भगतसिंह और डा लोहिया
शहीद ए आजम भगतसिंह और डा.राममनोहर लोहिया के व्यक्तित्व और विचारधारा के मध्य कुछ ऐसा अद्भुत अंतरसंबध विद्यमान है, जिस पर कि अनायास ही निगाह चली जाती है। सबसे पहले तो 23 मार्च की वह अति विशिष्ट तिथि रही है, जोकि भगतसिंह का शहादत दिवस है और डा.राममनोहर लोहिया का जन्म दिवस है। दोनों का ही जन्म ऐसे परिवारों में हुआ जोकि जंग ए आजादी के साथ संबद्ध रहे थे। भगतसिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह पंजाब में आजादी के आंदोलन की एक जानी मानी शख्सियत थे और उनके पिता सरदार किशन सिंह भी…
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Added by prabhat kumar roy on November 29, 2010 at 6:43am —
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सुबह से चढ़ रहा मुंडेर, गुनगुना सूरज,
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है...
देखता हूँ वो कच्ची धुप में लिपा आँगन,
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे..
कान के पीछे लगाया है फ़िक्क्र का टीका....
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें..
बुनी है कितनी जागती रातें....
शहर में कंपकपाती सर्दियों का फेरा है,
सुबह से ढूंढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरज
Added by Sudhir Sharma on November 29, 2010 at 4:25am —
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इधर नब्ज़ थमती,उधर अश्कों की झड़ी..
इधर टूटती साँस और उधर संजोते हैं आस..
विरक्ति -आसक्ति, आसक्ति-विरक्ति का कैसा खेल??
हैं हम जीवन बिसात के मोहरे मात्र!
इधर गूँजती किल्कारी,उधर जाए कोई बलिहारी..
किसी के माथे पे,भविष्य की चिंता लकीरें..
ममत्व की छाँव तले,अबोध-बोध का निर्बाध मेल..
हैं हम..जीवन बिसात के मोहरे मात्र..
'राम नाम सत्य 'के…
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Added by Lata R.Ojha on November 29, 2010 at 1:07am —
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दर पे मेरे ::: ©
सारी जिंदगी अकेला बैठा हुआ हूँ,
पलकें बिछाए हुए तेरे इंतज़ार में,
न जाने कब इस रात की सुबह हो,
और दर पे नाचीज़ के तू आ जाये..
_____
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (28 Nov 2010)
.
Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 28, 2010 at 10:31pm —
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मुट्ठी में ख्वाहिशों को बंद करके..
क्यों कहें ज़प्त कर लिया सबकुछ..
रेत जैसे हर बात फिसल जाएगी..
हाथ में झूठ के सच रुकेगा कैसे?
मैं हूँ पत्थर,नही कुछ भी महसूस होता..
आँखें बरसती नही जब भी कोई भूखा बच्चा रोता..
नही रूंधता कंठ तड़पती आहें सुन..
बस..धनलक्ष्मी के कदमों की हूँ आहट सुनता..
क्यों बहकते हो बस एक घूँट लहू का पी के..?
अभी ताउम्र टकराने हैं जाम ये छलकते..
जेब भरती… Continue
Added by Lata R.Ojha on November 28, 2010 at 2:00am —
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मैं साकार कल्पना हूँ
मैं जीवंत प्रतिमा हूँ
मैं अखंड अविनाशी शक्तिस्वरूपा हूँ
मैं जननी हूँ,श्रष्टि का आरम्भ है मुझसे
मैं अलंकार हूँ,साहित्य सुसज्जित है मुझसे
मैं अलौकिक उपमा हूँ
मैं भक्ति हूँ,आराधना हूँ
मैं शाश्वत,सत्य और संवेदना हूँ
मैं निराकार हूँ,जीवन का आकार है मुझसे
मैं प्राण हूँ,सृजन का आधार है मुझसे
मैं नीति की संज्ञा हूँ
मैं उन्मुक्त आकांक्षा हूँ
मैं मनोज्ञा मंदाकिनी…
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Added by Ekta Nahar on November 27, 2010 at 6:00pm —
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एक एहसास है बाक़ी, तेरे साथ होने का..
एक डर सा कहीं ,तुझे खोने का..
एक द्वंद ,साहस और भय के बीच..
एक निर्णय,तुझ पे बोझ ना बनने का..
सांझ के धूंधलके में,एक ख्वाब सा..
तेरा साथ अपना सा,कुछ पराया सा..
चटखती,टूटती,सहमी सी प्रीत की डोर भी..
शायद..
डर है,तुझे खोने के डर के सच होने का..
सुना था,जो सच में अपना है वो लौट आता है..
जो लौटना ही हो तो क्यों जाता है?
कितने अरमानो को,एहसासों को,…
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Added by Lata R.Ojha on November 26, 2010 at 9:57pm —
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हमने जो घर-घर में देखा,
उन बातों का यही निचोड़
जीवन है इक बाधा दौड़.
चाहे कितनी करो कमाई,
सब कुछ खा जाती मंहगाई.
दस-पंद्रह दिन में चुक जाती.
एक मॉस की पाई -पाई.
ओवर-इनकम नहीं जो घर में,
इक-दूजे का माथा फोड़.
जीवन है इक बाधा दौड़.
मस्त रहें बच्चे ,धमाल में,
घर के बूढ़े अस्पताल में
घर का करता फिरकी जैसा
नाचे सबकी देख -भाल में
घर-घर बहूएँ कोंस रहीं हैं
बुढ़िया अब तो माचा छोड़
जीवन है इक बाधा…
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Added by anand pandey tanha on November 26, 2010 at 7:52pm —
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वो शाम,
जिस पर था 26/11 का नाम
शांत, सुंदर, रोज़मर्रा की शाम
कर रही थी रात का स्वागत शाम,
तभी समंदर के रास्ते
आए दबे पांव
कुछ दहशतगर्द
लिए हाथों में
आतंक का फरमान,
मक़सद था जिनका केवल एक,
फैलाना आतंक
और लेना
बकसूरों की जानें तमाम I
किसी माँ ने बेटा खोया,
पिता ने अपना सहारा गँवाया,
किसी बहन का भाई ना आया,
कुछ महीनों के एक बच्चे ने
खोई दुलार की छाया,
हुई शहीद सैंकड़ों काया
जिनने अपना खून…
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Added by Veerendra Jain on November 26, 2010 at 6:18pm —
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गली का कुत्ता या इंसान ::: ©
गली के आवारा कुत्ते को रात में डर-डर कर पीछे को हटते देख कभी ख्याल आता है कि इन्हें कहीं ज़रा भी प्यार से पुचकार दिया जाये तो इनकी प्रतिक्रिया ही बदल जाती है... आँखों में उभरे जहाँ भर की प्रेम में लिथड़ी मासूमियत , कान कुछ पीछे को दबे हुए , लगातार दाँये-बाँये को डोलती पूँछ , गर्दन से लेकर पूँछ तक का शरीर सर्प मुद्रा में अनवरत लहराता हुआ और चारों पाँव जैसे असमंजस में आये हों कि उन्हें करना क्या…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 26, 2010 at 4:36pm —
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सुर सुधाये हैं अधर पर आज मैंने
मधु गीति सं. १४८१ रचना दि. २६ अक्टूबर २०१०
सुर सुधाये हैं अधर पर आज मैंने, सहजता से ओज ढ़ाला आज मैंने;
उम्र का अनुभव है बाँटा औ समेटा, साधना का सत्य चाखा और बाँटा.
तसल्ली किस को हुयी इस जगत आके, तंग दिल सब रहे हैं लाजें बचाके ;
खामख्वा कुछ खेल में नज़रें चुराके, बोझ अपने हृदय में रखते छुपाके.
आस्तिकी उर सात्विकी सुर मेरी सम्पद, ना बचा पाया हूँ इसके अलाबा कुछ;
करो ना बरबाद अपना वक्त मुझ पर, लूट क्या पाओगे जब ना…
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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on November 26, 2010 at 12:20pm —
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कृत्य हमरा महत्व कम रखता
(मधु गीति सं. १५२० दि. १७ नवम्बर, २०१०)
कृत्य हमरा महत्व कम रखता, स्वत्व हमरा जगत कृति करता;
अर्थ यदि अपना हम समझ पायें, स्वार्थ परमार्थ कर स्वत्व पायें.
कर्म उत्तम तभी है हो पाये, आत्म जब सूक्ष्म हमरा हो जाये;
ध्यान बिन स्वार्थ ना समझ आये, स्वार्थ बिन खोजे अर्थ न आये.
नहीं आनन्द यदि रहे उर में, दे कहाँ पांए उसे इस जग में;
रहें दुःख में तो कैसे सुख देवें, बिना खुद जाने खुदा क्या जानें.
समझना स्वयं का जरुरी…
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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on November 26, 2010 at 11:30am —
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ये रात शर्त लगाये बैठे है नजरे बोझिल करने की..
और हम ख्वाब सजाने की बगावत कर बैठे है ...
(वक्त के खिलाफ ये कैसी कोशिश ! ! )
यूँ भागती कोलाहल जिंदगी मे ..
कहाँ थी कोई ख़ामोशी..
हम छुपते रहे , पर वो वजह थी..
आखिर मुझे ढूंड ही लिया उसने ! !
(ये कैसी ख़ामोशी. थी ! ! )
राह बंदिशे से निकल कर चलने दे एक कारवां ...
वक्त की हाथो न रुक जाये एक खिलता हुआ जहाँ ..
(रोको न इसे खिलने से ! ! )
शिकन न दिखे इन चेहरों मे…
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Added by Sujit Kumar Lucky on November 25, 2010 at 11:30pm —
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कितनी बार कहा है तुमसे
रोना धोना बंद करो
हिम्मत करके तुम आगे बड़ो
अधिकारों के लिए अब खुद ही लड़ो
कभी हंसकर के जो तुमने
ये कुछ सपने संजोये थे
उन्हें साकार करने के लिए
तुम डटकर आज आगे बड़ो
हिम्मत ऐसी हो दिल में
कि हिम्मत खुद ही डर जाए
क्या हिम्मत दूसरों में फिर
जो तुझको रोकने आयें !
-अक्षय ठाकुर…
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Added by Akshay Thakur " परब्रह्म " on November 25, 2010 at 11:29pm —
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मुक्तिका:
सबब क्या ?
संजीव 'सलिल'
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..
न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..
हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..
न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?
न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..
खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 25, 2010 at 8:32pm —
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भारत के विकास में शिक्षा का अहम योगदान रहा है और आगे भी रहेगा। इस लिहाज से देखें तो देश की सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था को लेकर गहन विचार किए जाने की जरूरत है, मगर अफसोस, भारत में अब तक मजबूत शिक्षा नीति नहीं बनाई जा सकी है। नतीजतन, हालात यह बन रहे हैं कि भारतीय छात्रों को विदेशी जमीन तलाशनी पड़ रही है। स्कूली शिक्षा में भारत की मजबूत स्थिति और गांव-गांव तक शिक्षा का अलख जगाने का दावा जरूर सरकार कर सकती है, लेकिन उच्च शिक्षा में भी उतनी ही बदहाली कायम है। उच्च शिक्षा नीति और व्यवस्था में किसी तरह का…
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Added by rajkumar sahu on November 25, 2010 at 7:33pm —
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यूं तो छमिया रोज़ ही हाट से सब्जी बेचकर दिन ढले ही घर आती थी, पर आज तनिक देर हो गयी थी. वह थोड़ी देर के लिए अपनी मौसी से मिलने चली गयी थी. युग -ज़माना का हवाला देकर मौसी ने उसे यहीं रुक जाने को कहा था, पर बूढ़ी माँ को वह अकेले छोड़ भी कैसे सकती थी? जब वह मौसी के घर से चली थी तो सूरज अपनी अलसाई आँखें मुंदने लगा था. छमिया तेज-तेज डग भरने लगी , पर शायद रात को आज कुछ ज्यादा ही जल्दी थी. देखते ही देखते चारो ओर कालिमा पसर गयी. वह पगडण्डी पार कर रही थी. अचानक उसे बगल की झाड़ियों में खड़-खड़ की आवाज़…
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Added by satish mapatpuri on November 25, 2010 at 2:00pm —
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बैठी देख रही थी तारे..
जाने कितने ..कितने सारे..
छोटी थी तो गिनती थी..
ढेरों सपनों को बुनती थी..
'सप्तऋषि' 'ध्रुव' ढूँढती थी..
अनोखी आकृतियों पे हँसती थी..'
अक्सर देखा करती तारे..
जाने कितने..कितने सारे..
बीता बचपन,बदले सपने..
बदला ढंग देखने का तारे..
लगता था है मुझमें ज्ञान बहुत..
हर बहस जीत खुश होती थी..
अक्सर देखा करती तारे..
अब दूर बहुत लगते सारे..
कुछ… Continue
Added by Lata R.Ojha on November 24, 2010 at 11:30pm —
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आनंद व्यापक होता है
सारा संसार आनंद की खोज में मशगुल है. इस खोज में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है. रहे भी क्यों ? सभी जीवो को आनंद चाहिए क्योंकि यही उसके जीवन का उद्देश्य है.
आनंद की खोज ही मनुष्य का धर्मं है. आनंद की प्राप्ति ही मनुष्य चरम एवं परम उद्देश्य है. अपने इस प्रिय और परम प्रिय आनंद की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य आदिकाल से सतत संघर्ष करता आ रहा है.
अनंत कल का यह पथिक अनंत पथ पर चला जा रहा हा इ. हर दिन हर समय सोचता है अब अंत करीब है . लेकिन यह क्षितिज मृग…
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Added by Sachchidanand Pandey on November 24, 2010 at 9:16pm —
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कुछ दिनों पहले उसके पास
दो सौ रूपए का चश्मा था
बार बार उसके हाथों से गिर जाता था
और वो बड़ी शान से सबसे कहता था
मेहनत की कमाई है
खरोंच तक नहीं आएगी।
आज वो चार हजार का चश्मा पहनता है
मगर वो चश्मा जरा सा भी
किसी चीज से छू जाता है
तो वह तुरंत उलट पलट कर
ये देखने लगता है
कि कहीं चश्मे में
कोई खरोंच तो नहीं आ गई।
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 24, 2010 at 9:00pm —
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