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मुक्तिका: जीवन की जय गायें हम.. संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:



जीवन की जय गायें हम..



संजीव 'सलिल'.

*

जीवन की जय गायें हम..

सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..

*

नेह नर्मदा में प्रति पल-

लहर-लहर लहरायें हम..

*

बाधा-संकट -अड़चन से

जूझ-जीत मुस्कायें हम..

*

गिरने से क्यों डरें?, गिरें.

उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..

*

जब जो जैसा उचित लगे.

अपने स्वर में गायें हम..

*

चुपड़ी चाह न औरों की

अपनी रूखी खायें हम..

*

दुःख-पीड़ा को मौन सहें.

सुख बाँटें… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 8:49pm — 5 Comments

मेरी माँ-डॉ नूतन गैरोला

मेरी माँ



जब मेरी माँ २१ साल की थीं





रात के सघन अंधकार में,

तेरे आंचल के तले,

थपकियो के मध्य,

लोरी की मृदु स्वर-लहरियों के संग,

मैं बेबाक निडर सो जाती थी माँ |



और नित नवीन सुबह सवेरे

उठो लाल अब आंखें खोलो

कविता की इन पंक्तियों के संग

वात्सल्य का मीठा रस… Continue

Added by Dr Nutan on November 24, 2010 at 1:00am — 2 Comments

लीक से हटकर एक प्रयोग: मुक्तिका: संजीव 'सलिल'

आत्मीय!



मुशायरे के लिए लिख रहा था की समय समाप्त हो गया. पूर्व में भेजा पथ निरस्त करदें. इसे जहाँ चाहें लगा दें.



लीक से हटकर एक प्रयोग:



मुक्तिका:



संजीव 'सलिल'

*

हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.

कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??

*

न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.

प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..

*

न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.

लिया दिल देके दिल, सौदा नगद… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:53am — 5 Comments

अस्तित्व

अस्तित्व



शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।



तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?



अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:00am — 1 Comment

'ज़िन्दगी'... तू "ज़िन्दगी" क्यों है...???



बोझिल मन... आँखें... सांसें...

ऐसा तारतम्य...

ना देखा आज से पहले...

ऐसी सांठ-गाँठ...

क्यों नहीं कर पाती यें... खुशियों में...???

जितना खोलनें की कोशिश करती...

उतनी ही इसकी गांठें और गुथती जाती...

और उन गांठों में फंसती जाती...

ज़िन्दगी... ... ...

धीरे-धीरे घुटती... गिरती... संभलती...

पर उफ़ ना करती...

शायद अब इस घुटन से...

इस उतार-चढ़ाव से...

बाँध ली थी उसने भी गांठें…
Continue

Added by Julie on November 23, 2010 at 9:00pm — 4 Comments

आज की आवाज

उसकी हिम्मत बनना,
तक़दीर मत बनना,
प्यार जरूर करना पर,
पाव की जंजीर मत बनना,
यादो मे बसना जरूर पर,
तस्वीर मत बनना,
जो जी मे आये लिखते जाओ,
कौन रोकेगा तुम्हे,
बस वो पढ़ने वाले नही रहे अब,
सो कवि तो बनना पर,
तुलसी और कबीर मत बनना |

Added by Binod Kumar Rai on November 22, 2010 at 2:00pm — 1 Comment

प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार ,

प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,

क्यों कोई बोले आप काम करते हो बेकार,

डी राजा को आपने इतना दिन बचाया,

कलमाड़ी को आप पैसा खूब कमवाया,

आपकी कृपा से पृथ्वी राज के सपना साकार,

प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,

एन डी ए से ममता सरपट भागी थी,

आग बबूला हो गई थी बस एक ही घपला पे,

आज आपकी पल्लू पकड़ कर बैठी हैं,

सोचिए कितना अच्छा हैं आपका ब्यवहार,

प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,

अब तक जितने हुए घपले पूरे हिदुस्तान में,

सब से ज्यादा कहे… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on November 22, 2010 at 11:00am — 3 Comments

"रात अभी भी बाकी है ...!"

ये रात अभी भी बाकी है ,

कुछ काम अभी भी बाकी हैं |

ये बात बहुत है छोटी सी ,

और दुनिया बदलना बाकी है |

पर दुनिया कि क्या बात करें , अभी

खुद को ही बदलना बाकी है ;

हम खड़े तो थे इस पार मगर ,

मीलों तक चलना बाकी है ;

ये रस्ता बहुत है संकरा सा , मगर

दुनिया को दिखाना बाकी है

पर दुनिया कि क्या बात करें ,

खुद भी तो चलना बाकी है |

ये रात अभी भी बाकी है ,

दिन को भी निकलना बाकी है

सूरज का चमकना बाकी है , और

किरणों का बिखरना बाकी है… Continue

Added by Akshay Thakur " परब्रह्म " on November 20, 2010 at 4:08pm — 2 Comments

माँ की भेट चढाने दो ,

मुझे सपनो में जीने दो ,

हकीकत में कुछ कर नहीं पाता ,

झूठ मूठ झुंझलाता हूँ ,

लड़ मरने की चाहत मन में हैं ,

डर के मगर भाग जाता हूँ ,

जो कर नहीं पाता जाग जाग ,

वो सोकर मैं कर जाता हूँ ,

मुझे सपनो में जीने दो ,

आज सपने में डी राजा को ,

बहुत बहुत समझाया ,

बोला अरे ओ अनाड़ी,

ये क्या कर डाला ,

अरबो की गई हिंद के प्यारे ,

तूने कितना बनाया ,

झट से बोला वो मुझसे ,

गुरु जीवन सफल बनाया ,

जो हैं बाते वो ,

अब खुल कर हो जाने… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on November 20, 2010 at 1:30pm — 4 Comments

समंदर और सीप...

आज सवेरे

था मौसम का मिजाज़

भी कुछ खुशनुमा-सा,

थी हल्की सी धूप

और ज़रा सा एहसास भी ठंड का,

थी दफ़्तर की छुट्टी

तो आज मन ने लगाई अपनी अर्ज़ी

इस मौसम का लुत्फ़ उठाएँ

समंदर किनारे सैर कर आएँ I



कंधे पर एक दरी उठाए

हाथ में लिए एक किताब

पहुँचा किनारे पर समंदर के,

तो देखा मैंने,

था आज समंदर

कुछ उदास,

खुद में खोया

चुपचाप

हो जैसे खुद से नाराज़ I



क़तरा क़तरा जुटाकर हिम्मत

थामे लहरों का हाथ

रखा… Continue

Added by Veerendra Jain on November 20, 2010 at 12:32pm — 2 Comments

कविता --" टूटा दिल"

कैसे तुम्हें बताऊँ मैं जो टूटा मेरा दिल है
खाते तरस यदि जानते क्या मेरी मुश्किल है
मैंने सोचा मैं हूँ किश्ती तू मेरा साहिल है
पर न थी खबर मुझे कि तू ही मेरा कातिल है
तुझसे दिल लगा के मुझको क्या हुआ हासिल है
दिल पर जुल्म ढहाने वालों में तू ही शामिल है
जान न पाया था तुझको मैं तू न मेरे काबिल है
मेरी जिन्दगी में अब चरों तरफ गमों की ही महफ़िल है
अब होश मुझे जब आया खुद का तो आंख मेरी बोझिल है
देर से सही अब सोच रहा हूँ कि कहाँ मेरी मंजिल है

Added by Ajay Singh on November 20, 2010 at 11:47am — 2 Comments

धान के कटोरे में हिन्दुस्तान

वर्तमान दौर में युवा कार्पोरेट जगत में भविष्य तलाश रहे है और कृषि प्रधान देश में खेती किसानी को दोयम दर्जे का कार्य समझा जा रहा है, वहीं एक युवा किसान ऐसा भी है, जिसने तमाम डिग्रियां हासिल करने के बाद भी कृषि कार्य को अपना जाॅब बनाकर पिछले 8 वर्षो से नई पद्धति से खेती करते हुए नई मिसाल पेश की है। इस युवा किसान ने इस वर्ष धान की फसल में हिन्दुस्तान व छत्तीसगढ़ का नक्शा उकेरा है, जिसे देखने के बाद लोग उनकी तारीफों के पुलिंदे बांधते नहीं थक रहे हैं।

कृषि क्षेत्र में यह अनोखा कारनामा जिला… Continue

Added by rajkumar sahu on November 20, 2010 at 10:29am — No Comments

क्यों चुप हैं प्रधानमंत्री ?

भारत में वैसे तो भ्रष्टाचार की जड़ें एक अरसे से गहरी हैं, मगर बीते एक दशक के दौरान इस बीमारी ने हर तबके को अपने चपेट में ले लिया है। भ्रष्टाचार को लेकर यदि सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करना पड़े कि क्यों ना, किसी काम के एवज में रिश्वत की राशि तय कर दी जाए, जिससे यह कार्य अंध कोठरी में न चले। सुप्रीम कोर्ट का सीधा आशय यही था कि देश में भ्रष्टाचार पूरे तंत्र में हावी हो गया है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो देश में मुश्किल हालात उत्पन्न हो जाएंगे।

इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले में तीन प्रकरण लोगों के… Continue

Added by rajkumar sahu on November 20, 2010 at 9:22am — No Comments

सत्य

राजा सत्यकेतु की नींद मे व्यवधान पड़ा तो वे जग गये.अंधेरे मे देखने की कोशिश की तो एक सजी धजी अपरिचित महिला को महल से बाहर जाते देखा. पूछने पर उसने बताया,"मै इस राज्य की भाग्यलक्ष्मी हूँ.मै इस राज्य को त्याग कर जा रही हूँ.

राजा ने कारण पूछा तो भाग्यलक्ष्मी ने उत्तर दिया,"जिस राजा के राज्य मे धन का सम्मान नही होता मै वहाँ नही रहती".राजा ने चूंकि उन दिनो गरीबों, अपाहिजों और असमर्थों के लाभार्थ अपने खजाने खोल रक्खे थे और भाग्य लक्ष्मी उसे अपव्यय और अपना अपमान समझती थी,अतः राजा के रोकने और…
Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on November 19, 2010 at 11:00pm — 2 Comments

महक उठेगी रात की रानी



महक उठेगी रात की रानी



तेरी वेणी में सज कर ही.



चंदनिया शीतल हो गी पर



तेरी काया से लग कर ही .











सुमन सुशोभित हों उप वन में



तेरे आँचल के छूते ही



मानस तल पर विविध छटाएं



बिखरें तुम को छू पल भर ही .







मन मयूर करे नृत्य सुहाना



पुलकित होता हर्षाता है



जब छाते हैं कुंतल



बस तेरे मुख के नभ पर…
Continue

Added by DEEP ZIRVI on November 19, 2010 at 9:40pm — 2 Comments

तुम और तुम्हारी यादें

तुम और तुम्हारी यादें .. दिल से जाती ही नहीं ...

कई बार चाहा तुम चले जाओ..

मेरे दिल से .. मेरे दिमाग से ...



हर मुमकिन कोशिश कर के देख लिया ..

पर नाकाम रहे ...

कभी कभी सोचते हैं ..ऐसा क्या है हमारे बीच ...

जिसने हमें बांध कर रक्खा है ..

हमारा तो कोई रिश्ता भी नहीं ..



फिर क्या है ये ...?

"लेकिन नहीं" हैं न ..हमारे बीच एक सम्बन्ध ..

एहसास का सम्बन्ध ..

ये क्या है ..नहीं बता सकती मैं ..

एहसास को शब्दों में नहीं बाँध सकती मैं… Continue

Added by Anita Maurya on November 19, 2010 at 6:32pm — 17 Comments

प्यार चाहिए ( बाल दिवस सप्ताह पर विशेष )

हम बच्चों को आप बड़ों का प्यार चाहिए.

हमें भी फूलने- फलने का आधार चाहिए.



हम भी फूल इसी बगिया के, फिर बहार से क्यों वंचित हैं?

देश के हम भी नौनिहाल हैं, फिर दुलार से क्यों वंचित हैं?



हमें भी खुलकर हँसने का अधिकार चाहिए.

हमें भी फूलने - फलने का आधार चाहिए.



उस समाज का क्या मतलब, जहाँ हम अनपढ़ रह जाते हैं?

उस किताब की क्या कीमत, जिसको हम पढ़ नहीं पाते हैं?



हम सब को भी शिक्षा का सिंगार चाहिए.

हमें भी फूलने -फलने का आधार… Continue

Added by satish mapatpuri on November 19, 2010 at 3:30pm — 2 Comments

राखी का इन्साफ

वाह री राखी सावंत

कर दिया तूने तंग

ऐसे चिल्लाती हो जैसे

लड़ रही हो जंग

सच बतलाएं मज़ा न आया

बेशक तूने नाम कमाया

देख तिहारी नौटंकी

हुई जाए अखियाँ बंद

नारी हो कुछ शर्म करो

कुदरत के कहर से डरो

इतना चीखना चिल्लाना

एक मर्द को नामर्द बतलाना

कहाँ से इतना ज्ञान पा लिया

हम देख के रह गए दंग

खुद भड़कीले वस्त्र धारणी

उंगली उठाती दूजों पर

राखी के इन्साफ में दिखता

केवल अश्लीलता का रंग



दीपक शर्मा… Continue

Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 19, 2010 at 3:00pm — 1 Comment


प्रधान संपादक
संतान (लघुकथा)

मैं तकरीबन २० साल के बाद विदेश से अपने शहर लौटा था ! बाज़ार में घूमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला लगाये एक बूढे पर जा टिकीं, बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था ! लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ ! मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही , उसके चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था कि उसने मुझे पहचान लिया था ! काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई ! जब मैं विदेश गया… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on November 19, 2010 at 2:49pm — 35 Comments

तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा

तम से लड़ता रहा, दीप जलता रहा



एक, नन्हा सा दिया,

बस ठान बैठा, मन में हठ

अंधियार, मैं रहने न दूं,

मैं ही अकेला, लूं निपट



मन में सुदृढ़ संकल्प ले

जलने लगा वो अनवरत,

संत्रास के झोकों ने घेरा

जान दुर्वल, लघु, विनत



दूसरा आकर जुड़ा,

देख उसको थका हारा

धन्य समझूं, मैं स्वयं को

जल मरूं, पर दूं सहारा



इस तरह जुड़ते गए,

और श्रृंखला बनती गयी

निष्काम,परहित काम आयें

भावना पलती गयी



एक होता…
Continue

Added by Shriprakash shukla on November 19, 2010 at 2:00pm — 5 Comments

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