तक के गुणगान किये जाते हैं. प्रेम विवाह…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 17, 2012 at 6:00pm — 18 Comments
तनहा खड़ा एक पेड़ हूँ मैं
मन ही मन खड़ा छटपटाता हूँ
अतीत की धुंद में खो जाता हूँ
कभी था बाग़ ए बहार यहाँ
उजड़ा गुलशन बिखरा ये चमन
लगता अब जैसे शमशान यहाँ
आज न वो आँगन है
न ही वे संगी साथी …
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 10, 2012 at 1:17pm — 6 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 8, 2012 at 2:56pm — 4 Comments
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 5, 2012 at 11:30am — 10 Comments
(ओ.बी.ओ. का अपना बैज है. ये रचना ओ.बी.ओ. गीत हेतु तैयार की है.)
भटकता फिर रहा था न जाने कब से भीड़ में एक आस लिए
मुट्ठी भर पा जाऊं धरा औ ज्ञान की एक बूँद का विश्वास लिए
मिली जानकारी जब कि ओ.बी.ओ. एक ऐसा आधार है
गुनी जनों के सानिध्य मिले तो अवश्य तेरा बेडा पार है
गजल छन्द और कई भाषाओँ के हैं विधान यहाँ ,
कहानी और कविता का मिलता है ऐसा ज्ञान कहाँ
नए पुराने और धर्म जाति का न कोई भेद यहाँ
वो जगह बताएं…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 4, 2012 at 6:00pm — 10 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 1, 2012 at 4:00pm — 20 Comments
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