‘ अकड़न ’
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जहाँ कहीं भी अकड़न है
समझ लेने दीजिये उसे
अगर वो ये सोचती है कि, दुनिया है , तो वो है
तो ये बात सही भी हो सकती है
और अगर वो ये सोचती है कि , वो है, इसलिए दुनिया है
तो फिर उसे देखना चाहिए पीछे मुड़कर
कि, कोई भी नहीं बचा है , ऐसी सोच रखने वालों में से
और दुनिया आज भी है ,
वैसे तो तुम्हारा होना बस तुम्हारा होना ही है , इससे ज्यादा कुछ नहीं
बस एक घटना घटी और तुम हो गए
एक और…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 13, 2014 at 9:30am — 17 Comments
प्रिये , सुनती हो !
मैने सुना है आक्सीजन और हाईड्रोजन तैयार हो गये हैं
अपने ख़ुद के अस्तित्व खो देने के लिये
और एक रासायनिक प्रक्रिया से गुजरने के लिये
ताकि मिल पायें एक दूसरे से ऐसे, कि फिर कोई यूँ ही जुदा न कर सके
और बन सके पानी , एक तीसरी चीज़
दोनो से अलग
प्रिये,सुनती हो !
अब वो पानी बन भी चुके हैं
कोई सामान्यतया अब उन्हे अलग नही कर पायेंगे
अच्छा हुआ न ?
प्रिये , सुनती हो !
क्यों न हम भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 10, 2014 at 8:55am — 20 Comments
कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम
सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम
कौन काम को देख के , अब देता है दाम
थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम
सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम
नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम
सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम
फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता है दुश्नाम
हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम
कितने नामी के हुये , धूमिल सारे नाम…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 6, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या
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1222 1222 122
कभी खुद से शिकायत भी हुई क्या
कभी झेली भी है शर्मिन्दगी क्या
बहुत बाहोश खोजे , मिल न पाये
मिला देगी हमें अब बेखुदी क्या
ये क़िस्सा, दर्द- आँसू से बना है
समझ लेगी इसे आवारगी क्या
अगर सीने में सादा दिल है ज़िन्दा
बनावट बाहरी क्या, सादगी क्या
ख़ुदा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 4, 2014 at 1:30pm — 30 Comments
मेज़ के उपर सब कुछ शांत है
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बड़ी सी मेज , साफ मेजपोश
ताज़े फूलों के गुलदस्तों सजी
करीने से लगी कुर्सियाँ
अदब से बैठे हुये अदब की चर्चा मे मशगूल
सभ्यता और संस्कृति की जीती जागती मूर्तियाँ
सामाजिक बुराइयों से लड़ते जो कभी न थके
सामाजिक उन्नति के नये-नये मानक गढ़ते
सब कुछ कितन भला लग रहा है , मेज के ऊपर
सामान्यतया क़रीब से देखने में
लेकिन ,
जो दूर बैठा है उस मेज से
देख सकता है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 3, 2014 at 1:30pm — 20 Comments
2122 1212 22 /112
पर यहीं पर करार सा है कुछ
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उजड़ा उजड़ा दियार सा है कुछ
पर यहीं पर करार सा है कुछ
गर्मियाँ खून में कहाँ बाक़ी
गर्म हूँ , तो बुखार सा है कुछ
खूब बोले थे खुल के, क्यूँ आखिर
बच गया फिर, उधार सा है कुछ
दिल को बेताबियाँ नहीं डसतीं
प्यार है, या कि प्यार सा है कुछ
फूल कलियों में खूब चर्चा है
अब ख़िंज़ा मे उतार सा है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 30, 2014 at 10:30am — 26 Comments
कँपकपी
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तुम कौन हो भाई ?
जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो
शीत एक सत्य की तरह है
और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है
शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत , सार्वभौमिक तो नहीं न
क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है
क्या मैने ऐसा कहा कभी ?
ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति
तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 12:00pm — 9 Comments
11212 11212 11212 11212
न तो आँधियाँ ही डरा सकीं , न ही ज़लजलों का वो डर रहा
तेरे नाम का लिये आसरा , सभी मुश्किलों से गुजर रहा
न तो एक सा रहा वक़्त ही , न ही एक सी रही क़िस्मतें
कभी कहकहे मिले राह में , कभी दोश अश्कों से तर रहा
कोई अर्श पे जिये शान से , कहीं फर्श भी न नसीब हो
कहीं फूल फूल हैं पाँव में , कोई आग से है गुज़र रहा
तेरी ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी , हुआ मौत से जहाँ सामना
हुआ हासिलों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
1222 1222 122 ---
कभी महसूस कर मेरी कमी भी
तेरी आँखों में हो थोड़ी नमी भी
नदी की धार सी पीड़ा बही, पर
किनारों के दिलों में क्या जमी भी ?
खुशी तो है उजालों की, मगर क्यों
कहीं बाक़ी दिखी है बरहमी* भी ( खिन्नता )
उड़ाने आसमानी भी रखो पर
तुम्हे महसूस होती हो ज़मी भी
ये रिश्ता किस तरह का है बताओ ?
अदावत* भी हमी से, हमदमी भी ( दुश्मनी )
उफ़क पे देख लाली है खुशी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 20, 2014 at 10:39am — 22 Comments
2122 2122 2122 2
कोई तो मंज़र कभी अच्छा दिखाई दे
एक तो आदम कभी सच्चा दिखाई दे
आपा धापी से लगे हैं पस्त हर कोई
कोई तो मिल जाये जो ठहरा दिखाई दे
उथलों में कब ठहरा है बरसात का पानी
ढूँढता है ताल , जो गहरा दिखाई दे
भावनायें गूंगी हो कोनों में हैं सिमटीं
शब्द क़ैदी सा लगा, पहरा दिखाई दे
कोयला जो राख के नीचे दबा था कल
ये हवा कैसी ? कि वो दहका दिखाई दे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 15, 2014 at 11:00am — 21 Comments
तुम्हारे फूल अलग रंग के क्यों लग रहे हैं आज
पत्तों का आकार भी बदला बदला सा है
तुम्हारे फूल और पत्ते ऐसे तो उगते न थे
पोषण किसी और श्रोत से तो प्राप्त नहीं करने लगे
जड़ या तना बदल तो नहीं लिया है तुमने
बेतुक की बडिंग तो नहीं करवा ली है
किसी और प्रजाति के पौधे से
प्रजातियाँ अच्छी बुरी तो नहीं होतीं
सभी अपनी जगह ठीक होतीं हैं
पर अपनी, अपनी होती है
तुक की होती है !
बात केवल स्वतंत्रता पर खत्म…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 12, 2014 at 9:00am — 18 Comments
2122 2122 2122
नाम अपना चल बदल के देखते हैं
घेरे से बाहर निकल के देखते हैं
चाँद सुनता हूँ कि थोड़ा पास आया
आ ज़रा फिर से उछल के देखते हैं
पैरों को मज़बूतियाँ भी चाहिये कुछ
चल ज़रा काटों पे चल के देखते हैं
रोशनी की चाह में तो हैं बहुत, पर
कितने हैं ? जो ख़ुद भी जल के देखते हैं
कुछ मज़ा फिसलन में है,गर है यक़ीं तो
हम कभी यूँ ही फिसल के देखते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 7:00pm — 22 Comments
2122 2122 2
कुछ परायी कुछ हमारी सी
ज़िन्दगी क्यूँ है उधारी सी
अश्क़ों की नदियाँ थमीं तो हैं
सिसकियाँ अब तक हैं जारी सी
लोग कहते हैं कि जी ली, पर
ज़िन्दगी लगती गुजारी सी
बदलियों के सामने क्यों धूप
हो रही है इक भिखारी सी
आसमाँ रोया बहुत था कल
आज सूरत है निखारी सी
हर तरफ़ घायल हुआ हूँ मै
बात शायद थी दुधारी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 6, 2014 at 12:04pm — 28 Comments
कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से
जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं
या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है
किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये
ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी
नोच सकें किसी के मन की शांति
उतार सकें , बिखरा सकें
विचारों के , भावों के समत्व को
अन्दर के प्यार को , ममत्व को
छितरा सकें मन की शांति
ताकि टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व
किसी को…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2014 at 11:30am — 15 Comments
फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन )
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प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही
और झूठी इसलिये
क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है
इसलिये भी, क्योंकि
हम स्वयँ जीते ही कहाँ है
जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,
भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की
भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:42pm — 22 Comments
1222 1222 122
कहीं अब झाँकती है रोशनी भी
कहीं बदली लगी थोड़ी हटी भी
शजर अब छाँव देने लग गये हैं
फ़िज़ा में गूंजती है अब हँसी भी
निशाँ पत्थर में पड़ते लग रहे हैं
अभी है रस्सियों में जाँ बची भी
जहाँ चाहत मरी घुट घुट, वहीं पर
नई चाहत कोई दिल में पली भी
मिलेंगी शाह राहों से ये गलियाँ
गली से रिस रही है ये खुशी भी
मरे से ख़्वाब करवट ले रहे हैं
नज़र आने लगी है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 1:30pm — 19 Comments
1222 1222 122
कोई खामोश, मेरा हम ज़बाँ है
बड़ी चुप सी ,मेरी हर दास्ताँ है
कोई अब साथ आये या न आये
अकेलेपन से मेरा कारवाँ है
कहीं है आदमी में उस्तवारी
कहीं हर शख़्स लगता नातवाँ है
ये मीठी झिड़कियाँ ज़ारी हैं जब तक
तभी तक कोई रिश्ता दरमियाँ है
यहाँ कब ज़िन्दगी हरदम है जीती
यहाँ तो मौत ही बस जाविदाँ है
दिया बाती कहीं से खोज लाओ
उजाला चंद पल का मेहमाँ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 21, 2014 at 10:36am — 23 Comments
11212 11212 11212 11212
कई बाग़ सूने हुये यहाँ , कई फूलों में हैं उदासियाँ
कई बेलों को यही फिक्र है , कि कहाँ गईं मेरी तितलियाँ
कभी दूरियाँ बनी कुर्बतें, कभी कुरबतें बनी दूरियाँ
ये दिलों के खेलों ने दी बहुत , हैं अजब गज़ब सी निशानियाँ
कभी आप याद न आ सके, कभी हम ही याद न कर सके
रहे शौक़ में हैं लिखे मिले , कई गम ज़दा सी रुबाइयाँ
वो हक़ीक़तें बड़ी तल्ख़ थीं, चुभीं खार बनके इधर उधर
सुनो वो चुभन ही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 12, 2014 at 9:30pm — 32 Comments
2122 2122 2
दिन टपक के सूख जाता है
हाथ में कुछ भी न आता है
मै पराया , वो पराया है
कौन किसमें अब समाता है ?
ग़म हक़ीक़ी भी मजाज़ी भी
देख किसको कौन भाता है
दर्द मै अपना दबा भी लूँ
ग़म तुम्हारा पर रुलाता है
खार चुभते जो रिसा था ख़ूँ
रास्ता वो अब दिखाता है
सूर्य तो ख़ुद जल रहा यारों
वो किसी को कब जलाता है
ख़्वाबों में आ आ के शिद्दत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 4, 2014 at 9:39am — 22 Comments
‘’ हमारे रिश्ते ‘’
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अगर रिश्ते सच में हैं , तो
मीलों की दूरियाँ
कमज़ोर नही करती रिश्तों की मज़बूती
मिलन की प्यास बढाती ज़रूर है
रिश्ते , मृग मरीचिका नहीं होते
कि , पास पहुँचें तो नज़र न आयें
भावनायें प्यासी रह जायें
रिश्ते
रेत मे लिखे इबारत भी नही होते
कि ,सफल हो जायें, जिसे मिटाने में
समय के समुद्र में उठती गिरती कमज़ोर लहरें भी
रिश्ते
शिला लेख की तरह…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 28, 2014 at 9:30pm — 33 Comments
2017
2016
2015
2014
2013
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