यादें......
यादें !
आज पर भारी
बीते कल की बातें
वर्तमान को अतीत करती
कुछ गहरी कुछ हल्की
धुंधलके में खोई
वो बिछुड़ी मुलाकातें
हाँ !
यही तो हैं यादें
ये भीड़ में तन्हाई का
अहसास कराती हैं
आँखों से अश्कों की
बरसात कराती हैं
सफर की हर चुभन
याद दिलाती हैं
जब भी आती हैं
ज़ख़्म कुरेद जाती हैं
अहसासों के शानों पर
ये कहकहे लगाती हैं
ज़हन की तारीकियों में…
Added by Sushil Sarna on March 18, 2017 at 9:30pm — 6 Comments
चला गया ...
हवा
शयन कक्ष के परदों से
खेलती रही
टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने
वायु वेग से
बार बार
फड़फड़ाते रहे
तन्हा से पड़े
काफी के मग
खाली होते हुए भी
अपने में
बहुत कुछ समेटे थे
समेटे थे
अपने अंदर
अकेलेपन से बातें करते
वो क्षण
जो काफी के मग को
अधरों से लगाए
कनखियों से निहारते हुए
आँखों ने आँखों में
बिताये थे
समेटे थे…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 15, 2017 at 10:00pm — 10 Comments
पावन हो …….
सुना था
मतलब के लिए
जमीनों और घरों के
बंटवारे हो जाते हैं
इस धन लोलुप दुनिया में
जीते जी
जिन्दा रिश्तों के
बंटवारे हो जाते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
इंसान के जहाँ में
इंसानों के बंटवारे हो जाते हैं
मगर ये क्या
आज अखबार के
एक कालम ने
दिल को द्रवित कर दिया
अपने को श्रवण कुमार
साबित करने के लिए
अपने मृत जन्म दाता को
श्रद्धान्जली देने के लिए
अखबार में अलग अलग विज्ञापन दे दिये…
Added by Sushil Sarna on March 7, 2017 at 9:08pm — 10 Comments
दर्द के निशाँ ....
दर
खुला रहा
तमाम शब
किसी के
इंतज़ार में
पलकें
खुली रहीं
तमाम शब्
किसी के
इंतज़ार में
कान
बैचैन रहे
तमाम शब्
तारीकियों में ग़ुम
किसी की
आहटों के
इंतज़ार में
शब्
करती रही
इंतज़ार
तमाम शब्
वस्ले-सहर का
मगर
वाह रे ऊपर वाले
वस्ल से पहले ही
तू
ज़ीस्त को
इंतज़ार का हासिल
बता देता है
मंज़िल से पहले…
Added by Sushil Sarna on March 3, 2017 at 1:39pm — 6 Comments
अनबहा समंदर ....
थी
गीली
तुम्हारी भी
आंखें
थी
गीली
हमारी भी
आंखें
बस
फ़र्क ये रहा
कि तुमने कह दी
अपने दिल की बात
हम पर गिरा के
जज़्बातों से लबरेज़
लावे सा गर्म
एक आंसू
और
हमें
न मिल सका
वक़्ते रुख़सत से
एक लम्हा
अपने जज़्बात
चश्म से
बयाँ करने का
चल दिए
अफ़सुर्दा सी आँखों में समेटे
जज़्बातों का
अनबहा
समंदर
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 1, 2017 at 1:05pm — 8 Comments
अस्तित्व को ....
जगाते हैं
सारी सारी रात
तेरे प्रेम में भीगे
वो शब्द
जो तेरे उँगलियों ने
अपने स्पर्श से
मेरे ज़िस्म पर
छोड़े थे
ढूंढती हूँ
तब से आज तक
तेरे बाहुपाश में
विलीन हुए
अपने
अस्तित्व को
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 28, 2017 at 5:50pm — 6 Comments
देर तक .....
जब तुम
जब अंतर तट पर
अपने समर्पण की सुनामी
लेकर आये थे
मेरी देह
कंपकपाई थी
देर तक
जब तुम ने
रक्ताभ अधरों को
तृषा का
सन्देश दिया था
मेरे अधर की
हर रेख
मुस्कुराई थी
देर तक
जब तुम ने
अपनी बंजारी नज़रों से
मुझे निहारा था
मेरी निशा
तुम्हारी बंजारन बन
थरथराई थी
देर तक
जब तुम
मेरी प्रतीक्षा की
प्रथम आहट बने थे
मेरी…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2017 at 12:30pm — 2 Comments
कुछ फ़र्द मंच की नज़्र :
न सही तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना मगर !
तेरी नज़रें , नज़रों की हमराज़ तो बन सकती थीं !!1!!
माना करीबी दिल को ख़ुशगवार लगती है !
मगर दूरी में भी कम दिलकशी नहीं होती !!2!!
जाने क्यूँ आ गयी शर्म घटाओं को आज !
शायद किसी ने रुख़ पे ज़ुल्फें बिखेर दीं !!3!!
क्यूँ अँधेरे भी उजले से लगने लगे !
शायद, प्यार रूठा लौट आया है !!4!!
आये न थे तो चश्म तर-बतर थी !
गए पलट के तो कयामत ढा गए…
Added by Sushil Sarna on February 25, 2017 at 2:00pm — 2 Comments
एक सूरज ...
सो गया
थक कर
सिंधु के क्षितिज़ पे
ख़ुदा के दर पे
ज़मीं के
बशर के लिए
चैन-ओ-अमन की
फरियाद लिए
जलता हुआ
एक सूरज
संचार हुआ
नव जीवन का
भर दिया
ख़ुदा के नूर को
ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे में
करता रहा भस्म
स्वयं को
स्वयं की अग्नि में
बशर के
चैन-ओ-अमन
के लिए
एक सूरज
रो पड़ा
देखकर
बशर की फितरत
नूरे बख़्शीश को
समझ न सका
ग़ुरूर में…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 21, 2017 at 2:04pm — 9 Comments
नज़्र ....
सहर हुई
तो ख़बर हुई
शब्
सिर्फ
बातों को
नज़्र हुई
रहते ख़ामोश
नज़रों को
जुबां देते
रात यूँ ही
नज़रों के
दरमियाँ गुज़ार देते
लम्स करते बयाँ
सफर निगाहों का
फिर
न सहर की
खबर होती
न शब्
लफ़्ज़ों को
नज़्र होती
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 20, 2017 at 1:34pm — 12 Comments
बे-आवाज़ ....
कहां होती है
रिश्ते के
टूटने की
आवाज़
बस
सिसकता है
देर तक
रुखसारों की ढलानों पर
खारी लकीरों पर
सोया
सोज़ में डूबा
बीते लम्हों का
इक साज़
बे-आवाज़
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 17, 2017 at 9:10pm — 10 Comments
ये ,कैसा घर है ....
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं
दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास
शहर लिए रहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां सब
बेघर रहते हैं
उजालों की आस में
ज़िन्दगी
बीत जाती है
रेंगते रेंगते
फुटपाथ पे
साँसों से
मौत जीत जाती है
बेरहम सड़क है…
Added by Sushil Sarna on January 29, 2017 at 7:30pm — 13 Comments
ये अश्क ...
नहीं होता
चेहरा
दुःख का
कोई
नहीं होती उम्र
मौत की
कोई
ज़िन्दगी
खुशियों का
आसमां नहीं
ग़मों की
धूप है
ज़िन्दगी की धूप में
ख़ुशी तो बस
छाया का नाम है
पल भर का सुकून है
फिर गमों की
दास्तान है
यादों के
खंज़र हैं
कुछ आँखों से
बाहर हैं
कुछ आँखों के
अंदर हैं
कह गए
बह के
और
कुछ अभी
दिल में…
Added by Sushil Sarna on January 24, 2017 at 6:18pm — 6 Comments
देर तक .....
देर तक
मैं मयंक को
देखती रही
वो वैसा ही था
जैसा तुम्हारे जाने से
पहले था
बस
झील की लहरों पे
वो उदास अकेला
तैर रहा था
देर तक
मैं उस शिला पर
बैठी रही
जहां हम दोनों के
स्पर्शों ने सांसें ली थीं
शिला अब भी वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारे जाने से पहले थी
बस
मैं
और थे मेरी देह में
समाहित
तुम्हारे अबोले स्पर्श
देर तक …
Added by Sushil Sarna on January 20, 2017 at 1:30pm — 6 Comments
इंतज़ार ...
छोड़िये साहिब !
ये तो बेवक़्त
बेवज़ह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी उँगली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं
ज़माने के दर्द हैं
ज़माने की सौगातें हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाईयों पे
खराब करते हैं
ज़माने की निगाह में
ये
नमकीन पानी के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
रात की कहानी
ये भोर में गुनगुनायेंगे
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक
आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे
हमारे दर्द…
Added by Sushil Sarna on January 18, 2017 at 6:34pm — 13 Comments
माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 15, 2017 at 4:24pm — 8 Comments
स्मृति के आँगन में ...
तुम सवालों को
सवाल क्योँ नहीं रहने देती
अपनी मौनता से
तुम नैन व्योम में बसी
अतृप्त तृष्णा से
अपने कपोलों पर
क्योँ गीले काजल से श्रृंगार
कर अनुत्तरित प्रश्नों का
उत्तर चाहती हो
क्योँ सुरभित मधु पलों को
अपने गीले आँचल में लपेट कर
स्मृति अंकुरों को
प्रस्फुटित होने का अवसर
देना चाहती हो
क्योँ मृदु चांदनी में
उदास निशा से
टूटे तारे से माँगी इच्छा के…
Added by Sushil Sarna on January 12, 2017 at 1:00pm — 10 Comments
अधूरी प्रीत से ....
लब
खामोश थे
पलकें भी
बन्द थीं
कहा
मैंने भी
कुछ न था
कहा
तुमने भी
कुछ न था
फिर भी
इक
अनकहा
नन्हा सा लम्हा
आँखों की हदें तोड़
देर तक
मेरी हथेली पे बैठा
मुझे
मिलाता रहा
मेरे अतीत से
अधूरी तृषा में लिपटी
अधूरी प्रीत से
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 10, 2017 at 2:22pm — 4 Comments
हिम बसंत ...
प्रथम प्रणय का
प्रथम पंथ हो
हिय व्यथा का
तुम ही अंत हो
शिशिर ऋतु का
शिशिरांशु हो
विरह पलों का
शिशिरांत हो
शीत पलों की
मधुर सिहरन हो
नयन सिंधु का
मौन कंपन्न हो
मधु पलों में
मेरे प्रिय तुम
मधु स्मृतियों का
हिम बसंत हो
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 9, 2017 at 8:40pm — 8 Comments
सच ,लगने लगा पराया ...
न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था
जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था
बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था
इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया…
Added by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 2:00pm — 16 Comments
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