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हाइकू

मिटा सके जो
अन्तस का अंधेरा
रौशनी कहाँ

सागर में भी
गहराइयाँ कहाँ
डुबा सके जो


पैसा ही पैसा
पर नहीं है कहीं
मन का सुख


खुश हो सकें
सबकी खुशी पर
वो खुशी कहाँ

Added by Neelam Upadhyaya on November 1, 2010 at 1:55pm — 8 Comments

~.. आपको हँसना हसाना चाहिए

आपको हँसना हसाना चाहिए

pyar का vaada निभाना चाहिए



कब तलक मैं ही निभाऊं रस्म-ए-इश्क़

आपको भी कुछ निभाना चाहिए



याद तो आएगी पल भर को मगर

भूलने को इक ज़माना चाहिए



खुद सर-ए-आईना हों वो एक दिन

खुद को भी तो आज़माना चाहिए



बोया जो है काटना होगा बही

सोच कर ही कुछ उगाना चाहिए



सारी फसलें खुद रखो कि))सान जी

चिड़िया को बस एक दाना चाहिए



मंदिर-ओ-मस्जिद ना जाओ हर्ज़ क्या

मैकदे हर शाम जाना चाहिए



फिर… Continue

Added by vikas rana janumanu 'fikr' on November 1, 2010 at 11:30am — 2 Comments

गीत: आँसू और ओस संजीव 'सलिल'

गीत:



आँसू और ओस



संजीव 'सलिल'

*

हम आँसू हैं,

ओस बूँद मत कहिये हमको...

*

वे पल भर में उड़ जाते हैं,

हम जीवन भर साथ रहेंगे,

हाथ न आते कभी-कहीं वे,

हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.

छिपा न पोछें हमको नाहक

श्वास-आस सम सहिये हमको ...

*

वे उगते सूरज के साथी,

हम हैं यादों के बाराती,

अमल विमल निस्पृह वे लेकिन

दर्द-पीर के हमीं संगाती.

अपनेपन को अब न छिपायें,

कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...

*

ऊँच-नीच… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on November 1, 2010 at 9:25am — 1 Comment

भर जाएगा मेरा समंदर . . . .

हाँ तुमने ही तो किया था वादा,

मेरा समंदर भर दोगे।

जाने किस - किस से तुमने,

माँगा इसके लिए स्नेह।

पर अब भी रीता है,

मेरा समंदर, अधभरा . . .

उजली आँखों से निहारता,

टकटकी लगाए देखता।

शायद तुम अभी भी,

भरने को उत्साहित हो।

मांग लो किसी प्रेमी से,

थोड़ा और स्नेह।

न दे तो छीनो, मिटा दो,

प्रेम की बसती किसी की दुनिया।

उजाड़ दो किसी का घर,

और भर दो मेरा समंदर।

चाहे उसमें प्रेम की जगह,

किसी की खुशियों की दाह हो।

हाँ…

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Added by Jaya Sharma on November 1, 2010 at 6:00am — 2 Comments

हूँ अभी गर्भ में ::: ©



► हूँ अभी गर्भ में ::: ©



हूँ अभी गर्भ में

ले रही आकर

हुआ ही है शुरू

स्पंदन ह्रदय का

कि जान लिया

कौन हूँ मैं

जताने लायक

हैं यंत्र नए

क्या करती



तैयार हूँ कट जाने को

आएगा जोड़ा यंत्रों का

होगी कोख कलंकित

कर रहे हैं पुर्जा-पुर्जा

अलग मुझे माँ से

न सोच न ही समझ है मुझे

करूँ क्रंदन कैसे

पर दर्द समझती हूँ

तडपा रहा कटना अंगों का

बिन… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 1, 2010 at 1:00am — 2 Comments

तड़पन...

सुख दिए हैं आपने

मन में बड़ा उत्साह है …

उत्साह से उल्लास को कैसे मिटाऊँ

क्या करूँ ?

कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?



हर्ष जो उपजा हमारे ह्रदय में ,

मै छिपाऊँ या जताऊँ

किस तरह ?

क्या करूँ ?

कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?



शोक में या क्रोध में ,

मै शांत हो जाऊं ,

बताओ किस तरह ?

क्या करूँ ?

कैसे तुम्हारा प्रिय बनूँ ?



शांत मन जो व्यक्ति हैं ,

वे , तुम्हारे सर्वदा ही प्रिय रहे हैं .

मांग कर जो नित्य ही…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 31, 2010 at 10:00pm — 3 Comments

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..

कहते हैं इंसान स्वयं को

पर इंसानियत को समझ ना पाएँ I



जिस माँ ने पाल-पोसकर

इनको इतना बड़ा बनाया

बाँधकर उनको जंज़ीरों में

जाने कितने बरस बिताएँ I

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..



तेईस बेंचों की कक्षा इनको

भीड़ भरा इक कमरा लगती

पर डिस्को जाकर

हज़ारों की भीड़ में

अपना जश्न खूब मनाएँ I

उफ्फ..! ये सभ्य समाज के लोग..



कॉलेज में नेता के आगे

बाल मज़दूरी पर

वाद विवाद कराएँ

और… Continue

Added by Veerendra Jain on October 30, 2010 at 5:30pm — 3 Comments

ग़ज़ल-तेरा लोटा तेरा चश्मा

ग़ज़ल



कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है

डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |



तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू

तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |



बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो

सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |



वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं

वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |



चुने जाते ही नेता सारे… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm — 12 Comments

ग़ज़ल : कम रहे आखिर



पांव रिश्तों के जम रहे आखिर

हम हकीकत में कम रहे आखिर |



जिनके दिल पर भरोसा पूरा था

उनके हाथों में बम रहे आखिर |



तीर उस ओर थे दिखाने को

पर निशाने पर हम रहे आखिर |



दिन में लगता है भोग पंचामृत

शाम को पी तो रम रहे आखिर |



सच कहे और लड़े सिस्टम से

उसमे दम तक ये दम रहे आखिर |





नोट संसद में जेल में हत्या

काम के क्या नियम रहे आखिर |



जाने क्यूँ महलों तरफ… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 2:30pm — 6 Comments

दिखने वाले कलमकार के रूतबे

बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में… Continue

Added by rajkumar sahu on October 30, 2010 at 11:54am — 1 Comment

सर्दियाँ

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...

Added by Sudhir Sharma on October 29, 2010 at 11:30pm — 6 Comments

का भाई जी ध्यान बा न ?

का भाई जी ध्यान बा न ?

बड़ा ही अजीब शब्द है,लेकिन आजकल धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है भैया.....ये शब्द मानो लोगो की परछाई बन के चिपक सी गयी है ......जी ये शब्द है चुनावी महाकुम्भ में डुबकी लगाने के वास्ते उतरे हुए उम्मीदवारों के ...राह चलते हुए किसी पहचान वाले को देख लिए तो जल्दी से गाड़ी रुकवाते है ...और हाथ जोड़ते हुए कहते है "का भाई जी ध्यान बा न?" या "का जी बाबा तनी हमरो पर ध्यान देब"

कुछ भी कहा जाये पर बिहार के उन जिलो में चुनावी महापर्व रंग ला रहा है, जहा अभी चुनाव होना बाकि है.… Continue

Added by Ratnesh Raman Pathak on October 29, 2010 at 6:00pm — 1 Comment

यह दावा किसके दम पर ?

अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता… Continue

Added by rajkumar sahu on October 29, 2010 at 10:54am — 1 Comment

तुम हो कौन ?

आकाश के उस कोने मे जहाँ मेरी दृष्टि की सीमा है….

देखता हूँ किसी ना किसी पक्षी को नित्य ही ….

क्या यह मेरा अरमान है ?

एकाकी ही दूर तक उड़ते जाना.. सत्य की खोज मे….

क्या यह मेरे मन का भटकाव है ?



कभी उत्साह की बरसात होती है…

आशाओं का सवेरा

मन के अंधेरे को झीना कर जाता है…..

और तब दिखते हो तुम मुझे,

आनंद मे नहाए एकदम तरोताज़ा

सूरजमुखी का एक फूल…

यह नही है कोई भ्रम या भूल.



वर्जनाओं के कड़े पहरे मे

जब दीवाले कुछ मोटी होजाती… Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 29, 2010 at 9:00am — 1 Comment

तुम हो तो...

छुवन तुम्हारी यादों की भी न्यारी लगती है....

तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...



मन खोया रहता है तुम मे...

तुम हो मेरे अंतर्मन मे....

तुम से उत्प्रेरित मेरा मन...

तुमको करता नमन समर्पित

जीवन हो तुम. जीवन-धन भी,

सांसो मे तुम धड़कन मे भी...

दृष्टि तुम्हारी घोर तमस को झीना करती है...

तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...



क्या अंतर जो नही पास मे...

तुम हो मेरी सांस-सांस मे...

नेत्र बंद होते ही मेरे...

तुम…
Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 28, 2010 at 10:00pm — 1 Comment

निर्जला....

पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...

मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग

तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...

औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...

और फिर रात को पीले मकान की छत पर...

चाँद दो घंटे लेट था शायद...

चांदनी छानकर पिलाई थी...

पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने

आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...

Added by Sudhir Sharma on October 28, 2010 at 9:22pm — 5 Comments

ऐसा हो नहीं सकता

ऐसा हो नहीं सकता



मेरी राख़ को दुनियां वालो

गंगा में ना बहाना

प्रदूषित हो चुकी बहुत

और उसे ना बढ़ाना

करम अगर होंगे अच्छे

तो मिल जाएगी मुक्ति

गंगा जी में बहाने से ही

मुक्ति नहीं मिल सकती

यह है सब बेकार की बातें

ऐसा हो नहीं सकता

किसी के कुकर्मों का अंत

इतना सुखद नहीं हो सकता

गर ऐसा हो जाता

तो हार कोई पापी तर जाता

पाप करने से यहाँ

कोई ना घबराता

कोई ना घबरा----



दीपक शर्मा… Continue

Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 28, 2010 at 5:30pm — 2 Comments

फूल और मैं

मैंने फूलों को तोड़ा
सुखा दिया रखकर उसे
किताबों के दो पन्नों के बीच
फिर पंखुड़ी -पंखुड़ी अलग कर दी
फिर पैरो से कुचल दिया ॥
मगर ....
खुशबू नहीं मरी ॥

एक मैं हूँ ..दोस्तों
किसी इंसान के
ज़बान से शब्द फिसले क्या
तूफ़ान मचा देता हूँ
तुरंत अपने को
हैवान बना लेता हूँ ॥

Added by baban pandey on October 28, 2010 at 11:35am — No Comments

मुक्तिका: यादों का दीप -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



यादों का दीप



संजीव 'सलिल'

*

हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.

पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..



'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.

आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..



सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.

भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..



आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.

फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..



दीप… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:08am — 2 Comments

मुक्तिका: सदय हुए घन श्याम -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका





सदय हुए घन श्याम





संजीव 'सलिल'

*

सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.

तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..



बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.

दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..



किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?

भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..



विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.

न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..



चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.

तारों के सलमे चुप रह बेदाग़… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:06am — 1 Comment

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