- ईमान
---
-नहीं,वह नहीं आता अब।
-नहीं आतता या मना किया तूने?
-हाँ, मैंने ही मना किया।
-क्यूँ?
-क्या मतलब?
-अरे! आते-जाते रहता तो कुछ भेद पता चलता रहता।
-क्या?
-सत्ता पक्ष से हैं न। अंदर की बातें,और क्या?
-पर मुझे उससे क्या?
-मुझे तो फायदा होता न री करमजली।
-सही कहा तुमने ---करमजली हूँ मैं।
-बात मत पकड़ री छमिया! आजकल कुर्सी सुगबुगा रही है, उलट-फेर की संभावना है।
-तो फिर?
-आने दे मुंडे मौलवी को।राज पता…
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Added by Manan Kumar singh on January 2, 2018 at 10:30pm —
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मैं ,मैं हूँ।समझी ,कि नहीं?
-और मैं क्या हूँ,पता है?
-जरूर,पर हवाला मेरा ही दिया जाता है,तेरा नहीं।
-वो बात दीगर है।
-सच है।
-है,पर दिखने और होने में फर्क होता है।
-मतलब?
-तू समझता है।
-अरी, मेरे बिना तो सरकारें तक नहीं चलतीं, हिल जाती हैं।
-वही तो।तू पाला बदलता रहता है,मैं तिलमिलाती रहती हूँ।
-तो तुझे क्यों मलाल होता है?
-क्योंकि तू भौतिकता का कायल हो सकता है,हो भी जाता है।
-और तू?
-मैं तो भाव निरूपित करती हूँ।भाववाचक हूँ',विश्वसनीयता…
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Added by Manan Kumar singh on December 31, 2017 at 12:42pm —
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-बस जरा बर्त्तन पटक देती हूँ,वे समझ जाते हैं।
-कि तू गुस्से में है?
-और क्या?
-तू भी न।
-तू भी क्या री?रातभर जगाते हैं।बर्त्तन मेरे,सुबह मेरी।
-पर मेरा काम तो इस तरह पटकने-झटकने से नहीं चलता है न।
-क्यूँ?
-वो सुन नहीं सकते री।
-तो फिर?
-क्या करूँ,मुझे तो बेलन ही भाँजना पड़ता है।
-धत्त तेरी!
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on December 27, 2017 at 10:04am —
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कार्यकर्त्ता:मंत्रीजी से मिलना है।
पीए:नहीं मिल सकते।
कार्यकर्त्ता:क्यूँ?
पीए:माननीय अभी (......से ) बेगुनाही का प्रमाण पत्र खरीदने गये हैं।
का.:क्या?
पीए:अरे विरिधियों ने घोटाले में फँसा दिया है न।
का.:अच्छा्! तो डिग्री का मामला है।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on December 25, 2017 at 12:47pm —
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'देख लूँगा स्साले को।'
-अरे क्या हुआ?कुछ बोलोगे भी?
-हम कालाबाजारी वाला केस जीत गये।
-बल्ले-बल्ले रे भइये।इ तो नच बलिये हो गवा।
-बाकिर वकीलवा पेंच फँसा रहल बा नु।
-उ का?
-उहे फ़ीस के लफड़ा।
-उ त सब फरिआइये गइल रहे।सात बरिस के फ़ीस एकमुश्ते देवे के रहे।
-हँ भाई, पूरे अठाईस गो सुनवाई भइल बा।
-त अठाइस हजार रुपिया भइल,आउर का?दियाई उनके।
-ना नु भाई,उ अब अबहीं के हिसाब से फ़ीस जोड़ ता। चार हजार रुपैया फी पेशी।
-बात त हजारे रुपया पेशी के भइल रहे।उ पगलाइल बा…
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Added by Manan Kumar singh on December 23, 2017 at 5:52am —
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'उन्होंने एक लघु कथा लिखी।फेसबुक पर आ गयी।हठात उसपर मेरी नजर पड़ी। शीर्षक,समापन सब मेरे थे।बापू की मूर्त्ति के नीचे ही वार्त्तालाप हुआ था।मैं चकित था।सुबह मैंने लिखी,अपराह्न तक दोस्त ने दुहरा दी।बापू की जयकार बोलने का इससे बढ़िया दूसरा तरीका शायद ही हो।'---
मधुकर जी एक ही साँस में इतना सब कुछ बोल गए।…
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Added by Manan Kumar singh on December 17, 2017 at 8:00pm —
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Added by Manan Kumar singh on December 10, 2017 at 11:52am —
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हर दफा कुछ बात रह जाती है
रेत वाली भीत ढ़ह जाती है।1
था गुमां अपना परिंदों पर भी
इक चिड़ी गुलाम कह जाती है।2
जब्त सारी ख्वाहिशें हैं,कह तो
एक भी कोई निबह जाती है?3
साँझ उतरे जब गगन का रूप ले
नज्र यह प्यासी उछह जाती है।4
चाँद मुट्ठी में नहीं आता अब
चाँदनी अंतर को' मह जाती है।5
इक लहर आसार है साहिल का
क्यूँ हवा हर बार बह जाती है।6
लाख सितम बरपा' लो,सालो भी,
यह जमीं लाचार सह जाती है।7
"मौलिक व…
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Added by Manan Kumar singh on November 3, 2017 at 10:13am —
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रात अपनी जवानी पर थी,चाँद अपने शबाब की ऊँचाई पर।साँसों में असहास कायम था।झक शीतल रोशनी में रात सिहरती,शरमाती।चाँद खिलखिलाता,और खिलखिलाता। यह क्रम ज्यादा देर तक नहीं चला।अरे यह क्या!वक्त की निस्तब्धता भंग होती -सी लगी। कहीं से किसी अज्ञात पक्षी ने पंख फड़फड़ाये।शायद अकस्मात् नींद से जगा हो।कहीं नींद में ही सबेरा न हो जाये,इसलिए आकुल हो शायद। रात अपना काला दुपट्टा समेटने लगी।चाँद को यह नागवार लगा।उसकी चाहत अभी परवान चढ़ी ही कहाँ!सबेरा होने की शुरुआत इतनी जल्दी क्यूँ हो जाती है भला?बिलकुल सुख के…
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Added by Manan Kumar singh on November 1, 2017 at 9:58am —
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2122 2122 212
बाअदब सब हाथ जोड़े हैं खड़े
झाड़ते तकरीर बिगड़े मनचले।1
मामला लंबा चलेगा,सोचकर
कातिलों ने साक्ष्य ही निपटा दिए।2
फिर गवाहों को यहाँ ढूँढा गया,
जो जहाँ जैसे मिले,कटते रहे।3
थे विचाराधीन जो भी कैद में
देखिए अब तो बरी वे हो चले।4
फिर सिसकती आत्मा,कहने लगी---
'कब तलक मैं यूँ रहूँगी मुँह सिए?'5
आँख का अंधा हकीकत तोलता
है गुमां निर्दोष को फाँसी न दे।6
दे चुका अपनी गवाही आदमी
उज्र लाशों…
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Added by Manan Kumar singh on October 20, 2017 at 6:59pm —
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22 22 22 2
दीप जले, आभा निखरे
हर्षित हो जन- मन मचले।
नेह-निरूपित सुप्त मृदा
ज्योतित करती नेह पिए।
बिखरें किरणें,भेद कहाँ?
जलते हैं अनिमेष दिये।
कौन नियामित कर सकता?
ज्योति-कलश के कौन ठिये।
आज उझकती रश्मि रथी
किसने उसको पंख दिये?
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 19, 2017 at 12:11pm —
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2122 2122 2122
आग जलने पर धुआँ होगा बखूबी
रोशनी की हो नहीं लेकिन मनाही।1
क्यूँ अँधेरा साथ चलता है दियों के
पीटते हैं ढ़ोल की जाती मुनादी।2
गुल खिलाते हैं अँधेरे रोशनी में
और मिलती खूब उनको वाहवाही।3
आ गए कुछ दूर इतना मान भी लें
लग रहा है,हो रही अब भी दिहाड़ी।4
बँट गये हम 'वाद' के 'अवसाद' में बस
और जूठन छानती भूखी 'बुलाकी'।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 16, 2017 at 9:07am —
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2122 2122
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इक गजल की शाम हो तुम
धड़कनें गुमनाम हो तुम।1
ख्वाहिशों की संगिनी हो
नींद हो ,आराम हो तुम।2
ढूँढ़ता तब से रहा मैं
ख्वाहिशे-आवाम हो तुम।3
घोल दे जो कान में रस
वह सहज-सा नाम हो तुम।4
राधिका हो तुम किशन की
बीन मेरी,'साम' हो तुम।5
टूटता है जब मनोरथ
उस घड़ी में काम हो तुम।6
भागता फिरता बटोही
बस सुफल इक धाम हो तुम।7
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 10, 2017 at 7:30pm —
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2122 2122 2122 2
रेत- कण से इक घरौंदा मैं बनाता हूँ
अनछुए सब ख्वाब फिर उसमें सजाता हूँ।1
कोशिशें कितनी हुई हैं चाँद पाने की
हर दफा बिखरा पसीने में नहाता हूँ।2
हर लहर आभार कहकर लौट जाती है
प्यास का मारा हुआ मैं तिलमिलाता हूँ।3
बादलों की बदगुमानी का रहा कायल
बूँद पड़ जाये जरा नजरें गड़ाता हूँ।4
कह गयी बदली हवा अब रुत बदलनी है
मैं लुटा गठरी,हमेशा ही लजाता हूँ।5
सच कहा जाता नहीं, सब लोग कहते हैं,
आँच अंतर की…
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Added by Manan Kumar singh on October 3, 2017 at 8:56am —
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2122 2122 212
कह रहे,घर को सजाया जा रहा
लग रहा सच को दबाया जा रहा।1
खून का धब्बा पड़ा गहरा बहुत
अब पसीने से मिटाया जा रहा।2
हो गयी पहली रपट रद्दी वहाँ
जाँच दल फिर से लगाया जा रहा।3
आदमी अब आदमी से तंग है
'नाम' ले-लेकर डराया जा रहा।4
मुजरिमों की हो गयी बल्ले यहाँ
बेगुनाहों को फँसाया जा रहा।5
मर्सिया माकूल होता ,क्या कहूँ?
गीत परिणय का सुनाया जा रहा।6
घिर गयी काली घटा, कहते सभी-
अब सबेरा को…
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Added by Manan Kumar singh on September 24, 2017 at 11:00am —
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2122 2122 212
आज तो हर शख्स इतना पूछता
हो गया क्या कत्ल? दिखता उस्तुरा।1
चंद घड़ियों में खबर देती रुला
मौत का मंजर यही हासिल हुआ।2
'वह' खड़ा है जुर्म के इकरार में
लग रहा अब यह जरा-सा अटपटा।3
जानते हैं लोग लगता मर्म भी
भेद कितना चुप्पियों में है छिपा!4
न्याय का डंडा खुदाया मौन क्यूँ?
देखना है,सच कहाँ तक साधता।5
चोर बन बैठे सिपाही आजकल
हो गया कितना कठिन यह भाँपना?6
रोशनी का दान भी व्यापार…
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Added by Manan Kumar singh on September 17, 2017 at 8:00am —
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हिंदी की हकीकत
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विभाग(संस्था) में राजभाषा के कार्यान्वयन की समीक्षा का कार्यक्रम चल रहा था। बुलाया तो सभी अधीनस्थ विभागों के आला अधिकारियों को गया था।पर कुछ विभागों से जरा उच्च पदस्थ अधिकारियों को छोड़ दिया जाय,तो शेष विभागों से कुछ कम वरीय अधिकारी ही उपस्थित हुए थे।किसी विभाग का कार्यकलाप पूर्व में रिपोर्ट किये गए स्तर से बेहतर था,तो किसीका ले देकर यथावत।यथोचित टिप्पणियाँ प्रेषित की जा रही थीं।राजभाषा में किये गए अच्छे कार्यों की सराहना के शब्द उच्चरित हो रहे थे।यथाक्रम एक विभाग…
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Added by Manan Kumar singh on September 14, 2017 at 7:56am —
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22 22 22 22
तंज कसे फिर हाथ हिलाये।
लगता खुद पर ही पछताये।1
हाथ मिलाना,ख़ंजर लेकर,
यह चीनी लहजा कहलाये।2
बेमतलब का घुसपैठी बन
अरुणाचल पर आँख गड़ाये।3
बासठ बासठ करता रहता
सतरह में वह पीठ दिखाये।4
भारत के अंदर वह अपने
देश बने सामां बिकवाये।5
'आतंकी सब ढ़ेर करेंगे',
कह लेता,फिर फिर सहलाये।6
पाँच दिशा के दोस्त बुलाकर(ब्रिक देश)
अपना ही बाजा बजवाये।7
भूल गया सब चाल-बिसातें
पाँच…
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Added by Manan Kumar singh on September 9, 2017 at 12:03pm —
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22 22 22 22
मैंने दिल की बात कही है
उनको लगती खूब खरी है।1
मंदिर-मंदिर भटके हैं सब
बाबाओं की धूम मची है।2
दाढ़ी ने है नाच नचाया
जब-जब लक्ष्मी हाथ लगी है।3
कितने डेरे उजड़े अबतक
डेरों की सरकार चली है।4
भूखे-नंगे बढ़ते जाते
भक्तों की बारात सजी है।5
चुनकर जाते जो संसद में
लगता उनकी साँस टँगी है।6
निर्वाचक ऊँघते, परते हैं
जात-धरम की खाट पड़ी है।7
न्याय बड़ा डंडाधारी है
ले-देकर यह आस…
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Added by Manan Kumar singh on September 3, 2017 at 5:57pm —
8 Comments
22 22 22 22
ताप मसीहे हरने आते
प्यार दिलों में भरने आते।1
फूल टपकते झोली-झोली
बेमौसम वे मरने आते।2
पाँव पखाड़ेंगे बाबा के
नेता जी बस धरने आते।3
पाँच बरस अहिवात बनें बस
नेता नर को वरने आते।4
सूखी प्यासी रहती धरती
बादल प्लावित करने आते।5
हार गये जो दाँव जुआरी
जन-मंडल में तरने आते।6
बिन पानी के जो बदरा,वे
बेमतलब के टरने आते।7
@मौलिक व अप्रकाशित
Added by Manan Kumar singh on September 1, 2017 at 10:00am —
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