ख़ौफ़ खाता हूँ …
ख़ौफ़ खाता हूँ
तन्हाईयों के फर्श पर रक्स करती हुई
यादों की बेआवाज़ पायल से
ख़ौफ़ खाता हूँ
मेरे जज़्बों को अपाहिज़ कर
अश्कों की बैसाखी पर
ज़िंदा रहने को मज़बूर करती
बेवफा साँसों से
ख़ौफ़ खाता हूँ
हयात को अज़ल के पैराहन से ढकने वाली
उस अज़ीम मुहब्बत से
जो आज भी इक साया बन
मेरे जिस्म से लिपट
मेरे बेजान जिस्म में जान ढूंढती है
और ढूंढती है
ज़मीं से अर्श तक
साथ निभाने की कसमों के…
Added by Sushil Sarna on October 3, 2015 at 8:30pm — 12 Comments
तुम इसे तवज्जो न देना ....
ये बादे सबा अगर
तुम्हें मेरे दर्द का पैगाम दे जाये
तो अपने ज़हन में
करवटें लेते खुशनुमा अहसासों पर
तुम तवज्जो न देना
किसी तारीक शब को
अब्र से झांकता माहताब
पीला नज़र आये
तो तन्हाई से गुफ़्तगू करती
मेरी खामोशियों पर
तुम तवज्जो न देना
सड़क पर चलते
तुम्हारे पाँव के नीचे
कोई ज़र्द पत्ता चीखे
तो गर्द में डूबे
मेरी मुहब्बत के
बदलते मौसम पर
तुम तवज्जो न…
Added by Sushil Sarna on September 29, 2015 at 7:30pm — 10 Comments
आत्मिक प्रेमतत्व …
जलतरंग से
मन के गहन भावों को
अभिव्यक्त करना
कितना कठिन है
हम किसको प्रेम करते हैं ?
उसको !
जिसके संग हमने
पवन अग्नि कुण्ड के चोरों ओर
सात फेरे लिए
या उसको
जिसके प्रेम में
स्वयं को आत्मसात कर हम
जीवन के समस्त क्षण
उसके नाम कर दिए
एक प्रेम
जीवन के अंत को जीवन देता है
और दूसरा अंतहीन जीवन को अंत देता है
जिस प्रेम को बार बार
शाब्दिक अभिव्यक्ति की आसक्ति हो …
Added by Sushil Sarna on September 25, 2015 at 8:30pm — 10 Comments
कीचड़ .....
सड़क पर फैले हुए कीचड से
एक कार के गुजरने से
एक भिखारन के बदन पर
सारा कीचड फ़ैल गया
अपनी फटी हुई साड़ी से कीचड़ पौंछते हुए
उसने अपने मन की भंडास निकालते हुए कहा
अमीरजादे गाड़ी से कीचड उछालते हैं
और पलट के भी नहीं देखते
इन्हें भूख से बिलबिलाते हुए
पेट को भरने के लिए रक्खा
भीख का कटोरा नजर नही आता
बस फ़टे कपड़ों से झांकता
बदन नज़र आता है
मेहरबानी पेट पर नहीं
बस बदन पर होती है
वो खुद पर गिरे कीचड़ को
साफ़…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2015 at 8:00pm — 6 Comments
तृषा जन्मों की .....
मर्म धर्म का समझो पहले
फिर करना प्रभु का ध्यान
क्या पाओगे काशी में
है हृदय में प्रभु का धाम
पावन गंगा का दोष नहीं
सब है कर्मों का फल
अच्छे कर्म नहीं है तो फिर
गंगा सिर्फ है जल
मानव भ्रम में जीने का
क्यों करता अभिमान
सच्चा सुख नहीं तीरथ में
व्यर्थ भटके नादान
कर्म प्रभु है, कर्म है गंगा
कर्म है सर्वशक्तिमान
राशि रत्न और ग्रह शान्ति से
कैसे मुशिकल हो आसान
अपने मन की कंदरा में…
Added by Sushil Sarna on September 16, 2015 at 3:56pm — 10 Comments
ओस के शबनमी कतरों में …
सर्द सुबह
कोहरे का कहर
सिकुड़ते जज़्बातों की तरह ठिठुरती
सहमी सी सहर
ओस की शबनम में भीगी
चिनार के पेड़ों हिलाती
आफ़ताब की किरणों को छू कर गुजरती
हसीन वादियों की बादे-सबा
रूह को यादों के लिबास में लपेट
जिस्म को बैचैन कर जाती है
तुम आज भी मुझे
धुंध में गुम होती पगडंडी पर
खड़ी नज़र आती हो
मैं बेबस सा
अपने तसव्वुर में
हर शब-ओ-सहर बिताये
हसीन लम्हों…
Added by Sushil Sarna on September 13, 2015 at 2:31pm — 4 Comments
टूटे सपने … (लघुकथा)
"राधिका ! आओ बेटी , अविनाश जाने की जल्दी कर रहा है। " माँ ने राधिका को आवाज़ लगाते हुई कहा।
''अभी आयी माँ, बस दो मिनट में आती हूँ। '' राधिका ने आईने के सामने बैठे बैठे ही जवाब दिया। आज अविनाश कितने समय के बाद विदेश से आया है। आज मैं उसे अपने मन की बात कह ही डालूंगी ,राधिका मन ही मन बुदबुदाई। जल्दी से आँखों में काजल की धार बना वो ड्राईंग रूम में आई।
''हाय अविनाश कैसे हो ? विदेश में कभी हमारी याद भी आती थी या गोरी मेमों में ग़ुम रहते थे। ''
''अरे नहीं…
Added by Sushil Sarna on September 8, 2015 at 2:30pm — 6 Comments
मेरे शानों पे .....
साँझ होते ही मेरे तसव्वुर में
तेरी बेपनाह यादें
अपने हाथों में तूलिका लिए
मेरी ख़ल्वत के कैनवास पर
तैरती शून्यता में
अपना रंग भरने आ जाती हैं
रक्स करती
तेरी यादों के पाँव में
घुंघरू बाँध
अपने अस्तित्व का
अहसास करा जाती हैं
मेरी रूह की तिश्नगी को
अपनी दूरी से
और बढ़ा जाती हैं
मेरे अश्क
मेरी पलकों की दहलीज़ पे
चहलकदमी करने लगते हैं
न जाने कब
सियाह…
Added by Sushil Sarna on September 7, 2015 at 10:22pm — 16 Comments
यादों के दरीचों में .....
सच, तुम्हारी कसम
उस वक्त तुम बहुत याद आये थे
जब सावन की पहली बूँद
मेरी ज़ुल्फ़ों से झगड़ा करके
मेरे रुखसारों पर
फिसलने की ज़िद करने लगी
सबा को भी उस वक्त
मेरी ज़ुल्फ़ों से
छेड़खानी करने की ज़िद थी
इस छेड़खानी में कभी बूंदें
रेतीली ज़मीन पर गिर कर
अपना अस्तित्व खो देती थी
तो कभी पलकों की चिलमन पर
सज के बैठ जाती थी
कभी हौले से
रुख़्सार पर फिसलती हुई
मेरी ठोडी पर
किसी को प्यार के…
Added by Sushil Sarna on September 4, 2015 at 8:13pm — 10 Comments
चाँद के माथे पे शायद .......
चाँद के माथे पे शायद
दुनिया के लिए सिर्फ दाग है
पर दाग वाला चाँद ही
आसमां का ताज़ है
करता वो अपनी चांदनी से
मुहब्बतों की बरसात है
है नहीं वो दिल ज़मीं पे
जिसमें वो बसता नहीं
हों खुली या बंद पलकें
ये हर पलक का ख़्वाब है
अब्र से सावन में छुपकर
वो झांकता है इस तरह
हो रही ज़ुल्फ़ों से जैसे
नूर की बरसात है
हर खुशी के लम्हों में
होते हैं पल कुछ ऐसे भी
बीती शब के दर्द के…
Added by Sushil Sarna on September 1, 2015 at 5:41pm — 8 Comments
अंगूठी (लघु कथा )
'नहीं,नहीं … देखो अब इस घर में रहना शायद मुमकिन नहीं है। 'रेनू ने गुस्से में अपने पति रणधीर से कहा और बैग में अपने कपड़ों को रखने लगी। ''दीपू चलो अपने खिलोने उठाओ और अपने बैग में रखो। ''रेनू ने अपने सात साल के बेटे को करीब करीब डांटते हुए कहा। दीपू भौंचका सा डर कर अपने पापा की तरफ देखकर अपने खिलौने बैग में रखने लगा। ''देखो रेनू ! यूँ छोटी छोटी बातों पर रूठ कर ज़िंदगी के बड़े फैसले नहीं लिए जाते। क्या हुआ अगर मम्मी ने तुम्हें बर्तन साफ़ करने के लिए कह दिया। उनकी…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 31, 2015 at 2:39pm — 10 Comments
ख़्वाब :....
हकीकत के बिछोने पर
हर ख़्वाब ने दम तोड़ा है
नहीं, नहीं
ख़्वाब कहाँ दम तोड़ते हैं
हमेशा इंसान ने ही दम तोड़ा है
हर टूटता ख़्वाब
इक नए ख़्वाब का आगाज़ होता है
हर नया ख़्वाब
फिर इक तड़प दे जाता है
और चलता रहता है
सूखे हुए गुलाबों की
सूखी महक में जीने का सिलसिला
इंसान को शबनमी ख़्वाबों में
फ़ना होने की
आदत सी हो गई है
बस, ख्वाब को मंज़िल समझ
अंधेरों से लिपट कर जीता है
दर्द को साँसों में घोल…
Added by Sushil Sarna on August 25, 2015 at 3:57pm — 4 Comments
चेप्टर-२ -कुछ क्षणिकाएँ :
1.
वो साकार है या निराकार है
पता नहीं
वो है
मगर दिखता नहीं
फिर भी वो
जीवन का आधार है
शायद उसी को
दुनिया कहती है
ईश्वर
………………............
2.
कितना विचित्र है
हमारा साथ होना
एक लम्बी चुप
सांसें भी निःशब्द
एक दूसरे के वास्ते
भाव शून्यता
पत्थर सा प्यार
दम तोड़ते सात फेरों के वादे
उठायेंगे सात जन्म
जर्जर होता …
Added by Sushil Sarna on August 13, 2015 at 12:30pm — 2 Comments
ग्रीटिंग कार्ड (लघु कथा).......
आज सुशील अपने बेटे के बर्थडे पर बहुत खुश था। कवि होने के नाते उसने अपने पितृभाव को तो कागज़ पर उतार दिया था लेकिन फिर भी सोचा कि इसके साथ अगर एक ग्रीटिंग कार्ड भी दे दिया जाए तो बेटा खुश हो जाएगा। ग्रीटिंग कार्ड की बड़ी सी शॉप में जाकर वो कार्ड देखने लगा। कुछ देर के बाद दुकानदार ने पास आकर कहा '' सर, क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ। '' सुशील ने युवा जोड़ों की भीड़ में सकपकाते हुए कहा '' अरे हाँ , देखिये दरअसल मुझे बाप द्वारा बेटे को बर्थडे पर दिए…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 12, 2015 at 3:50pm — 22 Comments
मील के पत्थर....
पत्थर पर तो हर मौसम
बेअसर हुआ करता है
दर्द होता है उसको
जिसका सफ़र हुआ करता है
सिर्फ दूरियां ही बताता है
निर्मोही मील का पत्थर
इस बेमुरव्वत पे कहाँ
अश्कों का असर हुआ करता है
हर मोड़ पे मुहब्बत को
मंजिल करीब लगती है
हर मील के पत्थर पे
इक फरेब हुआ करता है
कहकहे लगता है
दिल-ऐ-नादाँ की नादानी पर
हर अधूरे अरमान की
ये तकदीर हुआ करता है
कितनी सिसकियों से
ये रूबरू होता है मगर
पत्थर तो पत्थर है…
Added by Sushil Sarna on August 10, 2015 at 8:26pm — 12 Comments
कर सत्य को अंगीकार ....
आवरण से श्रृंगार किया
माया से किया प्यार
अन्तकाल संसार ने
सब कुछ लिया उतार
अद्भुत प्रकृति है जीव की
ये भटके बारम्बार
लौ लगाये न ईश से
पगला बिलखे सौ सौ बार
शीश झुकाये मन्दिर में
हो जैसे कोई मज़बूरी
अगरबत्ती भी यूँ जलाए
जैसे ईश पे करे उपकार
कपट कुण्ड में स्नान करे
और विकृत रखे विचार
कैसे मिलेगा जीव तुझे
उस पालनहार का प्यार
सत्य धर्म है,सत्य कर्म है
सत्य जीवन आधार
ईश स्वयं…
Added by Sushil Sarna on August 6, 2015 at 1:13pm — 8 Comments
चढ़ावा - लघुकथा
''दादू .... !''
''हूँ .... !''
''हम मंदिर में पैसे क्यों चढ़ाते हैं … ?''
''बेटे , हर आदमी को अपनी नेक कमाई से कुछ न कुछ अपनी श्रद्धानुसार प्रभु के चरणों में अर्पण करना चाहिए। ''
''लेकिन दादू , आप तो कहते हैं कि हमारे पास जो भी है तो प्रभु का दिया है … . । ''
''हाँ तो … । ''
''तो जब सब कुछ प्रभु ही देते हैं तो हम फिर उन्हें पैसे क्यों चढ़ाते हैं ?''
दादू निरुत्तर हो पोते का मुख देखने लगे।
सुशील सरना
मौलिक एवं…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 5, 2015 at 3:54pm — 12 Comments
कुछ क्षणिकाएँ :
१.
कितना अद्भुत है
ये जीवन
कदम दर कदम
अग्रसर होता है
एक अज्ञात
संपूर्णता की तलाश में
और ब्रह्मलीन हो जाता है
एक अपूर्णता के साथ
२.
छुपाती रही
जिसकी मधु स्मृति को
अपने अंतस तल की गहराई में
वो खारी स्याही से
कपोल पर ठहर
इक बूँद में
विरह व्यथा का
सागर लिख गया
३.
मैंने सौंप दिया
सर्वस्व अपना
जिसे अपना मान
छल गया वही
पावन प्रीत को …
Added by Sushil Sarna on August 4, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
''सुनो बंटी के पापा , काहे इतना विलाप करते हो। ''
''बंटी की माँ .... तुम्हें क्या पता ,पिता के जाने से मेरे जीवन का एक अध्याय ही समाप्त हो गया। ''
'' मैं आपके दुःख को समझ सकती हूँ। मुझे भी पिता जी के जाने का बहुत दुःख है लेकिन धीरज तो रखना पड़ेगा। आप यूँ ही विलाप करते रहेंगे तो उनकी आत्मा को चैन कहाँ मिलेगा। '' धर्मपत्नी ने ढाढस देते हुए कहा।
''वो तो ठीक है बंटी की माँ … लेकिन आज पिता के गुजर जाने से न केवल मेरे सिर से वटवृक्ष की छाया चली गयी बल्कि ऐसा लगता है मेरा जीवन की…
Added by Sushil Sarna on July 31, 2015 at 8:00pm — 6 Comments
ये ज़िंदगी ....
ज़िंदगी हर कदम पर रंग बदलती है
कभी लहरों सी मचलती है
कभी गीली रेत पे चलती है
कभी उसके दामन में
कहकहों का शोर होता है
कभी निगाहों से बरसात होती है
संग मौसम के
फ़िज़ाएं भी रंग बदलती हैं
कभी सुख की हवाएँ चलती हैं
कभी हवाएँ दुःख में आहें भरती हैं
बड़ी अजीब है ज़िंदगी की हकीकत
जितना समझते हैं
उतनी उलझती जाती है
अन्ततः थक कर
स्वयं को शून्यता में विलीन कर देती है
न जाने कब
ज़हन में यादों का…
Added by Sushil Sarna on July 29, 2015 at 8:10pm — 2 Comments
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