Added by Mohammed Arif on July 2, 2017 at 11:00pm — 10 Comments
Added by Mohammed Arif on June 25, 2017 at 9:30am — 10 Comments
Added by Mohammed Arif on June 17, 2017 at 10:58pm — 4 Comments
Added by Mohammed Arif on June 12, 2017 at 11:30am — No Comments
Added by Mohammed Arif on June 7, 2017 at 12:05pm — 13 Comments
Added by Mohammed Arif on June 1, 2017 at 9:06pm — 11 Comments
Added by Mohammed Arif on May 27, 2017 at 10:40am — 7 Comments
Added by Mohammed Arif on May 21, 2017 at 7:54am — 15 Comments
सूरज शोले छोड़ता ,पशु भी ढूँढे छाँव ।
दर खिड़की सब बंद है ,सन्नाटे में गाँव ।।
भीषण गरमी पड़ रही,पशु -मानव हैरान ।
भू जल भी घटने लगा, साँसत में है जान ।।
पारा बढ़ता जा रहा, सूख रहे तालाब ।
देखो गाँव महानगर , हालत हुई खराब ।।
पत्ते झुलसे पेड़ पर ,नीम बबूल उदास ।
पशु किसान सबको लगी, पानी की अब आस ।।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on May 11, 2017 at 8:30am — 14 Comments
बह्र-22/22/22
सूखे-सूखे जंगल अब,
रूठे-रूठे बादल अब ।
.
वादे, नारे सब झूठे,
बदले-बदले हैं दल अब ।
.
देखो किसकी साज़िश है,
रिश्ते-नाते घायल अब ।
.
बोतल में ऊँचे दामों,
बिकता है गंगा जल अब ।
.
ग़रीब के घर भी यारों,
ख़ुशियों वाला हो पल अब ।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on May 7, 2017 at 9:00pm — 13 Comments
(बह्र--22/22/22/2)
उसको ये समझाना है ,
इक दिन सबको जाना है ।
.
हँस के रोकर कैसे भी ,
जीवन क़र्ज़ चुकाना है ।
.
देखो, भटका फिरता वो ,
वापस घर तो आना है ।
.
अच्छी सच्ची राहें हैं
सबको ये बतलाना है ।
.
उसके संगी-साथी को ,
मिलकर हाथ बढ़ाना है ।
.
आशा की किरणों वाला ,
फिर से दीप जलाना है ।
.
मौलिक एवं आप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on April 30, 2017 at 4:00pm — 13 Comments
मेरे भीतर की कविता
अक्सर छटपटाती है
शब्दों के अंकुर
भावों की विनीत ज़मीन पर
अंकुरित होना चाहते हैं
ना जाने क्यों वे
अर्थ नहीं उपजा पाते हैं
मेरे भीतर की कविता फिर भी
जाकर संवाद करती है
सड़क किनारे बैठे
उस मोची पर जो
फटे जूते सी रहा है
बंगले की उस मेम साहिबा पर
जो अपना बचा फास्ट फुड
डस्टबिन में फेंककर
ज़ोर से गेट बंद करके
अंदर चली जाती है
लेकिन
अनुभूतियाँ ज़ोर मारती है
पछाड़े खाकर गिर जाती है
हृदय…
Added by Mohammed Arif on April 17, 2017 at 5:30pm — 12 Comments
1. झुलसी काया
आतंकी-सा सूरज
बेचैन सब ।
2.सूनी सड़कें
पसरा है सन्नाटा
जारी खर्राटे ।
3.डाल से टूटे
बरगद के पत्ते
सुनाए राग ।
4. सूखने लगे
पोखर औ तालाब
छोटी रात ।
5.नन्ही चीड़िया
करके जलपान
फुर्र हो जाए ।
6.चैत्र महीना
रात-दिन तपाए
किधर जाएँ ।
7.लू के थपेड़े
साँय-साँय सन्नाटा
सुस्ती में तन ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on April 2, 2017 at 3:30pm — 15 Comments
1.प्यासा तालाब
पीपल उदास-सा
गाँव है चुप ।
2.हुक्का , खटिया
चौपाल है गायब
बीमार गाँव ।
3.दहेज प्रथा
परिवर्तित रूप
कैश का खेल ।
4.धरती छोड़
चाँद पर छलांग
पुकारे भूख ।
5.मिलन नहीं
प्यास है बरकरार
है इंतज़ार ।
6.ऐश्वर्य प्रेमी
संत उपदेशक
माया का खेल ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 18, 2017 at 7:30pm — 4 Comments
छन्न पकैया छन्न पकैया ,बोले मीठी बोली ।
गाँवों , बाग़ो़ं गलियों छाई , टेसू की रंगोली ।।
.
छन्न पकैया छन्न पकैया , देखो, खिलता पलाश ।
पागल मतवाले भँवरों को , कलियों की है तलाश ।।
.
छन्न पकैया छन्न पकैया , टेसू मन को भाया ।
मतवाला, दीवाना, पागल, भँवरा भी इठलाया ।।
.
छन्न पकैया छन्न पकैया , उड़ता अबीर-गुलाल ।
यारों, संगी-साथी मिलकर ,करते मस्ती धमाल ।।
.
छन्न पकैया छन्न पकैया , पलाश के हैं झूमर ।
मौसम, यौवन, कलियाँ…
Added by Mohammed Arif on March 14, 2017 at 7:00pm — 7 Comments
पानी वाला बादल हो ,
नदियों में फिर हलचल हो ।
गाँवों की पनघट पे अब ,
फिर से बजती पायल हो ।
झूठे वादों से ऊपर ,
कोई तो ऐसा दल हो ।
जिसमें राहत हो सबको ,
आने वाला वो कल हो ।
सारे दुख सह जाऊँ मैं ,
सर पे माँ का आँचल हो ।
साफ़ हवा पानी पायें ,
पेड़ों वाला जंगल हो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 12, 2017 at 1:30pm — 3 Comments
थोड़ा आगे आने दो ,
मौक़ा उनको पाने दो ।
देखो, भटके फिरते हैं ,
उनको भी समझाने दो ।
कब तक सहना पाबंदी ,
दौर नया दिखलाने दो ।
सबको राहत मिल जाये ,
मौसम ऐसा आने दो ।
फिक्र करो मत दुनिया की ,
छोड़ो यारो जाने दो ।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 7, 2017 at 11:30am — 22 Comments
1.
आया फागुन
भँवरों की गुंँजार
छाई बहार ।
.
2.
मन मयूर
पलाश हुआ मस्त
भँवरें व्यस्त ।
.
3.
रंगों की छटा
मस्ती भरी उमंग
थिरके अंग ।
4.
आम बौराए
उड़ा गुलाबी रंग
है हुड़दंग ।
5.
दिशा बेहाल
फूलों उड़ी सुगंध
बने संबंध ।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 1, 2017 at 7:00pm — 12 Comments
अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।
ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।
ये जीना कैसा जीना,
ग़र्बत में ही मरते हम।
सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।
याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 10:30am — 2 Comments
उसने मुझको देखा है,
शायद कुछ तो सोचा है।
मंज़र कुछ ऐसा है जो,
उसकी आँखों देखा है।
मुश्क़िल राहों पे अब वो,
धीरे-धीरे चलता है।
कहता है वो सच को सच
सबको कड़वा लगता है।
उस पे शक़ करना कैसा,
वह तो जाँचा परखा है।
सुख-दुख के मौसम को, वह
ख़ामोशी से सहता है।
बारिश हो जाने से अब,
मौसम बदला-बदला है।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 3:30pm — 15 Comments
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