एक गीत:
आईने अब भी वही हैं
-- संजीव 'सलिल'
*
आईने अब भी वही हैं
अक्स लेकिन वे नहीं...
*
शिकायत हमको ज़माने से है-
'आँखें फेर लीं.
काम था तो याद की पर
काम बिन ना टेर कीं..'
भूलते हैं हम कि मकसद
जिंदगी का हम नहीं.
मंजिलों के काफिलों में
सम्मिलित हम थे नहीं...
*
तोड़ दें गर आईने
तो भी मिलेगा क्या हमें.
खोजने की चाह में
जो हाथ में है, ना गुमें..
जो जहाँ जैसा सहेजें
व्यर्थ कुछ फेकें…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 5, 2011 at 2:12am — 1 Comment
Added by sanjiv verma 'salil' on October 4, 2011 at 10:11pm — 2 Comments
जिनको चाहा था, वो अनजानों की भीढ़ में खो गए
जो चाहते हें, वो अपनो की भीढ़ में खो गए
हम तनहा थे तनहा ही रह गए
काश भीढ़ में चाहत होती
अपनो का ना सही, अनजानों का साथ तो होता
Added by Sanjeev Kulshreshtha on October 4, 2011 at 8:49pm — 1 Comment
तू ज़रा सोच कभी अपनी अदा से पहले
कहीं मर जाये न इक शख्स क़ज़ा से पहले
इस लिए आज तलक मुझ से ख़ताएँ न हुईं
रोक देता है ज़मीर आ के ख़ता से पहले
हो सके तो कभी देखो मेरे घर में आकर
ऐसी बरसात जो होती है घटा से पहले
ग़मे जानां की क़सम अश्के मोहब्बत की क़सम
थे बहुत चैन से हम दौरे वफ़ा से पहले
वह फ़क़त रंग ही भर्ती रही अफसानों में
सब पहुंच भी गए मंजिल पे सिया से पहले
Added by siyasachdev on October 4, 2011 at 8:03pm — 5 Comments
मन का कसा जाना कसौटी पर मनस-उत्थान है
जो कुछ मिला है आज तक क्या है सुलभ बस होड़ से?
इस जिन्दगी की राह अद्भुत, प्रश्न हैं हर मोड़ से ||1||…
Added by Saurabh Pandey on October 4, 2011 at 1:30pm — 33 Comments
हिंदी को समर्पित दोहे.
Added by AVINASH S BAGDE on October 3, 2011 at 8:06pm — 7 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 3, 2011 at 7:30am — 5 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on October 2, 2011 at 6:30pm — 3 Comments
सब को मीठे बोल सुनाती रहती हूँ
दुश्मन को भी दोस्त बनाती रहती हूँ॥
कांटे जिस ने मेरी राह में बोये हैं
राह में उस की फूल बिछाती रहती हूँ॥
अपने नग़मे गाती हूँ तनहाई में
वीराने में फूल खिलाती रहती हूँ॥
प्यार में खो कर ही सब कुछ मिल पाता है
अक्सर मन को यह समझाती रहती हूँ
तेरे ग़म के राज़ को राज़ ही रक्खा है
मुस्कानों में अश्क छुपाती रहती हूँ॥
दिल मंदिर में दिन ढलते ही रोज़ "सिया"
आशाओं के…
Added by siyasachdev on October 2, 2011 at 4:59pm — 12 Comments
एक रचना:
कम हैं...
--संजीव 'सलिल'
*
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
अनगिनती रिश्ते दुनिया में
बनते और बिगड़ते रहते.
कुछ मिल एकाकार हुए तो
कुछ अनजान अकड़ते रहते.
लेकिन सारे के सारे ही
लगे मित्रता के हामी हैं.
कुछ गुमनामी के मारे हैं,
कई प्रतिष्ठित हैं, नामी हैं.
कोई दूर से आँख तरेरे
निकट किसी की ऑंखें नम हैं
जितने रिश्ते बनते कम हैं...
हमराही हमसाथी बनते
मैत्री का पथ अजब-अनोखा
कोई न…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 2, 2011 at 8:00am — 5 Comments
तिनका तिनका टूटा है-
दर्द किसी छप्पर सा है-
आँसू है इक बादल जो
सारी रात बरसता है-
सारी खुशियाँ रूठ गईं
ग़म फिर से मुस्काया है-
उम्मीदों का इक जुगनू
शब भर जलता बुझता है-
मंजिल बैठी…
Added by विवेक मिश्र on October 2, 2011 at 7:30am — 16 Comments
अदब के साथ जो कहता कहन है
वो अपने आप में एक अंजुमन है
हमें धोखे दिये जिसने हमेशा
उसी के प्यार में पागल ये मन है
हुई है दिल्लगी बेशक हमीं से
कभी रोशन था उजड़ा जो चमन है
अँधेरे के लिए शमआ जलाये
जिया की बज्म में गंगोजमन है
नज़र दुश्मन की ठहरेगी कहाँ अब
बँधा सर पे हमेशा जो कफ़न है
खिले हैं फूल मिट्टी है महकती
यहाँ पर यार जो मेरा दफ़न है
कहाँ परहेज मीठे से हमें…
ContinueAdded by Er. Ambarish Srivastava on October 2, 2011 at 12:30am — 19 Comments
Added by rajkumar sahu on October 1, 2011 at 11:39pm — No Comments
(1)
मुकद्दर की बात.
हुकूमत के साथ-साथ ही दफ्तर बदल…
Added by AVINASH S BAGDE on October 1, 2011 at 4:00pm — 6 Comments
सबसे पहले मैं आप सबसे माफ़ी चाहती हूँ कुछ मसरूफियत की वजह से मैं ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा आप सबके खूबसूरत कमेंट्स का शुक्रिया अदा नहीं कर पाई , मैं आप जैसे ज़हीन लोगो के के बारे में क्या लिखूं...यहाँ सब के सब इतने काबिल हैं
Added by siyasachdev on October 1, 2011 at 1:53pm — 3 Comments
शान-ए-हिन्दोस्तान श्री जय देव 'विद्रोही'जी को 'कालिदास सम्मान'
Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 1, 2011 at 1:00pm — 2 Comments
हरिगीतिका
(1)
मधु छंद सुनकर छंद गुनकर, ही हमें कुछ बोध है,
सब वर्ण-मात्रा गेयता हित, ही बने यह शोध है,
अब छंद कहना है कठिन क्यों, मित्र क्या अवरोध है,
रसधार छंदों की बहा दें, यह मेरा अनुरोध है ||
(2)
यह आधुनिक परिवेश इसमें, हम सभी पर भार है,
यह भार भी भारी नहीं जब, संस्कृति आधार है,
सुरभित सुमन सब है खिले अब, आपसे मनुहार है,
निज नेह के दीपक जलायें, ज्योंति का…
Added by Er. Ambarish Srivastava on October 1, 2011 at 2:31am — 15 Comments
दिल लगाना हमने सुना है , एक गुनाह है यहाँ
सारी दुनिया को फिर तो गुनाहगार होना चाहिए ..
सुना है , मजा है बहुत , महबूब के इन्तजार में …
ContinueAdded by Rajeev Kumar Pandey on October 1, 2011 at 12:33am — 5 Comments
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