वर्षा,
हर्ष-विषाद से मुक्त
चंचल, चपल, वाकपटुता में
मेढकों की टर्र-टर्र
रात के सन्नाटो में भी
झींगुरों के स्वर
सर-सराती हवाओं के संग लहराती
चिकन की श्वेत साड़ी
लज्जा वश देह से लिपट कर सिकुड् जाती
वनों की मस्त तूलिकाएं स्पर्श कर
रॅगना चाहतीं धरा
हरियाली, सावन, कजरी का मन भी
उमड़ता, प्यार-उत्साह...जोश
म्यॉन से तलवारें खिंच जाती.....द्वेष में
चमक कर गर्जना करती
बादलों की ओट से
आल्हा, राग छेड़ कर ताल ठोंकते
दंगल, चौपालों की…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 21, 2015 at 7:01pm — 14 Comments
समाचार - पत्र
प्रात:
नित्य क्रिया से निव्रुत्ति होकर
चींखती- सुप्रभात....!
आँंगन में फड़फड़ा कर गिरता
समाचार-पत्र
सुबुकता, कराहता, आहें भरता
दुर्भिक्षों सा
कातर दृष्टि में अपेक्षा के स्वर
आशा, सहयोग, सद्भावना...
किन्तु, सर्वथा.....अर्थ हीन
उपेक्षा का भाव...
सुरसा सा आकार लेता.
घायलों का अधिक रक्त स्राव
प्राण तक छीन लेती
क्षण भर की देरी
मंजिल के पास ही -
चौराहों की लाल बत्ती…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 17, 2015 at 9:47am — 4 Comments
मनहरण घनाक्षरी -
इस छन्द का विन्यास 8, 8, 8, 7 वर्णो की आवृति पर अथवा 16-15 वर्णों की यति पर कुल 31 वर्ण से किया जाता हैं। इसके चरणान्त में ।s लघु गुरू या s।s गुरू लघु गुरू रखने पर लय-गति में निरन्तरता बनी रहती है।
1
अम्ब, अम्ब सत्य ज्ञान, ताल छन्द के विधान,
रास रंग संग में उमंग के प्रमान हैं।
दिव्य शुभ्र शारदे बिसार के कलंक काल,
सूर्य-चन्द्र ज्योति से सजा रही वितान है।।
अखण्ड ब्रह्म तेज में, धरा-व्योम प्रेम करें
सृ-िष्ट रूप में अनादि…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2015 at 10:00pm — 5 Comments
गजल- आत्मा भरपूर सी...
बह्र - 2122, 2122, 2122, 212
फिर मुझे वह हूर सी लगने लगी।
दुश्मनी भी नूर सी लगने लगी।
गंग जन - मन को सदा पावन करे,
वास्तव में सूर सी लगने लगी।
तट, नदी का मध्य भी उकता गया,
रेत - पन्नी घूर सी लगने लगी।
आस्था की डुबकियॉं नित स्वर्ग हित,
बेवजह मगरूर सी लगने लगी।
आदमी सर-झील-नदियॉं पाट कर,
हस्तियॉं मशहूर सी लगने लगी।
आपदाएं नित्य घर-मन दाहतीं,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2015 at 12:30pm — 10 Comments
दोहा...........पूजा सामाग्री का औचित्य
रोली पानी मिल कहें, हम से है संसार।
सूर्य सुधा सी भाल पर, सोहे तेज अपार।।1
चन्दन से मस्तक हुआ, शीतल ज्ञान सुगन्ध।
जीव सकल संसार से, जोड़े मृदु सम्बन्ध।।2
अक्षत है धन धान्य का, चित परिचित व्यवहार।
माथे लग कर भाग्य है, द्वार लगे भण्डार।।3
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on November 30, 2014 at 12:00pm — No Comments
मेरा सूरज है तू...!
मंदिरों में दिये सजाए जाते
नित्य सुबह और शाम!
जला दी जाती हैं बातियॉं
ज्ञान की राह में,
रोशनी की आस में,
बेटों की कतार में,
चिरागों की मृगतृष्णा,
ताख को काला कर देती है।
बातियां,
सारी उम्र जल कर
रोशनी देती,
खुशियां बांटती।
दीपक,
पल-पल तेल सोखता
चतुर महाजन सा
ब्याज पहले और मूलधन बाद में
स्वयं के होने का एहसास कराता।
बातियां भ्रूण सी,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 12, 2014 at 5:30pm — 2 Comments
चित्त की वृत्ति
चंचल है कदाचित,
यह मचलती
सूर्य के प्रकाश जैसी।
तन विषय विष से भरे
घट को पिए जो
खार के सागर
अहं के ज्वार उगले।
रोक दो वृत्ति
तमस को भेद कर -चित्त में
योग - अनुशासन
तुला पर तोलता है।
वृत्ति की आवृत्ति
निश्छल शून्य जब भी
दिव्य अद्भुत योग से
साक्षात मुक्ति।
आत्मा - परमात्मा
चित्त के उपज जो
एक खोली में रहें जीव जैसे-
काष्ठ में अग्नि,
जल में वाष्प…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 8, 2014 at 9:00pm — 14 Comments
"वैभव छन्द" की रचना- एक भगण, एक सगण तथा लघु गुरू अर्थात्- 211, 112, 12 के योग से की जाती है।
श्वेत बसन शारदे!
नित्य नमन राम को।
प्रेम रमन श्याम को।।
सूर्य प्रखर तेज है।
कंट असर सेज है।।1
रात दिन विचारता।
आर्त जन पुकारता।।
कष्ट तम हरो प्रभू।
ज्योति बल तुम्ही विभू।।2
विश्व सकल आप से।
सृ-िष्ट विकल ताप से।।
पाप-पतित तारना।
सत्य शिवम कामना।।3
जीव जड़…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 6, 2014 at 11:35am — 6 Comments
नवगीत
प्रेम भाव के सेतु बन्ध में,
कुटिल नीति के खम्भ गड़े हैं।
गहन सिंधु से मुक्त हुआ रवि,
पथ पर पर्वत अटल अड़े है।
प्रजातंत्र की जड़े हिला कर,
स्वर्ण कवच में सजल खड़े है।।1
कर लम्बे अति प्रखर सोच रति
तीक्ष्ण बाण से भीष्म बिंधे है।
श्वांस-श्वांस चलती लू-अंधड़,
संशय मन में प्रश्न बड़े हैं।।2
छलक रहे नित अश्रु गाल पर,
शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।
भाव-वचन पर शोध नही जब,
चींख रहे जन तंग घड़े…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 12, 2014 at 4:52am — 3 Comments
ताव नित देते रहे..
ज्ञान के वटराज जिनको छॉंव नित देते रहे।
आरियों के वार से वो घाव नित देते रहे।।
कालिदासों को वही विद्योत्मा कैसे मिले,
पंडितों के ज्ञान को वो दॉंव नित देते रहे।
शब्द मुखरित सोच कुंठित कर्म कौरव का वरे,
धर्म के उत्कर्ष में बस ताव नित देते रहे।
चाहना की झाड़ में फॅस जब मलय वन त्यागते,
वक्त-सौरभ-धैर्य-साहस ठॉव नित देते रहे।
शारदे साहित्य व्यंजन में जगह कब द्वेष की,
मन-विषय-विष वासना…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2014 at 8:20am — 6 Comments
गजल - वही साखी पुरानी है...
1222, 1222, 1222, 1222
वही काठी, वही जज्बा, वही लाठी पुरानी है।
हसीं बुत मिल गया जिसमें वही मिट्टी पुरानी है।
अॅंधेरों को मिटाकर रोशनी के साथ जलता जो,
वही सूरज, वही चन्दा, वही भट्टी पुरानी है।
जगा कर देश को जिसने बढाया मान-मर्यादा,
वही पत्रक, वही पोथी, वही रद्दी पुरानी है।
दिला कर मंजिले पर्वत शिखर का कद किया बौना,
वही धागा कलाई का वही रस्सी पुरानी है।
जला कर दीप…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 3, 2014 at 2:14pm — 12 Comments
गजल- रंग पानी सा....
बह्र - 2122, 2122, 2122
नारि ही जब शक्ति की दुर्गा-सती है।
आज कल हालात की मारी हुयी है।।
काल बन भस्मासुरों को भस्म कर दें,
निर्भया बन वह सड़क पर लुट रही है।
विष्णु-शिव-ब्रह्मा हुआ है आदमी अब,
सृ-िष्ट - नारी की कहानी त्रासदी है।
नित गरीबी आग में पकती रही पर,
भूख, बच्चों की पढायी सालती है।
रक्त नर का पी कपाली बन लड़ी जो,
खून में लथपथ शिवानी सो रही है।…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 28, 2014 at 9:00pm — 9 Comments
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2014 at 8:34pm — 10 Comments
गीतिका छन्द......पीपल का वृक्ष
सत्य संकल्पों सहित इक बीज बोया था कभी।
ब्रह्म का अवतार हितकर पूजते पीपल सभी।।
चंचला हैं पत्र निश्छल शक्ति शाखा भॉंपते।
छॉंव शीतल भाव भर कर शांति-सुख नित बॉंटते।।1
देव का उपकार पीपल दु:ख दारूण काटता।
सूर्य-शनि से मुक्त करके दीप लौ को साधता।।
वासना दूषित मन: को सत्य का परिणाम दे।
भूत-प्रेतों को शरण रख मुक्ति आठो याम दे।।2
कामना फलती सदा यदि साधना सत्कार हो।
धैर्य-साहस-चेतना गुण शोध का आधार…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 5, 2014 at 8:30pm — 14 Comments
गजल- चल रही है आँंधियॉं...
बह्र-- 2122 2122 2122 212
जिन्दगी है आस्मां हर ओर खालीपन चुभे।
आजकल की दास्तां हर ओर खालीपन चुभे।।
चॉंद, अपनी चॉंदनी रखता नहीं जब पास में,
मेघ-मावस से जहां हर ओर खालीपन चुभे।1
भोर की लाली चहक कर मॉंगती वर खास है,
सॉंझ को लुटती यहां हर ओर खालीपन चुभे।2
प्यार आँंखों में दिलों में दर्द का दरिया बहे,
डूबती कश्ती शमां हर ओर खालीपन चुभे।3
झॉंकते हैं अब झरोखों से…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 19, 2014 at 1:30pm — 19 Comments
दूर गगन के टिम-टिम तारें,
लुक छिप कर सब करें इशारे।
धरती पर क्षण भंगुर जीवन,
जैसे निश में जुगुनू हारे।।
स्वार्थी मानव लोभ सताए,
दम्भ ज्ञान से मन बहलाए।
अहं द्वेष माया के बन्धन,
जैसे मृग कश्तूरी धारे।।1
देश-गॉंव की बातें करके,
जाति-धर्म को आड़े करके।
स्वार्थ फलित विष तन में बोते,
जैसे राजनीति भिनसारे।।2
भव सागर में कश्ती सारी,
तूफां संग बवन्डर भारी।
उमड़-घुमड़ कर सॉंझ सबेरे,
जैसे वर्षा-सूखा…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 4, 2014 at 10:53am — 7 Comments
नवगीत...आजाद शुका खूंखार हुआ
छत्तीस गढ़ के दो राहे पर,
तेरा मेरा साथ हुआ।
एक मात्र माशा रत्ती का
जमकर सोलह श्रृंगार हुआ।।
एक-एक मिलकर जो ग्यारह,
वह दो नम्बर व्यवहार करे।
तीन तिकड़मी सी मॅंहगाई,
जीवन भर आघात करे।
तीन-पॉंच मन राजनीति का,
आजाद शुका खूंखार हुआ।।1
चार वेद-ॠतु-वर्ण व्यवस्था,
चारों खाने चित्त हुए जब।
पंच तत्व कण के परमेश्वर-
छिन्न--िभन्न रिश्ते करते अब।
छवों शस्त्र के सात रंग-रस,
स्वर…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2014 at 9:40pm — 7 Comments
गजल-गुप अॅधेंरा, चॉंदनी भी दरबदर
बह्र....2122 2122 212
नींद जब आती नहीं गुल सेज पर,
सो रहे रिक्शे पे घोड़ा बेच कर।
स्वर्ण है या वोट किसको क्या पता,
शोर संसद में वतन की लूट पर।
चापलूसी नीति निशदिन छल रही,
गर्म है बाजार माया धर्म धर।
शोख कमसिन सी कली नित सुर्ख है,
तल्ख हैं अखबार पढ़ कर मित्रवर।
क्या किया है आपने इस देश में,
लुट रही है अस्मिता हर राह पर।
ताख पर जलता दिया जब…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2014 at 1:57pm — 9 Comments
गजल......
अरकान--2122 2121 212
जिन्दगी की तीव्र गति आवाक है।
सोच कर दिन-रात मति आवाक है।।
बस चुनावी दौर का सुरूर अब,
उड़ रहा मानव नियति आवाक है।
चॉंद छिप कर सोचता वो क्या करे,
बादलों का खौफ रति आवाक है।
पीर के पत्थर पिघल के सो गए,
नग्न पर्वत देख यति आवाक है।
नारि तुलसी-गौतमी औ द्राैपदी,
पूॅूछती हैं प्रश्न पति आवाक है।
घोर कलियुग पाप का आधार जब,
धर्म के पथ पर जयति आवाक…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 3, 2014 at 8:09pm — 6 Comments
गजल.....जमाना धूल-गर्दिश का
बह्र - 1222, 1222, 1222, 1222
इशारों ही इशारों में, इशारे कर रहे हैं हम।
तरफदारी हमारी तो, हजारों मर रहे हैं हम।।
उदारी नीति पावन पर, दिशा हर बार संहारी,
गरीबी भेड़ जैसी बस, कुॅंओं को भर रहे हैं हम।।1
भिड़े हैं शेर-हाथी गर, शिवा-राणा लड़े गॉंधी,
हमें भी देखिये साहब, गधों से डर रहे हैं हम।2
कहानी जब सुनाते हैं, हमें तो नींद आती है,
उड़ा…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 1, 2014 at 10:52am — 15 Comments
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