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September 2013 Blog Posts (279)

ग़ज़ल : दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

दिल हो गया है जब से टूटा हुआ खिलौना

दुनिया लगे है तब से टूटा हुआ खिलौना

 

खेले न कोई इससे, फेंके न कोई इसको

यूँ ही पड़ा है कब से टूटा हुआ खिलौना

 

बेटा बड़ा हुआ तो यूँ चूमता हूँ उसको

अक्सर लगाऊँ लब से टूटा हुआ खिलौना

 

बच्चा गरीब का है रक्खेगा ये सँजोकर

देना जरा अदब से टूटा हुआ खिलौना

 

‘सज्जन’ कहे यकीनन होंगे अनाथ बच्चे

जो माँगते हैं रब से टूटा हुआ…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 18, 2013 at 10:30pm — 27 Comments

प्राण भरे

इक हलचल सी चौखट पर

नयनों में हैं स्वप्न भरे

 

उड़ता-फिरता इक तिनका

पछुआ से संघर्ष रहा

पेड़ों की शाखाओं पर

बाजों का आतंक रहा

 

तितली के इन पंखों ने   

कई सुनहरे रंग भरे

 

दूर क्षितिज की पलकों पर

इक किरण कुम्हलाई सी

साँझ धरा पर उतरी है

आँचल को ढलकाई सी

 

गहन तिमिर की गागर में

ढेरों जुगनू आन भरे

 

इन शब्दों के चित्रों में

दर्द उभर ही आते हैं

जाने…

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Added by बृजेश नीरज on September 18, 2013 at 10:30pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- ज़िन्दगी है बेरहम बस दौड़ती रफ्तार में

2122    2122    2122    212

अब तो बाहर आ ही जायें ख़्वाब से बेदार में

क़त्ल ,गारत, ख़ूँ भरा है आज के अख़बार में

कोई दागी है, तो कोई है ज़मानत पर रिहा 

देख लें अब ये नगीने हैं सभी सरकार में

 

कोई पूछे , सच बताये, धुन्ध क्यों फैला है…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 18, 2013 at 7:00pm — 40 Comments

श्राप

तुमने ठीक कहा था 
तुम्हारे बिना देख नही पाऊंगा मैं 
कोई भी रंग 
पत्तियों का रंग 
फूलों का रंग 
बच्चों की मुस्कान का रंग 
अज़ान का रंग 
मज़ार से उठते लोभान का रंग 
सुबह का रंग....शाम का रंग 
मुझे सारे रंग धुंधले दीखते हैं 
कुहरा नुमा...धुंआ-धुंआ...
और कभी मटमैला सा कुछ....

ये तुमने कैसा श्राप दिया है 
तुम ही मुझे श्राप-मुक्त कर सकते हो..
कुछ करो...
वरना पागल हो जाऊंगा मैं.....

(मौलिक अप्रकाशित)

Added by anwar suhail on September 18, 2013 at 7:00pm — 12 Comments

ग़ज़ल- सारथी || बहुत चर्चा हमारा हो रहा है ||

बहुत चर्चा हमारा हो रहा है

इशारों में इशारा हो रहा है /१  

लकीरें हाथ की बेकार हैं सब 

समझिये बस गुजारा हो रहा है /२ 

न जाने रूह पर गुजरी है क्या क्या 

बदन का खून खारा हो रहा है /३ 

गगन के तारे क्यूँ जलने लगे हैं

कोई जुगनू सितारा हो रहा है /४  

तुम अपनी धड़कनों को साधे रखना 

तुम्हारा दिल हमारा हो रहा है/५ 
.............................................
बह्र : १२२२ १२२२ १२२ 
*सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Saarthi Baidyanath on September 18, 2013 at 6:00pm — 36 Comments

ग़ज़ल:ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना

मंज़िल पे खड़ा हो के सफ़र ढूँढ रहा हूँ

हूँ साए तले फिर भी शजर ढूँढ रहा हूँ

औरों से मफ़र ढूँढूं ये क़िस्मत कहाँ मेरी?

मैं खुद की निगाहों से मफ़र ढूँढ रहा हूँ 

दंगे बलात्कार क़त्ल-ओ-खून ही मिले

अख़बार मे खुशियों की खबर ढूँढ रहा हूँ

शोहरत की किताबों के ज़ख़ायर नही मतलूब

जो दिल को सुकूँ दे वो सतर ढूँढ रहा हूँ

ना जाने हक़ीक़त है वहम है की फ़साना 

वाक़िफ़ नही मंज़िल से मगर ढूँढ रहा हूँ

ये हिंदू का शहर है…

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Added by saalim sheikh on September 18, 2013 at 5:32pm — 14 Comments

ग़ज़ल

1 2 1 2 / 2 2 1 2 / 1 2 1 2 / 2 2 1 

 

न रंज करना ठीक है, न तंज करना ठीक 

जो दौर बीता उससे यूँ, न फिर गुज़रना ठीक.

 

कि आखिरी सच मौत, इससे क्यों हमें हो खौफ़

यूँ डर के इससे हर घड़ी, न रोज़ मरना ठीक .

 

हर्फे आखिरी है जो खुदा ने लिख भेजा किस्मत में,

बने जो आका फिरते, उनसे क्यों हुआ ये डरना ठीक.

 

कोशिश ही बस में तेरे, खुदा के हाथ अंजाम, 

भला लगे तो अच्छा है, बुरा भी वरना ठीक. 

 

लाजिम है वज़न बात…

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Added by shalini rastogi on September 18, 2013 at 5:30pm — 20 Comments

ग़ज़ल : जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के

बह्र -- रमल मुसद्दस महजूफ

२१२२, २१२२, २१२

मैं पपीहा प्यास में मरता रहा,

स्वाति मुझको जानकर छलता रहा,

सर्द गर्मी धूप हो या छाँव हो,

कारवां चलता चला चलता रहा,

श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,

देवता होकर सदा जलता रहा,

धूल लेकर चल रहीं थी आंधियां,

आँख मैं मलता चला मलता रहा,

बात मन की मन ही मन में रह गई,

दर्द भीतर रोग बन पलता रहा,

जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के,

वक़्त मुझको…

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Added by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 10:30am — 27 Comments

रविकर रोटी सेंक, बोलता जिन्दा रह मत-

रहमत लाशों पर नहीं, रहम तलाशो व्यर्थ |
अग्गी करने से बचो, अग्गी करे अनर्थ |


अग्गी करे अनर्थ, अगाड़ी जलती तीली |
जीवन-गाड़ी ख़ाक, आग फिर लाखों लीली |


करता गलती एक, उठाये कुनबा जहमत |

रविकर रोटी सेंक, बोलता जिन्दा रह मत ||

 

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 18, 2013 at 9:00am — 13 Comments

ग़ज़ल - जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत

आदरणीय चन्द्र शेखर पाण्डेय जी की ग़ज़ल से प्रेरित एक फिलबदी ग़ज़ल ....



२२ २२ २२ २२ २२ २

ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं

गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं



मैडम बोलीं आज बनाएँगे सब घर   

बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं

 

आईनों पर क्या गुजरी, क्यों सब के सब,   

पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं

 

धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है

हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं

जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत  

हम कितना सामान…

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Added by वीनस केसरी on September 18, 2013 at 3:00am — 24 Comments

कहानी और भी है,,,,,

कहानी और भी है,,,,,

=================

फ़ायलातुन  फ़ायलातुन   फ़ायलातुन  फ़ायलातुन

==================================

मौज़-मस्ती इश्क़-उल्फ़त मॆं रुमानी और भी है ॥

डूब कर सुनना अभी आगॆ कहानी और भी है ॥१॥



सिर मुँड़ातॆ ही पड़ॆ ऒलॆ हमारी किस्मत रही,

हाल-खस्ता जॆब खाली कुछ निशानी और भी है ॥२॥



ख्वाब,आँसू,सिसकियां हैं,आज सारॆ यार अपनॆ,

कह रहॆ हैं लॆ मजा लॆ ज़िन्दगानी और भी है ॥३॥



आँसुऒं की बाढ़ आई है अभी सॆ राम जानॆं,

लॊग कहतॆ हैं अभी यॆ रुत सुहानी…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on September 17, 2013 at 10:01pm — 34 Comments

अनुभव

अनुभव

 

 

आज फिर दिन क्यूँ चढ़ा डरा-डरा-सा

ओढ़  कर काला  लिबास  उदासी  का ?

 

घटना ? कैसी घटना ?

कुछ भी तो नहीं घटा

पर लगता  है  ...   अभी-अभी अचानक

आकाश अपनी प्रस्तर सीमायों को तोड़

शीशे-सा  चिटक  गया,

बादल गरजे, बहुत गरजे,

बरस न पाये,

दर्द  उनका .. उनका  रहा ।

सूखी प्यासी धरती, यहाँ-वहाँ फटी,

ज़ख़मों की दरारें .....   दूर-दूर तक

 

घटना ?  .... कैसी घटना…

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Added by vijay nikore on September 17, 2013 at 12:00pm — 22 Comments

कुण्डलिया [ हिंदी दिवस]

शान है मातृभूमि की, देश का स्वाभिमान ,
हिंदी बिंदी मात की, यह मेरा अभिमान //
यह मेरा अभिमान, अधिकार है यह सबका ;
दो इसको विस्तार, है कर्तव्य जन जन का ;
हिंदी दिन को आज, देना यह सम्मान है
अपनाओ सब मीत ,इसमें इसकी शान है //

................मौलिक व अप्रकाशित ..............

Added by Sarita Bhatia on September 17, 2013 at 11:00am — 12 Comments

जीवन की नश्वरता

रे मन ! दृढ़ता का बीज बो,

आज कठोर होता चल तू।

जीवन है एक कठोर संग्राम,

इसे विजित कर आगे निकल तू।

क्या रखा है इस जगत में,

यह तो केवल छाया-माया है।

क्या रखा है इस जीवन में,

इसने तो केवल भरमाया है।

तेरा अपना कुछ भी नहीं है,

केवल भ्रम की एक छाया है।

जब छोड़कर जाना है सब,

तो क्यों तू इतना इतराया है।

जब झूठे हैं ये सारे  बंधन,

क्यों  इनमें स्वयं को रमाया है।

फिर तोड़ दे तू ये सारे बंधन,

इनके भ्रम से बाहर निकल तू।

रे मन ! दृढ़ता का बीज…

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Added by Savitri Rathore on September 16, 2013 at 10:52pm — 22 Comments

मेरा मन

मेरा मन

ढूंढे क्या ....

 

सुख आनंद

ये तो है छलावा

मन का भ्रम

 

प्रसन्नता

ये तो आनी जानी

है क्षणिक

 

संतुष्टि

ये है मोहताज़

अभिलाषाओं की

 

धैर्य स्थिरता

है ये स्वयं की सोच

मस्तिष्क उपज

 

शांति

पर किन मूल्यों पर

अंतःकरण या बाह्य:करण 

 

पूर्णता का अहसास

ये तो है एक खामोशी

महसूस करने की

 

फिर भी

ढूंढता…

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Added by vijayashree on September 16, 2013 at 10:30pm — 13 Comments

दो क्षणिकाएं (राम शिरोमणि पाठक )

१ -उस दिन

रोज़ की तरह
उस दिन भी वो मिलीं मुझसे
हँसते हुए
लेकिन हँसी
अजीब सी लगी उनकी
जैसे कोई ईमानदार कर्मचारी
बेइमान अफ़सर को इस्तीफ़ा सौपे
और वो मुस्कुरा दे
**********************************
२-ऐसा भी

रक्त पिपासु कीड़ा
आखिरी बूँद तक चूस गया
अरे ये क्या?
शिकारी कुत्ते भी है
हड्डियाँ चबाने के लिए
*******************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक /अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on September 16, 2013 at 10:07pm — 26 Comments

ग़ज़ल (एक प्रयास )

वज़न -२२१२ २२१२ 



ठगते रहे सब प्यार में!

बिकता रहा बाज़ार में !!



लेने चला मै रौशनी!

पागल सा अन्धे गार में !! 



खुद ही बताता है जखम !

थी धार क्या औज़ार में !!



कैसे नहीं गिरती भला !

थी रेत ही दीवार में !!



कैसे करूँ तारीफ़ मै!

दम ही कहाँ अशआर में !!

****************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक/अप्रकाशित…

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Added by ram shiromani pathak on September 16, 2013 at 9:00pm — 34 Comments

तुम्हारे पास समय नहीं होगा - लघु कथा

अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”

पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला  कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और…

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Added by annapurna bajpai on September 16, 2013 at 7:00pm — 35 Comments

वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

२१२२      २१२२         २१२

खोजता तू  रेत पर जिनके निशान

अब सभी वो मीत तेरे आसमान

हैं घरोंदे  तेरे रोशन जुगनुओं से

उनके घर दीपक जले सूरज समान

उनके घर में तब जवाँ होती है  शाम

तीरगी में जब छुपे  सारा जहान

वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

देखते कब होता हम पर मिहरवान  

वो नवाबों जैसी जीते हैं हयात

हम फकीरी को समझते अपनी शान

दौड़ कर ही तेज वो पीछे हुये थे

भूल बैठे गोल…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on September 16, 2013 at 3:30pm — 21 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दिल लगाने की हिमाक़त हो रही

२ १ २ २    २ १ २ २     २ १ २

रुक्न --फ़ाइलातुन ,फ़ाइलातुन,फ़ाइलुन

बह्र --रमल मुसद्दस महजूफ

 

 

पत्थरों से ज्यों मुहब्बत हो रही

गुगुनाने को तबीयत हो रही…

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Added by rajesh kumari on September 16, 2013 at 2:00pm — 39 Comments

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