2222 2222 2222 222
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रिश्ते उधड़े खुद ही सिलना सच कहता हूँ यारो मैं
औरों को मत रोते दिखना सच कहता हूँ यारो मैं
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अपना हो या बेगाना हो सुख में ही अपना होता
जब भी मिलना हॅसके मिलना सच कहता हूँ यारो मैं
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चाहे भाये कुछ पल लेकिन आगे चलकर दुख देगा
उम्मीदों से जादा मिलना सच कहता हूँ यारो मैं
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दुख से सुख का सुख से दुख का मौसम जैसा नाता है
हर मौसम को अपना कहना सच कहता हूँ यारो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 3, 2014 at 12:00pm — 13 Comments
2122 2122 2122
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सिंधु मथते कर पड़ा छाला हमारे
हाथ आया विष भरा प्याला हमारे
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धूर्तता अपनी छिपाने के लिए क्यों
देवताओं दोष मढ़ डाला हमारे
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भाग्य सुख को ले चला जाने कहाँ फिर
डाल कर यूँ द्वार पर ताला हमारे
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हर तरफ फैले हुए हैं दुख के बंजर
खेत सुख के पड़ गया पाला हमारे
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राह देखी सूर्य की भर रात हमने
इसलिए तन पर लगा काला…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 27, 2014 at 11:14am — 10 Comments
2122 1221 2212
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नीर पनघट से भरना, बहाना गया
चाहतों का वो दिलकश जमाना गया
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दूरियाँ तो पटी यार तकनीक से
पर अदाओं से उसका लुभाना गया
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पेड़ आँगन से जब दूर होते गये
सावनों का वो मौसम सुहाना गया
***
आ गये क्यों लटों को बिखेरे हुए
आँसुओं का हमारे ठिकाना गया
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नाम उससे हमारा गली गाँव में
साथ जिसके हमारा जमाना गया
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गंद शहरी जो गिरने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2014 at 10:00am — 25 Comments
2222 2222 2222 222
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देता है आवाजें रूक-रूक क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
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कब मागे मयखाने साकी अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
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देखेगी तो कर देगी फिर बदनामी वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
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बेगानों की महफिल में तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों की महफिल में कैसे अपना लूँ बेहोशी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 20, 2014 at 11:21am — 24 Comments
1222 1222 1222 1222
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जहन की हर उदासी से उबरते तो सही पहले
जरा तुम नेह के पथ से गुजरते तो सहीे पहले
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हमारी चाहतों की माप लेते खुद ही गहराई
जिगर की खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले
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ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक
हमारे नाम पर थोड़ा सॅवरते तो सही पहले
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तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी
घरों से आँगनों में तुम उतरते तो सही पहले
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गलत फहमी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2014 at 9:30am — 18 Comments
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जन्म से ही यार जो बेशर्म है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
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छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ मेरे शेष अब तो कर्म है
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बोलने से कौन करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
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चाँद आये तो बिछाऊँ मैं उसे
एक चादर आँसुओं की नर्म है
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शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की ये हवा क्यों गर्म है
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( रचना - 30 जुलाई 2014 )
मौलिक…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments
2122 2122 212
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मयकदे को अब शिवाले बिक गये
रहजनों के हाथ ताले बिक गये
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घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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जो खबर थी अनछपी ही रह गयी
चुटकले बनकर मशाले बिक गये
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न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया
जांच के जब यार आले बिक गये
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दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये
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सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये
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मौलिक और…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 8, 2014 at 10:39am — 15 Comments
2122 2122 2122 212
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एक सरकस सी हमारी आज संसद हो गयी
लोक हित की इक नदी जम आज हिमनद हो गयी
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जुगनुओं से खो गये लीडर न जाने फिर कहाँ
मसखरों की आज इसमें खूब आमद हो गयी
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‘रेप’ को जोकर सरीखों ने कहा जब बचपना
जुल्म की जननी खुशी से और गदगद हो गयी
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दे रहे ऐसे बयाँ, जो जुल्म की तारीफ है
क्योंकि सुर्खी लीडरों का आज मकसद हो गयी
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जुल्म की सरहद…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 3, 2014 at 9:00am — 26 Comments
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दुखों से दोस्ती रख कर सुखों के घर बचाने हैं
मुझे अपनी खुशी के रास्ते खुद ही बनाने हैं
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परिंदों को पता तो है मगर मजबूर हैं वो भी
नजर तूफान की कातिल नजर में आशियाने हैं
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पलों की कर खताएँ कुछ मिटाना मत जमाने तू
किसी का प्यार पाने में यहाँ लगते जमाने हैं
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न जाने कौन सी दुनिया बसाकर आज हम बैठे
गलत मन के इरादे हैं गलत तन के निशाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2014 at 9:43am — 10 Comments
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घाट सौ-सौ हैं दिखाए तिश्नगी ने
कौन छोड़ा इस हवस के आदमी ने
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करके वादा रोशनी का हमसे यारो
रोज लूटा है हमें तो चाँदनी ने
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राह बिकते मुल्क के सब रहनुमा अब
क्या किया ये खादियों की सादगी ने
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रात जैसे इक समंदर तम भरा हो
पार जिसको नित किया आवारगी ने
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झूठ को जीवन दिया है इसतरह कुछ
यार मेरे सत्य को अपना ठगी ने
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पास आना था हमें यूँ भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 21, 2014 at 7:46pm — 10 Comments
2122 2122 2122 2122
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चल पड़ी नूतन हवा जब से शहर की ओर यारो
गाँव के आँगन उदासी, भर रही हर भोर यारो
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अब बुढ़ापा द्वार पर हर घर के बैठा है अकेला
खो गया है आँगनों से बचपनों का शोर यारो
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ढूँढते तो हैं शिरा हम, गाँव जाती राह का नित
पर यहाँ जंजाल ऐसा मिल न पाता छोर यारो
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हो गये कमजोर रिश्ते, अब दिलों के धन की खातिर
मंद झोंके भी चलें तो टूटती हर डोर …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 15, 2014 at 11:08am — 11 Comments
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दोष थोड़ा सा समय का कुछ मेरी आवारगी
सीधे-सीधे चल न पायी इसलिए भी जिंदगी
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हम तुम्हें कैसे कहें अब दूरियों को पाट लो
कम न कर पाये जो खुद हम आपसी नाराजगी
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कल हवा को भी इजाजत दी न थी यूँ आपने
आज क्यों भाने लगी है गैर की मौजूदगी
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रात-दिन करने पड़ेंगे यूँ जतन कुछ तो हमें
कहने भर से दोस्तों ये किस्मतें कब हैं…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 10, 2014 at 11:30am — 22 Comments
2122 2122 2122 212
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सावनों में फिर हमारे घाव ताजा हो गये
रंक सुख से हम जनम के, दुख के राजा हो गये
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साथ माँ थी तो दुखों में भी सुखों की थी झलक
माँ गयी है छोड़ जब से सुख जनाजा हो गये
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कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी
आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये ( ख्वाजा - स्वामी )
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कोइ चाहे देह हरना और कोई दौलतें
आज …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2014 at 11:00am — 8 Comments
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2014 at 4:34pm — 11 Comments
1222 1222 1222 1222
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भला हो या बुरा हो बस, शिकायत फितरतों में है
वो ऐसा शक्स है जिसकी बगावत फितरतों में है
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रहेगा साथ जब तक वो चलेगा चाल उलटी ही
भले ही दोस्तों में वो, अदावत फितरतों में है
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उसे लेना नहीं कुछ भी बड़े छोटे के होने से
खड़ा हो सामने जो भी, नसीहत फितरतों में है
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हुनर सबको नहीं आता हमेशा याद रखने का
भुलाए वो किसी को क्या, मुहब्बत फितरतों में है…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 26, 2014 at 11:00am — 25 Comments
2122 2122 2122 212
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पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
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जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
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रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
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सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
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सबको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:30am — 31 Comments
2122 2122 2122 212
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एक भी उम्मीद उन से तुम न पालो दोस्तो
रास्ता इन बीहड़ों में खुद बना लो दोस्तो
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बंद दरवाजे जो दस्तक से नहीं खुलते कभी
इंतजारी से तो अच्छा तोड़ डालो दोस्तो
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फुसफुसाहट नफरतों की तेज फिर होने लगी
प्यार का परचम दुबारा तुम उठा लो दोस्तो
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होश में तो कह रहे थे ‘साथ हम तेरे खड़े’
गिर रहा मदहोशियों में अब सॅभालो…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 21, 2014 at 9:30am — 18 Comments
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1222 1222 1222 1222
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हुआ जाता नहीं बच्चा कभी यारो मचलने से
नहीं सूरत बदलती है कभी दरपन बदलने से
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जला ले खुद को दीपक सा उजाला हो ही जायेगा
मना करने लगे तुझको अगर सूरज निकलने से
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हमारी सादगी है ये भरोसा फिर जो करते हैं
कभी तो बाज आजा तू सियासत हमको छलने से
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बता बदनाम करता क्यों पतित है बोल अब…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 16, 2014 at 9:26am — 14 Comments
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तन से जादा मन जरूरी प्यार को
मन बिना आये हो क्या व्यापार को
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मुक्ति का पहला कदम है यार ये
मोह माया मत समझ संसार को
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इसमें शामिल और जिम्मेदारियाँ
मत समझ मनमर्जियाँ अधिकार को
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डूब कर तम में गहनतम भोर तक
तेज करता रौशनी की धार को
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तब कहीं जाकर उजाला साँझ तक
बाँटता है सूर्य इस संसार …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 12, 2014 at 9:42am — 21 Comments
2122 2122 2122 212
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शब्द अबला तीर में अब नार ढलना चाहिए
हर दुशासन का कफन खुद तू ने सिलना चाहिए
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लूटता हो जब तुम्हारी लाज कोई उस समय
अश्क आँखों से नहीं शोला निकलना चाहिए
***
गिड़गिड़ाने से बची कब लाज तेरी द्रोपदी
वक्त पर उसको सबक कुछ ठोस मिलना चाहिए
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हर समय तो आ नहीं सकता कन्हैया तुझ तलक
काली बन खुद रक्त बीजों को कुचलना चाहिए
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फूल बनकर दे महक उपवन को यूँ तो रोज तू…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 6, 2014 at 12:47pm — 31 Comments
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