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Kanta roy's Blog (87)

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर / कान्ता राॅय

जिंदगी रेल सी

दौडती हुई

भागती हुई

स्टेशन दर स्टेशन

सरक कर रूकती हुई

चढते मुसाफिर

उतरते मुसाफिर

रेलम की पेल में

यादों का कारवां

सीट के नीचे दबकर

रह जाता है

ट्रेन में बैठा

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर

सब देखता हुआ

कुछ सोचता हुआ

बैठा रहता है अकेले



साथ बैठ कर

मुँगफली खाते हुए

चाय के सकोरे के संग

बनाए हुए कुछ रिश्ते ,कुछ संवाद और समस्त संवेदनाओं को

अपने बैग में कस कर

कंधे पर डाल

बीच स्टेशन… Continue

Added by kanta roy on October 17, 2015 at 2:33pm — 9 Comments

कुम्हारी / लघुकथा

बाजार में बहुत भीड़ थी आज । क्यों ना हो ,नवरात्रि का पहला दिन, लोग सुबह से ही स्नान ध्यान कर पूजा-पाठ की तैयारी में लगे हुए थे ।

मै भी स्नान कर ,कोरी साड़ी पहन, नंगे पैर माता रानी को लिवाने आई थी । फुटपाथ के उसी निश्चित कोने में , माता रानी विविध रूपों में मुर्ति रूप लिये दुकानों में सज रही थी । कहीं तीन मुंह वाली शेर पर सवार थी , कहीं अपने अष्टभुजा में सम्पूर्ण शस्त्रों के साथ , तो कहीं दस भुजा लेकर महिषासुर का वध करती हुई । काली ,चामुण्डा सबके दर्शन हुए लेकिन मै लेकर…

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Added by kanta roy on October 13, 2015 at 8:00pm — 4 Comments

अंतः स्मरण / लघुकथा

कैंसर का आखिरी चरण , अर्ध बेहोशी की हालत में , जिन्दगी की आखिरी साँस गिन रही थी वो । आॅक्सीजन मास्क भी अब निष्क्रिय सा प्रतीत हो रहा था ।

डूबते हुए लम्हों में कभी आँखें खोलती तो पल भर में बंद कर लेती । आई. सी. यू. वार्ड के बाहर बेटा -बहू , दामाद ,नाती -पोते सब आखिरी विदाई के वक्त साथ रहने की लालसा लिये उपस्थित थे ।



पति नम आँखों से माथे को सहलाते हुए उसे मरणासन्ना देख साथ - साथ बिताये धुप -छाँह जैसे समस्त पल , जिम्मेदारियों का सलीके से निर्वाह करने का भी स्मरण कर रहे थे… Continue

Added by kanta roy on October 11, 2015 at 9:16am — 2 Comments

पथ का चुनाव / लघुकथा

आज फिर किसी विधुर का प्रस्ताव आया है । मन सिहर उठा जवान बच्चों की माँ बनने के ख्याल से ही ।



इस रिश्ते को भी ना कह कर अपने धनहीन दुर्बल पिता को संताप दूँ , या बन जाऊँ हमउम्र बच्चों की माँ । सुना है तहसीलदार है । शायद पिता की वे मदद भी करें उनकी दुसरी बेटियों के निर्वाह में ।



आज काॅलेज में भी मन नहीं लगा था । घर की तरफ जाते हुए पैरों में कम्पन महसूस की थी उसने ।



घंटे की टनकार, मंदिर से उठता हवन का धुँआ , कदम वहीं को मुड़ गये ।



ऊपर २५० सीढ़ियाँ , ऐसे चढ़… Continue

Added by kanta roy on October 9, 2015 at 8:50am — 6 Comments

जोड़ का तोड़ / लघुकथा

पूरे पच्चीस हजार ! ठीक से गिनकर रूपये पर्स में रखे उसने ।

किटी पार्टी खत्म होते ही उमंग भरी तेज कदमों से पर्स को हाथों में भींच घर की तरफ निकल पड़ी ।

पच्चीस महीने में एक बार ये अवसर आता है । हर महीने घर- खर्च से बचा - बचा कर ही यहाँ पैसे भरती रही है ।



" माँ ,आ गई तुम , क्या इस बार भी नहीं खुली तुम्हारी किटी ? "



" खुल गई , देख ! "



" अब तो मेरा कम्प्यूटर आ जायेगा ना ? "



" हाँ , अब उतावली ना हो ,आ जायेगा । "



" देखना माँ ,अबकी बार… Continue

Added by kanta roy on October 6, 2015 at 4:00pm — 12 Comments

अमीरों की बैसाखी (लघुकथा)

" तुम्हारे नम्बर तो मुझसे कम आये थे ना ! फिर ये एडमिशन .... ? "



" रहने दो अब ये सब पूछना - पूछाना ,लो पहले मिठाई खाओ , आखिर तुम्हारा जिगरी दोस्त तो डाक्टर बन रहा है ना ! "



" मतलब ? "



" अरे नहीं समझे अब तक क्या ! वही पुरानी शिक्षा नीति की घटिया चालबाज़ी , डोनेशन ! और क्या ! "



" लेकिन तुम तो कहते थे डोनेशन देकर नहीं पढोगे । अपने कोशिशों की नैया पर सवार रहोगे ! सो , उसका क्या ? "



" कोशिशों की नैया ! हा हा हा हा ....वो सब स्कूली बातें थी ।…

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Added by kanta roy on October 1, 2015 at 7:30pm — 8 Comments

बेटी अभिमान है / गीत

बेटी से हैं सृष्टि सारी

बेटी से संसार है न्यारी

बेटी घर देहरी फुलवारी

बेटी से मान और गान है ..............

बेटी अभिमान है

देश का सम्मान है



शिक्षा ,पोषक में रही अधूरी

सदियों मर कर जीती आई

बहुत हुआ ये भेदभाव

बहुत हुआ अब अपमान है ...........

बेटी अभिमान है

देश का सम्मान है



धोखा धोखा है जग आशा

बेटी पर ना किया भरोसा

बेटा ही बेटा करते आये

समझा क्या बेटी शान है ...........

बेटी अभिमान है

देश का सम्मान…

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Added by kanta roy on September 24, 2015 at 4:30am — 6 Comments

इतनी सारी रोटियाँ (लघुकथा ) कान्ता राॅय

"कितने बडे परिवार में व्याह दिया तुमने माँ , एक बार भी नहीं सोचा कि कैसे निभाऊँगी मै ? "

"नहीं बिट्टो ऐसा नहीं कहते ,भरा - पूरा घर है तुम्हारा । ऐसे परिवार क़िस्मत- वालियों को मिलते है । "

"खाक क़िस्मत -वालियाँ , तुम नहीं जानती कि मुझे , इतनीss सारी रोटियां अकेले सेंकनी पडती है ।"

"घर के लोगों की रोटियां नहीं गिनते बिट्टो , नजर लग जाती है ।" माँ हल्की चपत लगाते हुए कह उठी थी उस दिन ।

माँ का लाड़ से मुस्कुरा…

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Added by kanta roy on September 16, 2015 at 11:00pm — 27 Comments

प्यार/लघुकथा /कान्ता राॅय

पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि दरवाजे की डोर बेल बज उठी ।

"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।

"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।

"बनारस से हैदराबाद तुमको  ढूंढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।

"आओ…

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Added by kanta roy on September 8, 2015 at 10:30am — 2 Comments

गरीब /लघुकथा /कान्ता राॅय

" पापा , हम गरीब क्यों है ? "

" नहीं बेटा हम गरीब कहाँ .... देखो तो ....तुम शहर के सबसे बडे़ स्कूल में जो पढते हो ! " बेटे को दुलारते हुए पिता ने गोद में बिठा लिया ।

"लेकिन पापा , मेरे दोस्त कहते है कि मै गरीब हूँ । " बच्चे का मन बेहाल सा था ।

" क्यूँ कहते है तुम्हें वो गरीब ... अभी तो ...उस दिन तुम्हारे जन्मदिन पर शानदार दावत दी तुम्हारे दोस्तों को ! " पिता मन को कड़ा कर रहे थे ।

" तभी तो कहा ! उस दिन हमारे घर आने से ही तो उनको मालूम हुआ की हम गरीब है । वो कहते है कि…

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Added by kanta roy on September 6, 2015 at 7:00pm — 13 Comments

चेहरा / लघुकथा / कान्ता राॅय

आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।



लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।



करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।

चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।

लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी… Continue

Added by kanta roy on August 30, 2015 at 6:33am — 24 Comments

चुनौती /लघुकथा /कान्ता राॅय

आज कोचिंग से निकलने में देर हो गई थी , इसलिए घर जल्दी पहुँचने के लिए उसने मेन रोड छोड़ इसी गली से निकलने का फैसला किया था । हालांकि रात में इस गली से निकलने के लिए मम्मी ने मना किया था लेकिन आज बडी़ ही मजबूरी हो चली थी । कलाई पर बंधी घड़ी की सुई पर नजर पडते ही वो सहम उठी । गली सुनसान -सन्नाटा हुआ जा रहा था । करीब दस फर्लांग ही आगे बढीं होगी कि पीछे से आहट आई । उसे भान हुआ कि कोई पीछे आ रहा है । पलट कर देखा । दो लडके थे । स्थिति को भाँप वो लम्बी - लम्बी डग भरने लगी । पीछे से पदचाप की आवाजें…

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Added by kanta roy on August 24, 2015 at 11:30pm — 17 Comments

चेतना की चाभी /लघुकथा / कान्ता राॅय

आज भी आँख खुलते ही रोज की ही तरह सुबह -सुबह इंतज़ार किया उसका । दरवाजा खोला ही था कि सायकिल पर चढा दुबला सा लडका दरवाजे पर चेतना की चाबी फेंक गया । रोज की ही तरह ऐसे लपककर स्वागत किया मानो बरसों से इंतज़ार किया हो उसका । अंदर ले आया और टेबल पर फैला कर परत -दर- परत तहों को खोलता गया ।चेतना मन- पौध खुलकर कुलबुलाती हुई जन्म से परिपक्व होने तक का सफर शनैः शनैः तय करने लगी ।तहें अब अपने आखिरी विराम को पहुँच , मन को गहन चिंतन में डाल ...... चेतना अपने सम्पूर्ण यौवन में स्थापित थी । तभी सहसा घड़ी…

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Added by kanta roy on August 13, 2015 at 2:00pm — 4 Comments

पूछताछ /लघुकथा /कान्ता राॅय

" हो तेरी ...भीड़ ! क्या हो रहा है वहाँ बाहर ? लगता है रामचंद्र के छोरे को पुलिस पुछताछ में लगाई हुई है । जरूर कोई कांड करके आया है ये । "



"क्या कह रहे हो रनिया के बापू ... देखूं तो ..! दिन भर छोरे की तारीफ़ करती उसकी महतारी अघाती नहीं थी । जाकर अब जरा मुफ्त में अपना कलेजा ठंडा कर आती हूँ । "



"ठहरो , मै भी चलता हूँ । "



"क्या कांड किया हो दरोगा जी , इस लफंगे ने ?" - मुँछों पर ताव देकर ही मजा लिया जा सकता है... सो लगे रहे चुटकियों से मुँछे उमेठने में… Continue

Added by kanta roy on August 8, 2015 at 6:00pm — 7 Comments

वो माँ विहीना / लघुकथा / कान्ता राॅय

बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो जाना और पिता का दुसरी शादी ना करने का निर्णय उस नन्हीं सी जान का अपने मामा के यहाँ पालन - पोषण का कारण बनी ।



मामी के सीने पर मूंग दलने के समान होने के बावजूद वो पल - पल बढती हुई ,उससे पिंड छुडाने के आस अब जाकर पूरी हो चुकी थी ।



शहर में पिता के पास पहुँचा दी गई ।

पिता को क्या मालूम बेटियाँ कैसे पाली जाती है !

लेकिन बेटी को मालूम था कि बेटियाँ माँ ,बहन और बेटी कैसे बनती है इसलिए दिन सुहाने से हो चले थे पिता और पुत्री दोनों के… Continue

Added by kanta roy on August 8, 2015 at 11:30am — 13 Comments

ठठरी पर ईमानदारी /लघुकथा /कान्ता राॅय

ईमानदारी जरा चोटिल ही हुई थी कि मौके का फायदा उठा कुछ लोगों ने उसे निष्प्राण घोषित कर तुरत - फुरत में ठठरी पर कसने लगे । उन्हे डर था उसके वापस जिंदा हो गतिमान होने का ।

जिन चार कंधों पर उसकी अर्थीं उठाई जा रही थी उनमें सबसे आगे देश के कर्णधार थे उसके पीछे भ्रष्टाचार , देश के सफलतम व्यवसाई और शेयर दलाल थे ।

सबकी आँखें चमक रही थी । सबके मन में लड्डू फूट रहे थे कि पीछे रोती हुई जनता अचानक खुशी के मारे तालियाँ बजाने लगीं ।

तालियों की शोर पर काँधे देने वालों ने चौंक कर देखा तो…

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Added by kanta roy on August 6, 2015 at 9:00am — 25 Comments

बदरिया कहाँ गई // कान्ता राॅय

सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......बदरिया कहाँ गई



गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......बदरिया कहाँ गई



सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ...... बदरिया कहाँ गई



दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये  रघुनाथ.....बदरिया कहाँ गई



अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....बदरिया कहाँ गई



उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास...... बदरिया कहाँ गई



सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ......…

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Added by kanta roy on August 5, 2015 at 2:00pm — 10 Comments

लात का असर / लघुकथा / कान्ता राॅय

आज सूरज बहुत ही खुश था । उसका घमंडी पडोसी उसके पास इतने सालों में पहली बार मदद माँगने जो आ रहा था ।



पडोसी और उसकी बीवी ने  पिछले पंद्रह साल से सूरज का जीना हराम कर रखा था । जबसे वह अपनी नवविवाहित पत्नी को लेकर आया तभी से इन दोनों ने उसको बहला फुसला कर अपने ही रंग में रंग लिया था ।



सालों के खुन्नस निकालने का सुअवसर आज आन पडा़ था ।



हुआ युँ की जाने कैसे पडोसी को पिछले कई दिनों से कमर में दर्द बैठा हुआ है ।



सब डाॅ0 से थक गये तो किसी नें कहा की जो उल्टा… Continue

Added by kanta roy on August 1, 2015 at 9:30pm — 12 Comments

आसमान को नापना ही होगा // कान्ता राॅय

जागी थी आज मै

चौंक उठी थी सहसा

कई कामों के संग ही

एक काम और रह गया



बहुत दिन हुए सोचे

आसमान नाप कर देखू

सुना है नील गगन

यह अति अनंत है

लेकिन अनंत में भी तो

छुपा हुआ होता एक अंत है



कहते है , किसी ने ना किया जो

मै बावरी भी ,ना करूं वो

छोड़ दू जिद

हो सकता है

कोई ना कर पाया जो

मै ही कर बैठू वो

क्यों बिना किये ऐसे छोड़ दू ,

अपने मंजिल का रास्ता मोड़ दू



उठा कर इंजी टेप मैने

पूरे होशोहवास… Continue

Added by kanta roy on July 25, 2015 at 12:06am — 5 Comments

दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ /कान्ता राॅय

धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ

कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ

                          मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ

धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ

                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......

टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ

उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही…

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Added by kanta roy on July 24, 2015 at 9:30am — 36 Comments

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