कुंद चाकू पर धार लगाकर
हम चाकू से छीन लेते हैं उसके हिस्से का लोहा
और लोहे का एक सीदा सादा टुकड़ा
हथियार बन जाता है
जमीन से पत्थर उठाकर
हम छीन लेते हैं पत्थर के हिस्से की जमीन
और इस तरह पत्थर का एक भोला भाला टुकड़ा
हथियार बन जाता है
लकड़ी का एक निर्दोष टुकड़ा
हथियार तब बनता है जब उसे छीला जाता है
और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की लकड़ी
बारूद हथियार तब बनता है
जब उसे किसी कड़ी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 21, 2013 at 9:00pm — 12 Comments
बहर : २१२२ १२१२ २२
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बाजुओं की थकान जिंदा रख
जीतने तक उड़ान जिंदा रख
आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं
है जो खुद पे गुमान जिंदा रख
तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं
वो पुराना मकान जिंदा रख
बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ
तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख
नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ
एक ऐसी दुकान जिंदा रख
जान तुझमें ये डाल देंगे कभी
नाक, आँखें व कान…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 1, 2013 at 11:32pm — 29 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 24, 2013 at 9:00pm — 5 Comments
जब नयन गुनगुना हो गया
तो सृजन गुनगुना हो गया
रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया
तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया
उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया
नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया
थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया
उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया
साँस ने साँस को आग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 22, 2013 at 1:33am — 4 Comments
क्षणिका : नीम चढ़ा करेला
नीम चढ़ा करेला
सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है
लेकिन चर्बी को सेहत मानने वाले समाज में
ये कहीं नहीं बिकता
क्षणिका : हवा की तरह
मुझसे प्रेम करो हवा की तरह
ताकि तुम्हारा हर एक अणु
मेरे जिस्म के हर बिन्दु से टकराये
और तुमसे दूर होते ही
मेरी नसों में बह रहा लहू
मुझे फाड़कर रख दे
क्षणिका : विकास
चिकित्सा कम कर देती है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2013 at 9:06am — 8 Comments
बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा
मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए
केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2013 at 7:55pm — 12 Comments
महानगर के सबसे शानदार इलाके की सबसे अच्छी कोठियों में से एक में ब्रह्मराक्षस रहता है। वो स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान समझता है और चाहता है कि उसकी विद्वत्ता के चर्चे चारों दिशाओं में हों। समय समय पर ज्ञान के प्यासे लोग उसके पास आते रहते हैं। वो फौरन उनको अपना शिष्य बना लेता है। फिर उनके कानों में फुसफुसाकर गुरुमंत्र देता है। जैसे ही शिष्य इस गुरुमंत्र का उच्चारण करता है वो कुत्ता बन जाता है। इसके बाद ब्रह्मराक्षस अपनी तमाम पोथियाँ उसके सामने बाँचता है। तत्पश्चात ब्रह्मराक्षस उसके गले…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 23, 2013 at 7:44pm — 12 Comments
हम कहीं भी महफ़ूज नहीं है
वो कभी भी, कहीं भी, हमारी हत्या कर सकते हैं
हम इंसान हैं
वो आतंकवादी
पर वो नहीं जानते
कि हम पर चलाई गई हर गोली
उनके धर्म की छाती में जाकर धँसती है
हम फिर पैदा हो जायेगें
सौ मरेंगे तो हजार और पैदा हो जायेंगे
पर उनका धर्म एक बार मर गया
तो हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा
धर्म जान लेने या देने से नहीं
जान बचाने से फैलता है
और ख़ुदा,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 16, 2013 at 11:08pm — 8 Comments
मिसरों का वज़्न : २१२२ १२१२ २२ (११२२ १२१२ २२ की छूट ली जा सकती है)
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अच्छे अच्छों की जान लेता है
इश्क जब इम्तेहान लेता है
बात सबकी जो मान लेता है
छोड़ सबकुछ मसान लेता है
वही जीता है इस नगर में जो
बेचकर घर दुकान लेता है
फन वो देता है जिसको भी सच्चा
पहले उसका गुमान लेता है
ये निशानी है खोखलेपन की
खुद को खुद ही बखान लेता है
जब भी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 11, 2013 at 9:30pm — 14 Comments
बहर : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
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जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे
झुक गये हम क्या जरा सा जिंदगी के बोझ से
लाट साहब को निरा टट्टू नज़र आने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 31, 2013 at 11:32am — 18 Comments
बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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भिनभिनाने से तेरे कौन बदल जाता है
अब तो मक्खी यहाँ कोई भी निगल जाता है
यूँ लगातार निगाहों से तू लेज़र न चला
आग ज्यादा हो तो पत्थर भी पिघल जाता है
जिद पे अड़ जाए तो दुनिया भी पड़े कम, वरना
दिल तो बच्चा है खिलौनों से बहल जाता है
तुझ से नज़रें तो मिला लूँ प’ तेरा गाल मुआँ
लाल अख़बार में फौरन ही बदल जाता है
थाम लेती है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2013 at 12:14am — 8 Comments
बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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करके उपवास तू उसको न सता मान भी जा
तेरे अंदर भी तो रहता है ख़ुदा मान भी जा
सिर्फ़ करने से दुआ रोग न मिटता कोई
है तो कड़वी ही मगर पी ले दवा मान भी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 6, 2013 at 11:52pm — 17 Comments
सन्नाटे के भूत मेरे घर आने लगते हैं
छोड़ मुझे वो जब जब मैके जाने लगते हैं
उनके गुस्सा होते ही घर के सारे बर्तन
मुझको ही दोषी कहकर चिल्लाने लगते हैं
उनको देख रसोई के सब डिब्बे जादू से
अंदर की सारी बातें बतलाने लगते हैं
ये किस भाषा में चौका, बेलन, चूल्हा, कूकर
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
जिसकी खातिर खुद को मिटा चुकीं हैं, वो ‘सज्जन’
प्रेम रहित जीवन कहकर पछताने लगते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2013 at 11:59am — 28 Comments
राहबर जब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई
प्रेम का रोग मुझको लगा
और दारू दवा हो गई
जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई
चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई
लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई
जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई
माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2013 at 4:30pm — 20 Comments
“तंत्र को पारदर्शी करो, तंत्र को पारदर्शी करो”। सरकारी दफ़्तर के बाहर सैकड़ों लोगों का जुलूस यही नारा लगाते हुए चला आ रहा था। अंदर अधिकारियों की बैठक चल रही थी। एक अधिकारी ने कहा, “जल्दी ही कुछ किया न गया तो जुलूस लगाने वाले लोग कुछ भी कर सकते हैं”। अंत में सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि तंत्र को पूर्णतया पारदर्शी बना दिया जाय।
कुछ ही दिनों में दफ़्तर की सारी दीवारें ऐसे शीशे की बनवा दी गईं जिससे बाहर की रोशनी अंदर न आ सके लेकिन अंदर की रोशनी बाहर जा सके। अब दफ़्तर का सारा काम काज…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 17, 2012 at 3:25pm — 14 Comments
(पूर्णतया काल्पनिक, वास्तविकता से समानता केवल संयोग)
बहुत समय पहले की बात है। जंगल में शेर, लोमड़ी, गधे और कुत्ते ने मिलकर एक कंपनी खोली, जिसका नाम सर्वसम्मति से ‘राष्ट्रीय वन निगम’ रखा गया । गधा दिन भर बोझ ढोता। शाम को अपनी गलतियों के लिए शेर की डाँट और सूखी घास खाकर जमीन पर सो जाता। कुत्ता दरवाजे के बाहर दिन भर भौंक भौंक कर कंपनी की रखवाली करता और शाम को बाहर फेंकी हड्डियाँ खाकर कागजों के ढेर पर सो जाता। लोमड़ी दिन भर हिसाब किताब देखती। हिसाब में थोड़ा बहुत इधर उधर करके…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 13, 2012 at 12:13pm — 16 Comments
बहर : २१२ २१२ २१२ २१२
बरगदों से जियादा घना कौन है
किंतु इनके तले उग सका कौन है
मीन का तड़फड़ाना सभी देखते
झील का काँपना देखता कौन है
घर के बदले मिले खूबसूरत मकाँ
छोड़ता फिर जहाँ में भला कौन है
लाख हारा हूँ तब दिल की बेगम मिली
आओ देखूँ के अब हारता कौन है
प्रश्न इतना हसीं हो अगर सामने
तो फिर उत्तर में नो कर सका कौन है
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 1, 2012 at 8:30pm — 13 Comments
टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है
अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है
गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे
झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है
आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है
जितना कम…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 26, 2012 at 9:30pm — 11 Comments
बहर : २१२२ १२१२ २२ [इस बहर को ११२२ १२१२ २२ भी लेने की छूट होती है]
मुझसे नज़रें न तू मिलाया कर
की है तौबा न यूँ पिलाया कर
जिस्म उरियाँ हो रूह ढँक जाए
ऐसे कपड़े न तू सिलाया कर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 21, 2012 at 3:30pm — 6 Comments
बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है
अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है
है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी
मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है
रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर
आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है
तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे
आ मेरे पास तेरे लब पे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2012 at 2:21pm — 33 Comments
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