Added by R N Tiwari on February 27, 2011 at 8:30pm — 7 Comments
Added by rashmi prabha on February 27, 2011 at 4:00pm — 10 Comments
ओ. बी. ओ. परिवार के सम्मानित सदस्यों को सहर्ष सूचित किया जाता है की इस ब्लॉग के जरिये बह्र को सीखने समझने का नव प्रयास किया जा रहा है| इस ब्लॉग के अंतर्गत सप्ताह के प्रत्येक रविवार को प्रातःएक गीत के बोल अथवा गज़ल दी जायेगी, उपलब्ध हुआ तो वीडियो भी लगाया जायेगा, आपको उस गीत अथवा गज़ल की बह्र को पहचानना है और कमेन्ट करना है अगर हो सके तो और जानकारी भी देनी है, यदि उसी बहर पर कोई दूसरा गीत/ग़ज़ल मिले तो वह भी बता सकते है। पाठक एक दुसरे के कमेन्ट से प्रभावित न हो सकें…
ContinueAdded by Rana Pratap Singh on February 27, 2011 at 10:30am — 1 Comment
कविता :- छोड़ दूं सच साथ तेरा
हर अनुभव हर चोट के बाद
अक्सर ऐसा सोचता हूँ
छोड़ दूं सच साथ तेरा
चल पडूँ ज़माने की राह
जो चिकनी है और दूर तक जाती है
जिस राह पर चलकर
किसी को शायद नहीं रहेगी
शिकायत मुझसे
अच्छा…
ContinueAdded by Abhinav Arun on February 26, 2011 at 1:30pm — 11 Comments
जब जी चाहे तब गा लेना ,एक गीत अनोखा लायी हूँ..
Added by Lata R.Ojha on February 24, 2011 at 2:33am — 19 Comments
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद राज्य सरकार ने शिवरीनारायण में हर वर्ष माघी पूर्णिमा से प्रारंभ होने वाले मेले…
ContinueAdded by rajendra kumar on February 24, 2011 at 9:30am — 1 Comment
मालिकों के मलाईदार जूठे को खाया है
भौंक-भौंक कर किया कपालभाति
कभी लेट कर किया वज्रासन…
ContinueAdded by Shashi Ranjan Mishra on February 22, 2011 at 8:00am — 9 Comments
दोहा सलिला मुग्ध ***संजीव 'सलिल***
दोहा सलिला मुग्ध है, देख बसंती रूप.
शुक प्रणयी भिक्षुक हुआ, हुई सारिका भूप..
चंदन चंपा चमेली, अर्चित कंचन-देह.
शराच्चन्द्रिका चुलबुली, चपला करे विदेह..
नख-शिख, शिख-नख मक्खनी, महुआ सा पीताभ.
पाटलवत रत्नाभ तन, पौ फटता अरुणाभ..
सलिल-बिंदु से सुशोभित, कृष्ण…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on February 21, 2011 at 9:30am — 4 Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 20, 2011 at 10:30am — 4 Comments
जब बेटी घर से विदा हो जायेगी..
- शमशाद इलाही अंसारी "शम्स"
ये घर दरो दीवार सब तरसेंगे
जब बर्तन खन खन…
ContinueAdded by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on February 17, 2011 at 5:00am — 18 Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 13, 2011 at 2:30pm — 10 Comments
Added by Dr Nutan on February 8, 2011 at 6:00am — 15 Comments
कविता :- हर ले वीणा वादिनी !
देश को लूट कर
हक़ हकूक छीन कर
जो बने हैं बड़े
और तन कर खड़े
बेशर्म बेहया
उन दरख्तों के पत्ते और सत्ते ओ माँ !
उनकी धूर्त और मक्कार शाखाएं भी
तू हरले सभी !
तू हरले…
Added by Abhinav Arun on February 7, 2011 at 4:00pm — 3 Comments
ग़ज़ल : - वो धुआं था रोशनी को खा गया
छत से निकला आसमां पे छा गया ,
वो धुआं था रोशनी को खा गया |
सब ज़बानें मजहबी खँजर हुईं ,
क्या पुनः दंगों का मौसम आ गया |
टहनियों पर तितलियों…
ContinueAdded by Abhinav Arun on February 5, 2011 at 8:30am — 13 Comments
तभी तो कारवां ये बदगुमां है
निगाहे शौक से देखे अगर वो
ज़हां में आशियां ही आशियां है
उठाओ हाथ में खंज़र उठाओ
मेरी आँखों के आगे इक मकां है
छुटा है कुछ अभी आलिंगनों से
न जाने कौन अपने दर्मियां है
वहीँ होगी दफ़न अपनी कहानी
हर इक तारीख में अँधा कुआं है
दिखाओ सर्द मौसम को दिखाओ
जमीं की आग सा मेरा बयां है
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 5, 2011 at 3:30pm — 1 Comment
बींदने की
बेपनाह कोशिश की है
उसे नियन्त्रित करने की
मशक्कत की है कि, जैसा तुम चाहो
मैं वैसा सोचूँ..
तुमने मुझे एक से बढ़ कर एक
रंगीन जाल दिखाया
बनाये अनोखे तिलिस्म और चाहा
कि जैसा तुम दिखाना चाहते हो
मैं बस वो ही देखूँ..
तुमने मेरी उंगलियों को
छेद छेद कर, पिरोने…
ContinueAdded by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on February 4, 2011 at 4:30am — 9 Comments
बड़े कवि
बड़े कवि
बड़ी कविता लिखते है
जिसे बड़े कवि पढ़ते है
फिर परस्पर पीठ खुजलाते हुए
कला साहित्य के
नए प्रतिमान गढ़ते है
बड़े कवि
ख़ारिज कर देते है
किसी को भी
तुक्कड़ या लिक्खाड़
कह कर
बड़े कवि
गंभीरता का लबादा ओढ़े
किसी नोबेल विजेता की
शान में कसीदे पढ़ते है
विदेशी कवियों को'कोट ' करते है
फिर उस 'कोट' के
भार…
ContinueAdded by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 3, 2011 at 10:30pm — 6 Comments
(आचार्य जी ने काफी व्यस्तता के वावजूद यह कृति इस परिवार हेतु भेजी है , बहुत बहुत धन्यवाद ...एडमिन)
षडऋतु - दर्शन…
ContinueAdded by Admin on February 3, 2011 at 9:51am — 3 Comments
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on February 2, 2011 at 6:00pm — 5 Comments
क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर
(मधु गीति सं. १६०४, रचना दि. २ जनवरी, २०११)
क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर, क्यों विलखते हो विलय का राग सुनकर;
दया क्यों ना कर रहे जग जीव पर तुम, हृदय क्यों ना ला रहे तुम…
ContinueAdded by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:44pm — 3 Comments
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