फूल जैसे किसी बच्चे की झलक है मुझ मे,
कितने मासूम ख्यालों की महक है मुझ में !
रोज़ चलता हूँ हजारों किलोमीटर लेकिन,
खत्म होती ही नहीं कैसी सड़क है मुझ में !
मैं उफ़क हूँ मेरा सूरज से है रिश्ता गहरा,
एक दो रंग नही सारी धनक है मुझ में !
वो मुहब्बत वो निगाहें वो छलकते आँसू,
चंद यादों की अभी बाक़ी खनक है मुझ में
चाँद से कह दो हिकारत से ना देखे मुझ को,
माना जुगनू हूँ मगर अपनी चमक है मुझ में !
Added by SYED BASEERUL HASAN WAFA NAQVI on September 30, 2010 at 7:30pm —
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काँटों की रंजिश फूलों से निकाला ना कीजिये.
किसी बेगुनाह पे कीचड़ उछाला ना कीजिये.
किस्मत में लिखा अँधेरा, तो अँधेरा ही मिलेगा,
घर किसी और का जला के उज्जाला ना कीजिये.
दूसरों से मुहब्बत की, उम्मीद करना है जायज,
मगर नफरत अपने सिने में भी पाला ना कीजिये.
इंसानियत से बढ़ कर कोई भी मजहब नहीं होता,
मजहब से कभी इंसानियत को खंगाला ना कीजिये.
भूखी है सारी दुनिया प्रेम और अपनापन की,
होंठों पे मीठे बोल खातिर ताला ना…
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Added by Noorain Ansari on September 30, 2010 at 3:23pm —
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वह बोझिल मन लिए
उदास उदास
निहार रहा अपनी कुदरत
खड़ा क्षितिज के पास
मिल कर भी
नहीं मिलते जहाँ
दो जहां
अपनी अपनी आस्था की धरा पे
कायम हैं उसके बनाये इंसान
हो गए हैं जिनके मन प्रेम विहीन
बिसरा दिए हैं जिन्होंने दुनिया और दीं
इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशाँ
वही नही बता सकता
उन्हें में कौन है
राम और कौन रहमान
बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत,मलिन चेहरे,बिखरे केश
सुर्ख…
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Added by rajni chhabra on September 30, 2010 at 3:00pm —
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कहाँ तक
कहाँ तक संजोउं मैं सपने सुहाने
कहाँ तक बचाऊ मैं सपने सुहाने
अपना ही नाम तक भूलने लगा हूँ
कहाँ तक छुपाऊं मैं सपने सुहाने
क्या हूँ मैं किसको पता
क्या था मैं किसको पता
सबको दिखेगा बस मेरा आज
दिखाऊं किसे ज़ख्म दिल के पुराने
कल तक तो 'दीपक' था 'कुल्लुवी' है आज
किसे क्या पता ,है आवाद या बर्वाद
कोई भूल चुका होगा किसी को याद होगा
किसे क्या पता अब तो हम हैं दीवाने
दीपक शर्मा कुल्लुवी
०९१२३६२११४८६
Added by Deepak Sharma Kuluvi on September 30, 2010 at 11:05am —
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सुरज निकला है पुरब की ओर,
बिखरी है रोशनी चारो ओर।
आसमान के चाँद-तारे छिप गये,
जमीन के सारे नजारे दिख गये।।
मुर्गे ने बांग सबको सुना दिया,
हो गया सवेरा सबको बता दिया।
लोगों ने अपना बसेरा छोड़ दिया,
लगे काम पर कह सेबेरा हो गया।।
चिड़ियों ने गाना शुरू किया,
मिठे स्वर को फैलाना शुरू किया।
निकली चिड़ियाँ खुले आसमान में,
लग गयी भोजन की तलाश में।।
फुलों ने अपना खोला बदन,
लगीं फैलाने मनोहर पवन।
खुशबु ने इसके किया है…
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Added by Deepak Kumar on September 30, 2010 at 10:30am —
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घरौंदा कहूँ या सराय :: ©
प्रेम सागर से झील की ओर जाता हुआ ...
जैसे छोटी सी दुनिया बसाना चाहता हो ...
छोटे सपनों सा घरौंदा बसाना चाहता हो ...
कोई आये कह दे मुझे रह लूँ बन पथिक ...
कुछ समय के लिए , तेरे इस आसरे में ...
सोच रहा हूँ अब इसे घरौंदा कहूँ या सराय ...
आना है तुम्हें फिर से चले जाने के लिए ...
तुम न…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 29, 2010 at 7:30pm —
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लोकगीत:
पोछो हमारी कार.....
संजीव 'सलिल'
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ, ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो न हमरी कार, ओ बलमा! पोछो न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 29, 2010 at 7:00pm —
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ग़मों की धूप से तू उम्र भर रहे महफ़ूज़,
ख़ुशी की छाँव हमेशा तुझे नसीब रहे ।
रहे जहाँ भी तू ऐ दोस्त ये दुआ है मेरी,
मसर्रतों का ख़ज़ाना तेरे क़रीब रहे।
तू कामयाब हो हर इम्तिहाँ में जीवन के,
तेरे कमाल का क़ायल तेरा रक़ीब रहे ।
तू राह-ए-हक़ पे हो ता-उम्र इब्न-ए-मरियम सा,
बला से तेरी कोई मुन्तज़र सलीब रहे ।
नहीं हो एक भी दुश्मन तेरा ज़माने में,
मिले जो तुझसे वो बन के तेरा हबीब रहे ।
न होगा ग़म मुझे मरने का फिर कोई ’शम्सी’,
जो मेरे सामने तुझ-सा कोई तबीब रहे ।
Added by moin shamsi on September 29, 2010 at 5:54pm —
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ग़ज़ल
माँ के आँचल सा खिलता है गुलमोहर,
मुझसे अपनों सा मिलता है गुलमोहर.
तुम अपने रेखा चित्रों में रंग भरो,
मेरे सपनों में हिलता है गुलमोहर.
खुशबू वाले चादर तकिये और गिलाफ ,
बूढ़ी आँखों से सिलता है गुलमोहर.
चौड़ी होती सड़कों से खुश होते हम,
बची हुई साँसे गिनता है गुलमोहर.
भक्काटा* के शोर में छोटे बच्चे सा ,
अपने मांझे को ढिलता है गुलमोहर .
चटख चाँदनी जब करती सोलह सिंगार ,
झोली में तारे बिनता है…
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Added by Abhinav Arun on September 29, 2010 at 4:00pm —
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ग़ज़ल
आ रहा जब तक पतन से अर्थ है,
आचरण पर बहस करना व्यर्थ है.
आपके चेहरे पे गड्ढे शेष हैं,
आईने पर धूल की एक पर्त है.
चौक पर कबिरा मुनादी कर रहा,
आइये देखें क्या उसकी शर्त है.
सत्य आँखों की परिधि से दूर था ,
आज न्यायालय में जीता तर्क है.
मार्क्स गाँधी गोर्की को भूलकर ,
पीढी क्या जानेगी क्या संघर्ष है .
क़त्ल भाषा धर्म जाति के सबब,
सभ्यता का क्या यही उत्कर्ष है.
दोष अपना मेरे ऊपर मढ़ गया…
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Added by Abhinav Arun on September 29, 2010 at 3:30pm —
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जब तक अथ से इति तक
ना हो सब कुछ ठीक ठाक ,
सुख की पीड़ा से अच्छा है
पीड़ा का सुख उठाना.
जब तक सुनी ना जाएँ आवाज़े
सिलने वाले हो हज़ार सूइयों वाले
और होंठों पर पहरे पड़े हों ,
चुप्प रहने से अच्छा है,
शब्दों की अलगनी पर खुद टंग जाना .
जब तक जले न पचास तीलियों वाली माचिस
या ख़ाक न हो जाएँ सडांध लिए मुद्दे
हल वाले हांथों का बुरा हो हाल
मेंड़ पर बैठने से अच्छा है बीज बन जाना .
जब तक मदारी का चलता हो खेल
और एक से एक मंतर हो रहें हो…
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Added by Abhinav Arun on September 29, 2010 at 3:00pm —
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लिखने वाला लिख दिया है करले तू तैयारी ,
गिन चुन के बचे हैं बन्दे अब तो दिन चारी ,
धर्म कर्म तू कर ले बन्दे ले आगे की सुधारी ,
बच जायेगा इस जहाँ से कर ले सत्य सवारी ,
लिखने वाला लिख दिया है करले तू तैयारी ,
नाम काम ना आएगा जब भेजेगा ओ सवारी ,
बोल ना तुम पाओगे सन्देश भेजेगा अगरी ,
आँख की ज्योति कम हुई तुने चस्मा लगली ,
बाल सफ़ेद जब दिखा बन्दे मेहँदी से रंगवाली ,
लिखने वाला लिख दिया है करले तू तैयारी ,
एक ही रास्ता हैं इस जग में ओ हैं पालनहारी…
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Added by Rash Bihari Ravi on September 29, 2010 at 2:49pm —
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भूलना मत दीन और ईमान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
अमन से सुन्दर है कुछ दूजा नहीं.
प्रेम से बढ़कर कोई पूजा नहीं.
बांटना क्या राम और रहमान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
प्यार और खुशियाँ ही बसती थी जहाँ.
हिन्द वो इकबाल का खोया कहाँ.
किसने जख्मी कर दिया मुस्कान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान को.
स्वार्थ से हरगिज़ ना तौलो प्यार को.
दुःख मे पुरी बदलो ना व्यवहार को.
थाम लो तुम गिर रहे इंसान को.
या खुदा दे अक्ल हम इन्सान…
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Added by satish mapatpuri on September 29, 2010 at 2:43pm —
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बना ब्लू लेन
कामनवेल्थ गेम्स
लगता जाम
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घर से निकले
ट्रैफिक में फँसे
अब इंतजार
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आया सावन
बरस जाता पानी
टपकी छत
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खिलती धूप
रौशनी में नहाते
झूमते पेड़
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आया सावन
बरस जाता पानी
टपकी छत
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खिलती धूप
रौशनी में नहाते
झूमते पेड़
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साँझ की बेला
पेड़ों के…
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Added by Neelam Upadhyaya on September 29, 2010 at 11:40am —
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यूँ तो बस एक रवायत है दोस्ती !
मगर खुदा की इबादत है दोस्ती !
दिल दरिया में जैसे एक कंकर आ गिरा,
कुछ ऐसी ही तो शरारत है दोस्ती !
लोग ढूँढ़ते हैं इस में नफा ही नफा,
उनके लिए बस कोई तिजारत है दोस्ती !
इश्क क्या आशिक क्या, हम क्या जाने,
हमारी तो इकलौती मोहब्बत है दोस्ती !
दोस्तों से धोखे बहुत खाए मगर,
क्या करें हमारी तो आदत है दोस्ती !
तू बस हमारा ही क्यूँ इम्तिहान लेती है,
तुझ से बस इतनी सी शिकायत है दोस्ती !
Added by Archana Sinha on September 29, 2010 at 12:30am —
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सलुम्बर की वह काव्य संध्या
आप हाड़ी रानी की कथा से कितने परिचित हैं , नहीं जानती .. मैं स्वयं भी कितना जानती थी , इस रानी को ! लेकिन इस नाम से पहला परिचय झुंझुनू शहर में जोशी अंकल द्वारा हुआ था . उन दिनों हम कक्षा नौ में थे . पापा की पोस्टिंग इस शहर में हुई ही थी. नए मित्र , नया परिवेश . मन में कई उलझनें थीं. जोशी अंकल हमारे पड़ोसी थे. बेटियां तो उनकी छोटी -छोटी थीं पर अंकल खासे बुज़ुर्ग लगते थे .. उनमें कुछ ऐसा था कि देखते ही…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 28, 2010 at 9:21pm —
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हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई,
आपस में सब भाई-भाई ।
बहकावे में आ जाते हैं,
हम में है बस यही बुराई ।
अब नहीं बहकेंगे हम भईया,
हम ने है ये क़सम उठाई ।
मिलजुल कर हम सदा रहेंगे,
हमें नहीं करनी है लड़ाई ।
देश करेगा ख़ूब तरक़्क़ी,
हर घर से आवाज़ ये आई ।
Added by moin shamsi on September 28, 2010 at 3:30pm —
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हास्य कविता:
कान बनाम नाक
संजीव 'सलिल'
*
शिक्षक खींचे छात्र के साधिकार क्यों कान?
कहा नाक ने- 'मानते क्यों अछूत श्रीमान?
क्यों अछूत श्रीमान, न क्यों कर मुझे खींचते?
क्यों कानों को लाड़-क्रोध से आप मींचते??
शिक्षक बोला- "छात्र की अगर खींच दूँ नाक,
कौन करेगा साफ़ यदि बह आयेगी नाक?
बह आयेगी नाक, नाक पर मक्खी बैठे.
ऊँची नाक हुई नीची, तो हुए फजीते..
नाक एक है कान दो, बहुमत का है राज.
जिसकी संख्या अधिक हो, सजे शीश…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 28, 2010 at 10:30am —
1 Comment
मेरा इक छोटा सा सपना
कब होगा वो पूरा अपना
देखो ये बरसाती मौसम
छत का मेरी टप-टप करना
बचपन की सब बातें मुझको
लगती मुझको जैसे सपना
राही भटका राहों में है
कोइ घट न जाए घटना
लम्बी तानू सोना चाहूं
मेरा इक छोटा सा सपना
Added by abhinav on September 27, 2010 at 7:30pm —
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तुम चले क्यों गये
मुझको रस्ता दिखा के, मेरी मन्ज़िल बता के
तुम चले क्यों गये
तुमने जीने का अन्दाज़ मुझको दिया
ज़िन्दगी का नया साज़ मुझको दिया
मैं तो मायूस ही हो गया था, मगर
इक भरोसा-ए-परवाज़ मुझको दिया.
फिर कहो तो भला
मेरी क्या थी ख़ता
मेरे दिल में समा के, मुझे अपना बना के
तुम चले क्यों गये
साथ तुम थे तो इक हौसला था जवाँ
जोश रग-रग में लेता था अंगड़ाइयाँ
मन उमंगों से लबरेज़ था उन दिनों
मिट चुका था मेरे ग़म का…
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Added by moin shamsi on September 27, 2010 at 5:56pm —
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