बाज़ार
संजीदे संगीन ख़यालों-ख़वाबों भरा बाज़ार
उसमें मेरी ज़िन्दगी, सब्ज़ी की टोकरी-सी।
कुछ सादी सच्चाईयाँ भरीं उस टोकरी में,
प्यार के कच्चे-मीठे-कड़वे झूठों का भार,
चाकलेट के लिए वह छोटे बचकाने झगड़े,
शैतानी भी, और बचपन के खेल-खिलवाड़।
भीड़ में भीड़ बनने की थी बेकार की कोशिश,
बनावटी रंगों की बेशुमार बनावटी सब्ज़ियाँ,
मफ़्रूज़ कागज़ के फूल यह असली-से लगते,
थक गया हूँ अब इनसे इस…
ContinueAdded by vijay nikore on September 13, 2013 at 1:30am — 16 Comments
चिंगारियाँ
बूंद-बूंद टपकती
घबराती बेचैनी,
बेचैन ख़यालों के भीतरी अहाते --
जहाँ कहीं से आती थी याद तुम्हारी
बंद कर दिए थे उन कमरों के दरवाज़े,
पर समय की धारा-गति कुछ ऐसी
दरवाज़े यह समाप्त नहीं होते,
गहरे में उतर-उतर आती है अकुलाहट
कई दरवाज़ों के पीछे से आती है जब
सुनसान आवाज़, तुम्हारी करुण पुकार,
तुम थी नहीं वहाँ, हाँ मैं था
और था मेरा कांपता आसमान
टूटते तारे-सा गिरने का जिसका…
ContinueAdded by vijay nikore on September 5, 2013 at 11:30am — 24 Comments
कल का किस को पता है
तुम कहते थे न
"कल का किस को पता है?"
और मैं इस पर हर बार ...
हर बार हँस देती थी,
इतिहास का वह सम्मोहक टुकड़ा
उढ़ते भूरे सफ़ेद बादल-सा
सैकड़ों कल को ले कर बीत गया,
कब आया, कब बूंद-बूंद रीत गया।
असंगत तर्कों के तथ्यों का विश्लेषण करती
सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत,
आए-गए अब अपने अकेले में
मैं भी दुरहा दिया करती हूँ...
"कल का किस को पता…
ContinueAdded by vijay nikore on August 25, 2013 at 5:00pm — 12 Comments
अकथ्य व्यथा
अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,
क्षुब्ध अनासक्त अनुभवों से अनुबध्द,
फूलों के हार-सी सुकुमार
मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?
पँक्ति-पँक्ति में संतप्त, कुछ टटोलती,
विग्रहित शिशु-सी रुआँसी,
बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से
किसी पुराने रिश्ते को थामे,
मेरे क्षत-विक्षत शब्दों में तुम
इतनी जागती रातों में क्या ढूँढती हो ?
अथाह सागर के दूरतम…
Added by vijay nikore on August 22, 2013 at 12:30pm — 31 Comments
पहचान
हटा कर धूल जब देखा अतीत के आईने ने हमको,
उसने भी न पहचाना और अनजान-सा देखा हमको,
सालों बाद हमसे पूछे बहुत सवाल पर सवाल उसने,
हर सवाल के जवाब में हमने नाम तुम्हारा था दिया।
ऐसा…
ContinueAdded by vijay nikore on August 18, 2013 at 11:30am — 28 Comments
Added by vijay nikore on July 13, 2013 at 3:00pm — 36 Comments
कितना ही पास हो मृत्यु-मुखद्वार
सीमित सोचों के दायरों में गिरफ़्तार,
बंदी रहता है प्रकृत मानव आद्यंत ...
इर्ष्या, काम, क्रोध, मोह और लोभ,
राग और द्वेष
रहते हैं यंत्रवत यह नक्षत्र-से आस-पास,
प्रक्रिया में बन जाते हैं यह मानव-प्रकृति,
विकृतियों में व्यस्त, मिलती नहीं मुक्ति।
अहंमन्यता के अंधेरे कुँए में निवासित
अभिमान-ग्रस्त मानव संचित करे भंडार,
कुएँ की परिधि में वह मेंढक-सा सोचे
‘कितना विशाल…
ContinueAdded by vijay nikore on July 9, 2013 at 12:30pm — 16 Comments
नियमों की सरहदें
उलझी हुई मानवीय अपेक्षाओं से अनछुआ
तुम्हारे लिए मेरा काल्पनिक अलोकित स्नेह
किसी सांचे में ढला हुआ नहीं था,
और न हीं वह पिंजरे में बंद पक्षी-सा
कभी सीमित या संकुचित था लगा।
एक ही वृक्ष पर बैठे हुए हम
दो उन्मुक्त पक्षिओं-से थे,
कभी तुम चली आई उड़ कर पास मेरे,
और मैं गद-गद हो उठा, और कभी मैं
हर्षोन्माद में आ बैठा डाल पर तुम्हारी।
शैतान हँसी की हल्की-सी फुहार…
ContinueAdded by vijay nikore on July 3, 2013 at 1:00pm — 27 Comments
मन्त्रमुग्ध
जाने हमारे कितने अनुभवों को आँचल में लिए
ममतामय पर्वतीय हवाएँ गाँव से ले आती रहीं
रह-रह कर आज सुगन्धित समृति तुम्हारी...
तुम्हारी रंगीन सुबहों की स्वर्णिम रेखाएँ
बिछ गईं थी तड़के आज आँगन में मेरे
कि जैसे झुक गई थीं पलकें उषा की सम्मानार्थ,
विकसित हुए फूल हँसते-हँसते मन-प्राण में मेरे।
खुशी में तुम्हारी मैं फूला नहीं समाता, यह सच है,
सच यह भी, कि मन में मेरे रहती है सोच तुम्हारी…
ContinueAdded by vijay nikore on June 25, 2013 at 7:30am — 28 Comments
अग्नि-परीक्षा
मृत्यु के दानव-से क्रूर-कर्म तक
वक्त और बेवक्त तुम्हें
मेरी अग्नि-परीक्षा करनी थी न?
लो कर लो, देख लो मुझको
जी रही हूँ मैं कब से केवल एक नहीं
तुम्हारी जलाई असंख्य अग्निओं में
जो अभी तक मन…
ContinueAdded by vijay nikore on June 18, 2013 at 12:42pm — 24 Comments
सपने की झलक
स्वर्णिम कल्पनाओं में पले, सलोने-से, परितुष्ट सपने मेरे,
लगता है कई संख्यातीत संतप्त युगों पर्यन्त मैंने तुमको
आज जीवन-गति की लय पर यूँ ध्वनित देखा, गाते देखा।
वर्तमान के उजले संगृहीत प्रकाश में पुन: प्रदीप्त थे तुम,
समय की धारा पर मैंने तुमको लहरों-सा लहलहाते देखा।
जाने कितने अवशेष हैं अब सुख-निद्रा के यह प्रसन्न-पल,
गिने-चुने पलों की झोली भर कर रंजित मन में संप्रयुक्त
ऐसे ही उल्लास में अपने तू…
ContinueAdded by vijay nikore on May 27, 2013 at 1:00pm — 17 Comments
माँ ... श्रध्दांजलि !
(पावन माँ दिवस पर)
मैं प्राण-स्वपन तुम्हारा, तुमने सर्जन किया था मेरा,
कभी मैंने जन्म लिया था तुम्हारे पावन-अंदर,…
ContinueAdded by vijay nikore on May 7, 2013 at 3:30pm — 26 Comments
तुम, मेरी पहचान !
तुम अति-सुगम सरल स्नेह से मेरी
प्रथम पहचान
मेरे कालान्तरित काव्य की
अंतिम कड़ी,
गीतों की गमक…
ContinueAdded by vijay nikore on May 1, 2013 at 1:30pm — 26 Comments
अभिलाषा
Added by vijay nikore on April 11, 2013 at 11:30am — 34 Comments
अंतिम स्पंदन
यदि मैं अर्पित करता भी स्नेह
उमड़ता रहा है जो मन में मेरे
क्षण-अनुक्षण तुम्हारे लिए,
कोई अंतरित ध्वनि कह देती है..कि
स्नेह इतना तुम सह ही न सकती,
और फिर द्वार तुम्हारे से लौट आए
…
ContinueAdded by vijay nikore on April 5, 2013 at 1:41pm — 34 Comments
प्राण-पल
पेड़ से छूटे पत्ते-सा समय की आँधी में उड़ा
मैं हल्के-से तुम्हारे सामने था आ गिरा,
तुमने मुझे उठाया, देखा, परखा, मुझको सोचा,
जाने क्यूँ मुझको लगा
कि वह पल मेरी बाकी ज़िन्दगी से अलग
मेरा ज़्यादा अपना था, अधिक प्रिय…
ContinueAdded by vijay nikore on March 30, 2013 at 3:30pm — 20 Comments
नारी का मन
तुम समझ सकोगे क्या ? ...
कि मेरी झुकी समर्पित पलकों के पीछे
सदियों से स्वरहीन
मेरी मुरझाई आस्था आज…
ContinueAdded by vijay nikore on March 14, 2013 at 12:30pm — 22 Comments
(निराश को आशाप्रद करती रचना)
आगंतुक
Added by vijay nikore on March 11, 2013 at 12:00pm — 24 Comments
रक्तधार
विगत संबंधों से स्पंदन करती
पुरानी रक्तधार
सूखी नदी-सी सूख चुकी है,
पर मात्र स्मृति किसी एक संबंध की…
ContinueAdded by vijay nikore on February 19, 2013 at 1:54pm — 29 Comments
सूनेपन का रंग ...
पतझड़ के सूखे पत्तों -सा पीला,
मेले में खो गए भयभीत
बालक की नब्ज़-सा नीला,
या अमावस के गहन
अंधकार-सा गंभीर और काला,
सूनेपन का रंग
कैसा होता है?
घोर आतंक-सा वातावरण,
मौसम पर मौसम बेचैन,
जँगली हाँफ़ती हवाएँ
दानव-सी हँसी हँसती,
हर मास एक और पन्ना पलट
करता है गए मास का
अंतिम संस्कार।
पर सूनापन पड़ा रहता है,
वहीं का वहीं,
पुराने…
Added by vijay nikore on February 14, 2013 at 4:00pm — 18 Comments
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