२२१/२१२१/१२२१/२१२१/२
लिखना न मेरा नाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में
आयेगा कुछ न काम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।१।
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सबको पता है धूल से बढ़कर न मैं रहा कभी
ऊँचा भले ही दाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।२।
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सूरज न उगता भोर का तारों भरी न रात हूँ
ढलती हुई सी शाम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।३।
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रावण बना दिया है मुझे प्यास ने हवस की यूँ
करना न मुझको राम तेरे ख्वाहिशों के शह्र में।४।
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चाहत न कोई नाम की रिश्ता अगर बना कोई
चलना मुझे…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2020 at 6:45am — 13 Comments
नगर खिन्न हो देखता, खुश होता देहात
हरियाली उपहार में, देती है ब रसात।१।
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हलधर सोया खेत में, तन पर ओढ़े धूल
रूठी बदली देखिए, जा बैठी किस कूल।२।
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धरती के दुख से हुई, अँधियारी हर भोर
बादल बिजली चीखते, मत आना इस ओर।३।
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जब से आयी गाँव में, फिर रिमझिम बरसात
सौंधी मिट्टी की महक, उठती है दिन-रात।४।
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वसन धरा के जो सुना, तपन ले गयी चोर
बौराए घन नापते, पलपल नभ का छोर।५।
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मेंढक जी तो हैं सदा, बरखा के…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 6, 2020 at 10:51pm — 4 Comments
१२२२ × ४
कहीं पर भूख पसरी है फटे कपड़े पुराने हैं
भला मैं कैसे कह दूँ ये सभी के दिन सुहाने हैं।१।
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वो गायें गीत फूलों के जिन्हें गजरे सजाने हैं
मगर हम स्वेद के गायें हमें पत्थर उठाने हैं।२।
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पुछें हर आँख से आँसू हमारा ध्येय इतना हो
न सोचो चन्द साँसों हित यहाँ सिक्के कमाने हैं।३।
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बसाना हो तो दुश्मन का बसा दो चाहे पहले पल
पहल अपने से ही करना अगर घर ही जलाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 6, 2020 at 8:30am — 7 Comments
मन को इतना दे गये, अपने ही अवसाद
नाम पते सड़कें गली, क्या रक्खें अब याद।१।
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जीवन जिसको रेतघर, बादल क्या दे नीर
उसको तो हर हाल में, मिलनी है बस पीर।२।
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भूखा बेघर रख रहा, क्या कम यहाँ अभाव
उस पर करता रात - दिन, मँहगाई पथराव।३।
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थकन बढ़ी है पाँव की, छालों के आसार
मिले कहाँ आराम को, तरुवर छायादार।४।
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भले उजाले का हुआ, बहुत जगत भर शोर
दीपक नीचे क्यों रहा, तमस भरा घनधोर।५।
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आँसू अपने डाल दो, उस आँचल में और
हर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 7:09pm — 8 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
लेके आया फिर से बचपन शायरी का सिलसिला
मौत से कह दो न रोके जिन्दगी का सिलसिला।१।
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रोक तेजाबों घुएँ की गन्दगी का सिलसिला
इन हवाओं में भरो कुछ ताजगी का सिलसिला।२।
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कोशिशें दस्तक जो देंगी शब्द तोड़ेगे कभी
मौन की गहरी हुई इस तीरगी का सिलसिला।३।
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हैं बहुत कानून अपनी पोथियों में यूँ मगर
रुक न पाया भ्रष्ट होते आदमी का सिलसिला।४।
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एक जुगनू ने कहा ये भर तमस के काल में
डर न तम से मैं रखूँगा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 12:25pm — 10 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
पाँवों में छाले देख के राहें नहीं खिली
दिनभर थकन से चूर को रातें नहीं खिली।१।
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सुनते हैं खूब रख रहे पहलू में अजनबी
यार ए सुखन से आपकी आँखें नहीं खिली।२।
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थकते न थे जो दूरी का देते उलाहना
उनकी ही मुझको देख के बाँछें नहीं खिली।३।
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लोटा है साँप फिर से जो उसके कलेजे पर
कहता है कौन घर मेरे रातें नहीं खिली।४।
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लाया करोना दर्द तो राहत भी साथ में
ताजी हवा में कौन सी साँसें नहीं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2020 at 9:20am — 4 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
मारा करे हैं लोग जो गम को शराब से
लाते खुशी को देखिए कितने हिसाब से।१।
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खुशबू है भारी भूख पे सुनते जहान में
गेहूँ रहा अलीक न यूँ ही गुलाब से।२।
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लाता नहीं है होश भी अपने ही साथ क्यों
शिकवा है हमको एक ही यारो शबाब से।३।
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साधी है हमने यूँ नहीं हर एक तिश्नगी
गुजरा है अपना दौर भी यारो सराब से।४।
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उनको तो कुर्सी चाहिए पापों की नींव पर
मतलब न रखते आज भी सेवक सवाब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 8, 2020 at 11:11am — 2 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
छलकी बहुत शराब क्यों राजन तुम्हें पता
उसका नहीं हिसाब क्यों राजन तुम्हें पता।१।
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हालत वतन के पेट की कब से खराब है
देते नहीं जुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।२।
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हम ही हुए हैं गलमोहर इस गम की आँच से
बाँकी हुए गुलाब क्यों राजन तुम्हें पता।३।
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हर झूठ सागरों सा है इस काल में मगर
सच ही हुआ हुबाब क्यों राजन तुम्हें पता।४।
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सुनते थे इन का ठौर तो बस रेगज़ार में
सहरा में भी सराब क्यों राजन तुम्हें…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 5, 2020 at 10:30am — 13 Comments
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गंगा जी ने जिस दिवस, धरे धरा पर पाँव
माने गंगा दशहरा, मिलकर पूरा गाँव।१।
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विष्णुपाद से जो निकल, बैठी शंकर भाल
प्रकट रूप में फिर चली, गोमुख से बंगाल।२।
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करती मोक्ष प्रदान है, भवसागर से तार
भागीरथ तप से हुआ, हम सबका उद्धार।३।
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गोमुख गंगा धाम है, चार धाम में एक
जिसके दर्शन से मिटें, मन के पाप अनेक।४।
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अमृत जिसका नीर है, जीवन का आधार
अंत समय जो ये मिले, खुले स्वर्ग का द्वार।५।
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अद्भुत गंगाजल कभी, पड़ें…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 1:39pm — 4 Comments
रहेगा साथ सूरज यूँ सदा उम्मीद क्या करना
जलेगा साँझ होते ही दिया उम्मीद क्या करना।१।
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जो बरसाता रहा कोड़े सदा निर्धन की किस्मत पर
करेगा आज थोड़ी सी दया उम्मीद क्या करना।२।
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बनाये दूरियाँ ही था सभी से गाँव में भी जो
नगर में उससे मिलने की भला उम्मीद क्या करना।३।
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चला करती है उसकी जब इसी से खूब रोटी सच
वो देगा छोड़ छलने की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 1, 2020 at 5:00am — 4 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
जिसके लिए स्वयं को यूँ पाषान कर गये
दो फूल उसके आपको भगवान कर गये।१।
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कारण से कुछ के मस्जिदें बदनाम हो गयीं
मन्दिर को लोग कुछ यहाँ दूकान कर गये।२।
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करता रहा था जानवर रखवाली रातभर
बरबाद दिन में खेत को इन्सान कर गये।३।
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अपनी हुई न आज भी पतवार कश्तियाँ
क्या खूब दोस्ती यहाँ तूफान कर गये।४।
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दिखते नहीं दधीचि से परमार्थी सन्त अब
मरकर भी अपनी देह जो यूँ दान कर गये।५।
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माटी भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 30, 2020 at 9:30am — 18 Comments
जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम
चाह कर भी यूँ पुराना पथ बदल पाये न हम।१।
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एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही
हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।
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फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में
आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।
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भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये
लुट रही इन इज्जतों पर क्यों उबल पाये न हम।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत
लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।
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फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर
जिसने बनाये खूब यूँ सन्सार तो बहुत।२।
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मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ
रेलों बसों को कर रहे तैयार तो बहुत।३।
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बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई
रखते गये हैं आप भी आधार तो बहुत।४।
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सारे अदीब चुप हुए संकट के दौर में
सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।
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मजदूर सह किसान से जाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये
निर्धन के पाँव से कभी छाले नहीं गये।१।
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दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर
होगी गरीबी दूर के वादे नहीं गये।२।
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जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो
मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये।३।
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कहते हैं इसको आपदा चाहे जरूर वो
शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।
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किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके फूल के डाले नहीं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2020 at 4:03pm — 7 Comments
२१२२/२१२२/ २१२२/२१२
शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे
एक चिकने घट को जैसे बूँद पानी लिख रहे।१।
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अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश
पर खबर में खूबसूरत राजधानी लिख रहे।२।
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दान दाता बन गये कुछ एक मुट्ठी दे चना
खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।
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आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर
गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments
२२१/ २१२१/२२२/१२१२
दिखती भला है अब किधर उम्मीद की चमक
खोने लगी है खुद सहर उम्मीद की चमक।१।
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माझी को धोखा दे गयी पतवार हर कोई
दरिया में जैसे हो लहर उम्मीद की चमक।२।
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बाँटेगा सबको आ के सच थोड़ी मिले भले
लेकर चला है वो अगर उम्मीद की चमक।३।
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कहते उसे किसान हैं निर्धन बहुत भले
झुकने न देगी उसका सर उम्मीद की चमक।४।
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लूटा गया है हर तरह उसको जहान में
आँखों में उसके है मगर उम्मीद की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 12, 2020 at 7:38am — 8 Comments
करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत
बाँकी हर दुख पर रही, सदा उसी की जीत।१।
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नाविक हर तूफान से, पा लेगा नित पार
डर केवल पतवार का, ना निकले गद्दार।२।
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मजदूरी में दिन कटा, कैसे काटे रात
टपके का भय दे रही, निर्धन को बरसात।३।
**
आते जाते दे हवा, दस्तक जिस भी द्वार
लेकर झट उठ बैठता, हर कोई तलवार।४।
**
शासन बैठा देखता, हर संकट को मूक
निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।
**
मानवता से प्रीत थी, पशुपन से भय मीत
इस…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2020 at 6:06am — 6 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
भटकन को पाँव की भला कैसे सफर कहें
समझो इसे अगर तो हम लटके अधर कहें।१।
**
गैरों से जख्म खायें तो अपनों से बोलते
अपनों के दुख दिये को यूँ बोलो किधर कहें।२।
**
बातें सुधार से अधिक भाती हैं टूट की
दीमक हैं देश धर्म को उन को अगर कहें।३।
**
टूटन दरो - दीवार की करते रफू मगर
जाते नहीं हैं छोड़ कर घर को जो घर कहें।४।
**
जाने हुआ है क्या कि सब लगती हैं रात सी
दिखती नहीं है एक भी जिसको सहर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 4, 2020 at 7:41am — 7 Comments
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2020 at 9:41am — 6 Comments
द्वार पर वो नित्य आकर बोलता है
किन्तु अपना सच छुपाकर बोलता है।१।
***
दोस्ती का मान जिसने नित घटाया
दुश्मनों को अब क्षमा कर बोलता है।२।
***
हूँ अहिन्सा का पुजारी सबसे बढ़कर
हाथ में खन्जर उठाकर बोलता है।३।
***
गूँज घन्टी की न आती रास जिसको
वो अजाँ को नित सुनाकर बोलता है।४।
***
दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी तू
पथ में काँटे वो बिछा कर बोलता …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2020 at 10:00pm — 5 Comments
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