मुल्क में कोहराम कैसा है
या खुदा ये निजाम कैसा है
बाद दंगों के क्या दिखा तुमको
कैसा अल्लाह राम कैसा है
हाथ जोड़े थे वोट लेने को
देखना अब के काम कैसा है
खातिरे हक़ चली ये आंधी को
रोकने इंतजाम कैसा है
बादशा से सवाल करता जो
बेअदब ये गुलाम कैसा है
मूक अंधी बधिर ये सत्ता से
जो मिला ये इनाम कैसा है
हुक्मरानों के शहर में देखो
भीड़ कैसी ये जाम कैसा है
कह रहा "दीप" देश की हालत
आप कहिये कलाम…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 25, 2012 at 11:00am — 8 Comments
==========ग़ज़ल===========
भेडियों के राज में शेरों की हस्ती देखिये
फिर रहे डंडा दिखाते सरपरस्ती देखिये
राजधानी में लगी यूँ आग गर्मी आ गयी
हो रही सड़कों में अब पानी से मस्ती देखिये
वो बुरा कहते नहीं सुनते नहीं देखें नहीं
खामखा ही…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 23, 2012 at 8:29pm — 11 Comments
इक ग़ज़ल पेशेखिदमत है दोस्तों
उड़ गयी चिड़िया सुनहरी क्या बसेरा हो गया
देखते ही देखते बाजों का डेरा हो गया
कुर्बतों में मिट गयी तहजीब की दीवार यूँ
आपका कहते थे जो अब तू औ तेरा हो गया
कागजी टुकड़े खुदा हैं और उनके नूर से
बंद…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 22, 2012 at 4:00pm — 11 Comments
हास्य कहाँ कहाँ से निकलता है मुझे स्वयं यकीन नहीं होता
अब देखिये
सेठ जी ने सड़क पे पन्नी बीनते बच्चे से संवेदना भरे स्वर में पूछा
क्यूँ सड़क पर बीनते हो पन्नियाँ
मिल नहीं पाती है जब चवन्नियाँ
काम कर लो घर पे मेरे तुम अगर
रोज मिल जाएँगी कुछ अठन्नियां
लड़का बोला
जेब से सबकी चुरा चवन्नियां
हमको दोगे आप कुछ अठन्नियां
चोर के घर काम करना पाप है
उससे बेहतर है उठाना पन्नियाँ
आप भी मेहनत करो अब सेठ…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 17, 2012 at 3:59pm — 7 Comments
==========ग़ज़ल============
आ गया है वक़्त सबको साथ चलना चाहिए
दोस्तों दिल में अमन का दीप जलना चाहिए
खून की होली, धमाके, रेप, हत्या देख कर
जम चुका बर्फ़ाब सा ये दिल पिघलना चाहिए
मात देने मुल्क में पसरे हुए आतंक को
बाँध कर सर…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 16, 2012 at 11:00am — 13 Comments
मेरी चाहत की दुनिया आ के फिर संवार दो
ठिठुरती शीत में सिमटी हुई सी रात है
अकेलेपन का गम ये इश्क की सौगात है
विरह ये लग रहा जैसे हृदय आघात है
वक़्त के सामने मेरी भी क्या औकात है
प्रिये तडपाओ न अब और जरा प्यार दो
मेरी चाहत की दुनिया आ के फिर संवार दो
सुबह है शबनमी प्यारी गुलाबी शाम है
हवा के हाथ में कोई तिलिस्मी जाम है
युगल स्वक्छंद फिरते दे रहे पयाम हैं
इश्क करते रहो ये आशिकों का काम है
प्रिये मेरे गले को बाहों का…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 15, 2012 at 4:17pm — 12 Comments
या फिर सागर मंथन होगा ???
बात सत्य लगती खारी जब
गरल उगलते नर नारी तब
छुप कर बैठे विष धारी सब
इस पर शिव से चिंतन होगा
या फिर सागर मंथन होगा ???
कितना किसको तुमने बांटा
सुख की माला दुःख का काँटा
नमक दाल और चावल आटा
पास किसी के अंकन होगा
या फिर सागर मंथन होगा ???..................
संदीप पटेल "दीप"
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 13, 2012 at 6:02pm — 4 Comments
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश चीखें
मैंने माना कोई नहीं अपना
तोड़ डाला है आज हर सपना
रखे गैरत मिला है क्या मुझको
सोच में इसकी भला क्यूँ खपना
सुन लूँ बिसरी हुई सी ऊँघती बेहोश चीखें
शब्द दर शब्द बोलती हैं कुछ खामोश…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 13, 2012 at 3:45pm — 4 Comments
दिन रात सरकारी सिस्टम और तथाकथित भ्रष्टाचारियों को कोसते कोसते एक दिन कोसू राम भगवान् के घर को विदा हुए जी हाँ जिन्दगी भर ईमानदारी से जिए कोसू राम जी जैसे ही ऊपर पहुंचे, भीड़ लगी हुई थी चौंककर पूछा ये क्या हो रहा है !! आवाज आई पंक्ति में खड़े हो जाओ फिर बताते हैं, कोसू राम जी पंक्ति में खड़े हो गए आगे वाले सज्जन ने बताया वो दरवाजे देख रहे हो उनसे हमें पंक्तिबद्ध अन्दर जाना है शुक्रिया अदा कर कोसूराम जी सोचने लगे, चलिए आज कुछ तो अच्छा हुआ यहाँ कुछ तो ईमानदारी है अपना नंबर आ ही जायेगा । थोड़ी देर…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on December 12, 2012 at 6:00pm — 1 Comment
प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम
तेरे बिन दिल को चैन नहीं है
मन कहे मुझसे तू यहीं कहीं है
शब् भर आँखें जाग रहीं है
निन्दिया मुझसे मेरी भाग रही है
वो जो…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 11, 2012 at 4:52pm — 8 Comments
अपनी कल की ग़ज़ल में कुछ सुधार किये हैं ग़ज़ल की तकनीकी गलतियाँ दूर करने की कोशिश की है आशा है आप सभी को प्रयास सुखद लगेगा
हैं हम गैरत के मारे पर ये सौदागर कहाँ समझे
लगाई कीमते गैरत औ गैरत को गुमाँ समझे
छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे
है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे
गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो
सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे
बने जाबित जो ऑफिस में खुदी को कैद करता है
घिरा दीवार से…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 6, 2012 at 4:00pm — 14 Comments
कार में बैठे शराबी चुस्कियाँ लेने लगे
तब भिखारी भी शहर के आशियाँ लेने लगे
रूठना आता नहीं है पर दिखावा कर लिया
रूठने के बाद हम ही सिसकियाँ लेने लगे
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 5, 2012 at 4:38pm — 13 Comments
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