Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 2, 2012 at 11:00am — 5 Comments
अरे गुलामी छोड़ो यारों
हरित-क्रांति कर के कुछ पा लो
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तुम गरीब हो भूखे प्यासे
लिए कटोरा घूम रहे
दो टुकड़ों की खातिर दिल को
छलनी अपनी करवाते
इज्जत मान प्रतिष्ठा अपनी
घूँट -घूँट विष पी जाते
अरे गुलामी छोड़ो यारों
हरित-क्रांति कर के कुछ पा लो
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पेट भरे -ना-हुयी पढाई
'आदिम मानव' जग हुयी हंसाई
पीछे…
ContinueAdded by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 2, 2012 at 12:00am — 6 Comments
सभी भाइयों और सभी बहनों को अलबेला खत्री की ओर से राखी के त्यौहार पर
लाख लाख बधाइयां और अभिनन्दन !
अधरों पर मुस्कान है, आँखों में उन्माद
रक्षा बन्धन आ गया, लेकर नव आह्लाद
आजा बहना बाँध दे, लाल गुलाबी डोर
तिलक लगा कर पेश कर, मुँह में मीठा कोर…
Added by Albela Khatri on August 1, 2012 at 9:47pm — 31 Comments
कटाक्ष...
Added by AVINASH S BAGDE on August 1, 2012 at 8:16pm — 8 Comments
जिक्र करना यार जब भी रू-ब-रू करना
हूँ मयस्सर खोल के दिल गुफ्तगू करना
एक दर उसका बिना मांगे मिला सब कुछ
भूल बैठा हूँ मुरादो आरजू करना
है सराफत शान औ ईमान है जलवा
मौत इनकी हो नहीं क्या हाय हू करना
याद में जब हो खुदा तो पाक दिल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on August 1, 2012 at 1:37pm — 8 Comments
आह जो दिल से मेरे निकलती नहीं,
राह वो पगली शायद बदलती नहीं,
रोज़ मरता हूँ, जीता हूँ कभी-कभी,
हाल देख कर भी थोडा पिघलती नहीं,
खो गई पाकर, तुमको जिंदगी कहीं,
आज कल तबियत भी तो मचलती नहीं,
रूबरू आँखों में है, चेहरा तिरा,
अश्क बहते हैं, पर वो मसलती नहीं,
बात आती थी सारी, याद रात भर,
सांस सीने में रुकी, टहलती नहीं.......
Added by अरुन 'अनन्त' on August 1, 2012 at 12:30pm — 8 Comments
जिंदगी का ये चौराहा , अपने दम पर गर्वित हाथ फैलाये खड़ा ,कुछ इठलाकर , सोचे कि मंजिल दिखता है सबको राह बताता है । जिंदगी के इस चौराहे पर कितनी ही गाड़िया आती चली जाती हैं , फिर बचती है बस वो सूनी खाली राह , इंतज़ार में फिर किसी मुसाफ़िर के जो आयेगा और अपनी मंजिल पायेगा , बढता चला जायेगा । पर जब राह ही मालूम ना हो तो ये क्या आभास करायेगा , राह दिखाने का आभास या राह में अकेले खो जाने का आभास । क्या ये चौराहा अकेलेपन में चुभती उस साँस को कुछ आस दिलायेगा या देख उसे हँसता जायेगा , जोर से या मन ही मन…
ContinueAdded by deepti sharma on August 1, 2012 at 12:27pm — 11 Comments
ज़िंदगी के रुपहले परदे पे हम किसी साए की तरह जी रहे हैं, कायनात से आ रही शुआ बिखर कर रंगीन हो गयी है. जब भी कुछ टूटा है, कुछ नया बना है. जब भी कहीं कुछ नया हुआ, कहीं कुछ पुराना छूट गया है. हालात में तरतीब (व्यवस्था) की तलाश की तो बेतरतीबियां ही बेतरतीबियाँ नज़र आईं और जब किसी भी हाल में गाफ़िल (बेसुध) होके जिया तो बेतरतीबियों के सिलसिले में भी इक तसलसुल (क्रम) सा बन गया. अजीब इत्तेफाक़ है कि इत्तेफाक़ भी तय लगते हैं और ये भी कि तयशुदा ज़िंदगी में इत्तेफाक़ ही इत्तेफाक़ हैं. ज़िंदगी में ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 1, 2012 at 12:20pm — 2 Comments
आज राखी का पावन त्यौहार था I बेचारा गरीब सुबह से ही नहा धोकर नई टी शर्त पहन कर बैठ गया किसी कोरियर वाले या डाकिए के इंतज़ार में क्योंकि उसकी कहने को तो चार बहनें थी लेकिन उनकी राखी उसे अब तक न मिली थी लेकिन उसे पूरी उम्मीद थी की आज तो राखी आएगी ज़रूर जिन्हें वह अपनी कलाई में पहनेगा I
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 1, 2012 at 12:04pm — 4 Comments
१. फूँक रहा क्यों जिन्दगी, ऐ मूरख इंसान |
मर जाएगा सोच ले, छोड़ धुँए का पान ||
२. बीड़ी को दुश्मन समझ, दानव है सिगरेट |
इंसानों की जान से, भरते ये सब पेट ||
३. शुरू-शुरू में दें मजा, कर दें फिर मजबूर |
चले काम या ना चले, ये चाहिए जरूर…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on August 1, 2012 at 8:00am — 8 Comments
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