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मिथिलेश वामनकर's Blog (124)

ग़ज़ल-- मैं ही फ़क़त नादान हूँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2212---2212---2212---2212

 

देखो मुझे फिर ये कहो- क्या आज भी इंसान हूँ

क्यों इस तरह जतला रहें मैं कब कोई भगवान हूँ

 

ईमान का ऐलान हूँ तूफ़ान का फरमान…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 25, 2015 at 11:00am — 36 Comments

ग़ज़ल -- बूँद भी नहीं मिलती...... (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

धूप भी नहीं मिलती छाँव भी नहीं मिलती

ताकतों के साए में ज़िन्दगी नहीं मिलती

 

ज़िन्दगी मुकम्मल हो ये कभी नहीं…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2015 at 9:17am — 38 Comments

ग़ज़ल - पानी का बना होगा....... (मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

ग़लतफ़हमी कि पोखर साफ़ पानी का बना होगा

कमल खिलता हुआ होगा तो कीचड़ से सना होगा।

 

सुख़नवर ने सुखन की बाढ़ ला दी क्या कहे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 19, 2015 at 10:30am — 49 Comments

ग़ज़ल - घी डालना होगा................ (मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

हिदायत से ग़रीबों का जहाँ आना मना होगा

यक़ीनन ही सियासत का वहाँ तम्बू तना होगा।

 

कमीशन बैठकर अपनी हज़ारों राय दे, लेकिन

बसेसर का जला क्यूँ घर, कभी तो  देखना होगा।

 

हमारे नाम की रोटी बटी किसको पता साहिब

कि अगली रोटियां कब तक मिलेगी पूछना होगा।

 

किसी ने दूर से पत्थर उछाला सूर्य पर, लेकिन

सितारों ने खबर क्यों की ये मसला जांचना होगा।

 

लड़ाई कौम की खातिर, करो…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 18, 2015 at 4:30am — 31 Comments

ग़ज़ल - गज़ब का छा रहा हूँ मैं (मिथिलेश वामनकर)

1222---1222---1222---1222

 

ग़ज़ल से पा रहा हूँ मैं, ग़ज़ल ही गा रहा हूँ मैं

ग़ज़ल के सर नहीं बैठा, ग़ज़ल के पा रहा हूँ मैं

 

किसी की नीमकश आँखों का तारा हूँ जमानों…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 16, 2015 at 11:00pm — 35 Comments

ग़ज़ल - ये बम क्या करें..... (मिथिलेश वामनकर)

212 - 212 - 212 - 212

 

जिंदगी में नहीं कोई गम क्या करें

दिख रही बस खुशी मुहतरम क्या करें

 

टूटकर इश्क भी हमसे कब हो सका …

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 11, 2015 at 3:00pm — 30 Comments

ग़ज़ल - पाँव में जंजीर है.... (मिथिलेश वामनकर)

2212 / 2212 / 2212 / 2212----- (इस्लाही ग़ज़ल)

 

दिल खोल के हँस ले कभी,  ऐसी कहाँ तस्वीर है

यारो चमन की आजकल इतनी कहाँ तकदीर…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 9:30am — 43 Comments

ग़ज़ल - छग्गन तेरी फसलें....(मिथिलेश वामनकर)

22--22—22--22--22—2

 

दिल्ली से जो बासी रोटी आई है

अपने हिस्से में केवल चौथाई है…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 3, 2015 at 9:30am — 31 Comments

ग़ज़ल :: इक परिन्दा पागल-सा (मिथिलेश वामनकर)

212 / 1222 / 212 / 1222

 

वाकिया हुआ  कैसे   बाद   ये  जमानों  के

मस्ज़िदी भजन  गाये  मंदिरी अजानों के

 

हौसला  चराग़ों  का  यूं चला  तबीयत…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 22, 2015 at 11:30pm — 31 Comments

रिश्तें है बेतार..... (मिथिलेश वामनकर)

22  / 22  / 22  / 22 / 22  /  2

-------------------------------------------

बादल  जब  बेज़ार  किसी  से  क्या कहना

फिर  कैसी  बौछार किसी  से  क्या कहना

 

ख़ामोशी,…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 18, 2015 at 10:30am — 32 Comments

जवां परिंदे .... (मिथिलेश वामनकर)

121--22--121--22--121--22--121—22

------------------------------------------------

हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

जवाँ परिंदे  उड़ानों की अब,   हर  इक  इबारत  बदल  रहे हैं।*

 

गुलाबी  सपने  उफ़क  में  कितने  मुहब्बतों  से  बिखर गए है

नया  सवेरा  अज़ीम करने,  किसी  के  अरमां  मचल  रहे  है।

 

मिले  थे  ऐसे  वो  ज़िन्दगी  से,  मिले  कोई जैसे अजनबी से

हयात से जो  मिली  है  ठोकर  जरा - जरा  हम  संभल…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 2:30pm — 31 Comments

आखिर क्यों मैं ऐसा हूँ ..... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

22--22--22--22--22--22--22--2

----------------

हँसते - हँसते  रो  लेता  हूँ,   रोते - रोते  हँसता  हूँ

कोई मुझसे  ये मत पूछो आखिर क्यों  मैं  ऐसा हूँ

 

आईने-सी…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:00pm — 45 Comments

बाजरे की बालियाँ...... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

खेत की, खलिहान की औ गाँव की ये मस्तियाँ

कितनी  दिलकश हो गई है  बाजरे की बालियाँ

 

वो कहन क्यूं खो गई जो महफिलों को लूट…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 5, 2015 at 11:00pm — 27 Comments

एक मुट्ठी गालियाँ...... (मिथिलेश वामनकर)

2122—2122—2122—212

 

रात  भर  संघर्ष  कर  जब  थक  गई ये  आँधियाँ

एक दस्तक दी हवा ने, खुल  गई सब  खिड़कियाँ

 

जो गया ,  जाना उसे  था , कौन  जो  ठहरा…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2015 at 3:00am — 41 Comments

आखिर मैं आज कहाँ हूँ ? (मिथिलेश वामनकर)

वो अलसाया-सा इक दिन

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

 

जिसकी

थकी-थकी सी संध्या

जो गिरती औंधी-औंधी सी

रक्ताभ हुआ सारा मौसम

ऐसा क्यों है.....

बोलो पंछी?

 

ऐसा मौसम,

ऐसा आलम  

लाल रोष से बादल जिसके

और

पिघलता ह्रदय रात का

अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता

हर एक पहर के

कान खड़े है

सन्नाटे का शोर सुन रहे

ख़ामोशी के होंठ कांपते

कुछ कहने को फूटे कैसे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 12:30am — 32 Comments

ग़ज़ल - अज़ब बनाया हुआ फरिश्तो (मिथिलेश वामनकर)

121 - 22 / 121 - 22 / 121 - 22 / 121 – 22

 

बड़े ही जोरो से इस ज़हन में अज़ब धमाका हुआ फरिश्तो

फिज़ा में हलचल, हवा में दिल का गुबार छाया हुआ फरिश्तो

 

किसे पड़ी है…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 2:19am — 36 Comments

मुट्ठी भर सैलाब

मेरा जीवन पी  गया, तेरी कैसी प्यास ।

पनघट से पूछे नदी, क्यों तोड़ा विश्वास ।१।

                 

मन में तम सा छा गया, रात करे फिर शोर।

दिनकर जो अपना नहीं, क्या संध्या क्या भोर ।२।…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 10:30pm — 33 Comments

ग़ज़ल........ पुराना-नया क्या

1 2 2

 

भला क्या ?

बुरा क्या ?

 

खुदी से

मिला क्या…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2015 at 4:26am — 13 Comments

नयन सखा डरे डरे, प्रमाद से भरे भरे......मिथिलेश वामनकर

नयन सखा डरे डरे, प्रमाद से भरे भरे......

 

सबा चले हजार सू फिज़ा सिहर सिहर उठे

भरी भरी हरित लता खिले खिले सुमन हँसे

चिनार में कनेर में खजूर और ताड़ में

अड़े खड़े पहाड़ पे घने वनों की आड़ में

उदास वन हृदय हुआ उदीप्त मन निशा हरे.............

 

शज़र शज़र खड़े बड़े करें अजीब मस्तियाँ

विचित्र चाल से चले बड़ी विशेष पंक्तियाँ

सदा कही नहीं मगर दिलो-दिमाग कांपता

मधुर मधुर मृदुल मृदुल प्रियंवदा विचिन्तिता

विचारशील कामना प्रसंग से…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 10, 2015 at 11:30pm — 34 Comments

ठंडी थाली (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी 

पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :

“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”

 

क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-

 

“अब फिर बहाने…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 2:54am — 40 Comments

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