किसने कहा प्रेम अंधा होता है
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किसने कहा प्रेम अंधा होता है
रहा होगा उसी का , जिसने कहा
मेरा तो नहीं है
देखता है सब कुछ
वो महसूस भी कर सकता है
जो दिखाई नहीं देता उसे भी
वो जानता है अपने प्रिय की अच्छाइयाँ और
बुराइयाँ भी
वो ये भी जानता है कि ,
उसका प्रेम, पूर्ण है ,
बह रहा है वो तेज़ पहाड़ी नदी के जैसे , अबाध
साथ मे बह रहे हैं ,
डूब उतर रहे हैं साथ साथ
व्यर्थ की…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 12:20pm — 19 Comments
1222 1222 1222 1222
अगर दिल साफ है, आ सामने, कह मुद्दआ क्या है
खुला दर है तो फिर तू खिड़कियों से झाँकता क्या है
यहाँ तू थाम के बैठा है क्यूँ अजदाद के क़िस्से
बढ़ आगे छीन ले हक़ , गिड़गिड़ा के मांगता क्या है
अगर भीगे बदन के शेर पे इर्शाद कहते हो
तो फिर बारिश में मै भी भीग जाऊँ तो बुरा क्या है
जो पुरसिश को छिपाये हाथ आयें हैं उन्हें कह दो
मुझे निश्तर न समझाये , कहे ना उस्तरा क्या है
दुआयें जब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2015 at 10:00am — 22 Comments
अतुकांत - दवा स्वाद में मीठी जो है
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मोमबत्तियाँ उजाला देतीं है
अगर एक साथ जलाईं जायें बहुत सी
तो , आनुपातिक ज़ियादा उजाला देतीं हैं
कभी इतना कि आपकी सूरत भी दिखाई देने लगे
दुनिया को
लेकिन आपको ये जानना चाहिये कि ,
इस उजाले की पहुँच बाहरी है
किसी के अन्दर फैले अन्धेरों तक पहुँच नही है इनकी
भ्रम में न रहें
कानून अगर सही सही पाले जायें
तो, ये व्यवस्था देते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 28, 2015 at 11:30am — 27 Comments
22 22 22 22 22 2
दरवाज़े पर देखो कोई आया क्या ?
अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?
ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी
खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?
कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को
इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?
फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर
छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?
जुगनू सहमा सहमा सा…
Added by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 6:30pm — 28 Comments
तरही ग़ज़ल -
2122 2122 2122 212
तेज़ रफ़्तारी के सारे जब दिवाने हो गये
दूरियाँ सिमटीं नगर तक आस्ताने हो गये
अहदे नौ में टीव्ही ने तो यूँ मचाया है वबाल
बचपना में ही सभी बच्चे सयाने हो गये
जिस तरह फेरा ग़मों का लग रहा है घर मेरे
यूँ लगा मुझको ग़मों से दोस्ताने हो गये
अब नई तहज़ीब के पेशे नज़र , सारे ज़ईफ
नौजवानों के लिये , कपड़े पुराने हो गये
इंतख़ाबी , इंतज़ामी थे सभी वो वाक़िये
आप ये मत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 5:30pm — 23 Comments
हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क
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कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से
किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है
जब तक आत्मसमर्पण न कर दें आप
तमाम अपने छुपाये हुये हथियारों के साथ
अंदर तक कंगाल हो के
सद्यः पैदा हुये बालक जैसे , नंगा, निरीह और सरल हो के
सत्य के सामने या
वांछित बदलाव के सामने
आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो
हथियार हैं आपके
वही तो सुझाते हैं आपको…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 9:00am — 23 Comments
22 22 22 22 2
शहर ज़रा सा मुझमें भी तो आया है
यही सोच के गाँव गाँव शर्माया है
मुर्दों जैसा नया सवेरा है सोया
किस अँधियारे ने इसको भरमाया है
याराना कुह्रों से है क्या मौसम का
आसमान तक देखो कैसे छाया है
चौखट चौखट लाशें हैं अरमानों की
किस क़ातिल को गाँव हमारा भाया है
सूखी डाली करे शिकायत तो किस को
सूरज आँखें लाल किये फिर आया है
छप्पर चुह ते झोपड़ियों का क्या…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 15, 2015 at 8:30am — 27 Comments
क्या ये मेरा वही गाँव है
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क्या ये मेरा वही गाँव है
सूरज अलसाया निकला है
मुर्गा बांग नहीं देता है
नहीं यहाँ चिड़ियों की चीं चीं
ना कौवे की काँव काँव है
क्या ये मेरा वही गाँव है
दो पहरी सोई सोई है
दिवा स्वप्न में कुछ खोई है
यहाँ धूल में सनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 12, 2015 at 9:32am — 22 Comments
221 212 1 1221 212
बदली ने टांग अपनी अड़ाई हुई तो है
सूरज से आँख उसने मिलाई हुई तो है
कहने लगे हैं नक़्श हरिक शक्ल के यही
चक्की में ज़िन्दगी की पिसाई हुई तो है
बातों में तेवरी है बग़ावत की, मान ली
लेकिन जो सच थी बात, उठाई हुई तो है
देखें कि घर में रोशनी आती है कब तलक
तारीकियों के संग लड़ाई हुई तो है
सद शुक्र, ऐ तबीब दवा और मत लगा
उनकी हथेलियों से सिकाई हुई तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 8, 2015 at 3:30pm — 32 Comments
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
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याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी
वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है
वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक
उसके हिस्से की रोटी बच जाती है
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 6, 2015 at 11:44am — 27 Comments
उड़ानें उसकी बहुत ऊँची हो चुकी हैं
बेशक , बहुत ऊँची
खुशी होती है देख कर
अर्श से फर्श तक पर फड़फड़ाते
बेरोक , बिला झिझक, स्वछंद उड़ते देख कर उसे
जिसके नन्हें परों को
कमज़ोर शरीर में उगते हुए देखा है
छोटे-छोटे कमज़ोर परों को मज़बूतियाँ दीं थीं
अपने इन्हीं विशाल डैनों से दिया है सहारा उसे
परों को फड़फड़ाने का हुनर बताया था
दिया था हौसला, उसकी शुरुआती स्वाभाविक लड़खड़ाहट को
खुशी तब भी बहुत होती थी
नवांकुरों की कोशिशें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:30pm — 23 Comments
२११२२ २११२२ २११२
प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही
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प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही
ख्वाब तो हो, सच्चा न सही मुबहम ही सही
लम्स तेरा जिसमें न मिले वो चीज़ ग़लत
आब हो या महताब हो या ज़म ज़म ही सही
मेरे सहन में आज उजाला , कुछ तो करो
धूप अगर हलकी है उजाला कम ही सही
कुछ तो इधर अब फूल खिले सह्राओं में भी
काँटों लदी हो डाल खिले…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 1:25pm — 29 Comments
1222 1222 1222 1222
मुझे लूटो कि कांधों में अभी जुन्नार बाक़ी है
मेरे सर पे अभी पुरखों की ये दस्तार बाक़ी है
लड़ाई के सभी जज़्बे तिरोहित हो गये यारों
अना से मेल खाता सा कोई हथियार बाक़ी है
इशारों ने इशारों की बहुत बातें सुनी, लेकिन
अभी गुफ़्तार में शामिल बहुत इक़रार बाक़ी है
दरारें जिस तरह खाई बनीं इस से तो लगता है
अभी भी बीच में अपने कोई दीवार बाक़ी है
गदा बन कर तेरे दर पे बहुत आया मेरे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 25, 2015 at 8:30am — 39 Comments
2122 1212 22
ज़िन्दगी दी ख़ुदा ने प्यारी है
चाहतें पर बहुत उधारी है
इस तरफ़ हम खड़े उधर अरमाँ
बेबसी बस लगी हमारी है
ख़्वाब तो रोज़ ही बुनें, लेकिन
हर हक़ीकत लिये कटारी है
ख़र्च का क़द बढ़ा है रोज़ मगर
रिज़्क की शक़्ल माहवारी है
रिश्ते बदशक़्ल हो गये अपने
पेट की आग सब से भारी है
फुनगियों में लटक रहे अरमाँ
कोई सीढ़ी नहीं , न आरी है
तिश्नगी अश्क़ भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 19, 2015 at 2:00pm — 29 Comments
212 1222 212 1222
क्या हुआ यहाँ पर कल , क्यूँ उदास मौसम है
तितलियाँ परीशाँ हैं , क्यूँ गुलों में भी ग़म है
कितनी प्यारी लगतीं हैं , ये गुलाब की कलियाँ
और बर्गे गुल में वो , सो रहा जो शबनम है
अपनी क़िस्मतों मे तो , सिर्फ ये सराब आये
क़िस्मतों में कुछ के ही, सिर्फ़ आबे जम जम है
जगमगाती खुशियों की , नीव कह रही है ये
कुछ घरों में तारीक़ी , कुछ घरों में मातम है
आइने के गावों में…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 17, 2015 at 10:42am — 39 Comments
१२२२ १२२२ १२२
शिकायत हो न जाये आसमाँ से
अँधेरा अब उठा ले इस जहाँ से
अगर चुप आग है, तो कह धुआँ तू
शनासाई ये कैसी इस मकां से
तेरे कूचे के पत्थर से हसद है
शिकायत क्यूँ रहे तब कहकशाँ से
सुकूने ज़िन्दगी अब चाहता हूँ
बहुत उकता गया हूँ इम्तिहाँ से
कभी थे फूल से रिश्ते मगर अब
तगाफ़ुल से हुये हैं वे गिराँ से
परिंदों के परों ने की बग़ावत
सवाल अब पूछ्ना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 15, 2015 at 10:00am — 25 Comments
ऐ ज़िन्दगी !
सांसे चल रहीं है मेरी , इसलिये
मरा हुआ तो नहीं कह सकता खुद को
जी ही रहा होऊँगा ज़रूर, किसी तरह , ये मैं जानता हूँ
पर एक सवाल पूछूँगा ज़रूर
क्या सच में तू मेरे अंदर कहीं जी रही है ?
जैसे ज़िन्दगी जिया करती है
इस तरह कि , मै भी कह सकूँ जीना जिसे
उत्साहों से भरी
उत्सवों से भरी
उमंगों से सराबोर सोच के साथ , निर्बन्ध
चमक दार आईने की तरह साफ मन
प्रतिबिम्बित हो सके जिसमें शक्ल आपकी , खुद की भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 12, 2015 at 7:40am — 26 Comments
मिटा दूँ या मिट जाऊँ
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कब से भटक रहा हूँ
कभी पानी हुये
तो कभी खुद को नमक किये
कोई तो मिले घुलनशील
या घोलक
घोल लूँ या घुल जाऊँ ,
समेट लूँ
अपने अस्तित्व में या
एक सार हो जाऊँ , किसी के अस्तित्व संग
विलीन कर दूँ ,
खुद को उसमें
या कर लूँ ,
उसको खुद में
भूल कर अपने होने का अहम
और भुला पाऊँ किसी को
उसके होने को
ख़त्म हो जाये दोनों का ठोस…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 10, 2015 at 10:44am — 23 Comments
ओ भाई ,
नहीं , आपसे नहीं , होली दिवाली वालों से नहीं
किसी भी कौम के आस्तिकों नहीं
मै उनसे मुखातिब हूँ
अंध श्रद्धा , अंध विश्वास का ढोल पीटने वाले भाइयों से
हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ
कितनी बार देखे हैं सर्टिफिकेट, डाक्टरी
इलाज कराने से पहले
जांचे हैं कभी ?
भेजे यूनिवर्सिटी तस्दीक करने के लिये सही है या गलत ,
फर्जी तो नहीं है सर्टिफिकेट देखे कभी , अपनीं आँखों से
कर लिये न.... विश्वास , वही.....अंध…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 3, 2015 at 8:20am — 20 Comments
छन्द – छन्न पकैया
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छन्न पकैया छन्न पकैया , होली फिर से आई
बूढ़े बाबा की भी देखो , जागी है तरुणाई
छन्न पकैया छन्न पकैया , रंग प्यार का लेके
लूले लंगड़े भी दौड़े जो , चलते हैं ले दे के
छन्न पकैया छन्न पकैया, होली बड़ी निराली
कौवा रंग लगा के पूछे , कैसी लगती लाली
छन्न पकैया छन्न पकैया , आ जा भंग चढ़ायें
फिर बैठे बैठे घर में ही, आसमान तक जायें
छन्न पकैया छन्न पकैया , सूना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 2, 2015 at 10:30am — 28 Comments
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