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ग़ज़ल मनोज अहसास

1222×4

किसी की याद में ज़ख्मों को दिल मे पालते रहना,

तबाही का ही रस्ता है यूँ शोलों पर खड़े रहना।

न जाने कौन से पल में कलम गिर जाए हाथों से,

मगर तुम आखिरी पल तक ग़ज़ल के सामने रहना।

जहाँ पर शाम ढलती है वहाँ पर देखकर सोचा,

मेरी यादों में रहकर तुम यूँ ही मेरे बने रहना।

वो आएं या न आएं ये तो उनकी मर्जी है लेकिन,

मुहब्बत की है तो बस रास्ते को देखते रहना।

किसी सूरत भी मेरा दिल बहल सकता नहीं फिर…

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Added by मनोज अहसास on March 4, 2020 at 11:00pm — 1 Comment

ज़बान :

ज़बान :

बड़ी अजीब है ये दुनिया 

जाने कितने ताले लगाए फिरती है 

अपनी ज़बान  पर 

खूनी मंज़र चुपचाप सह जाती है 

हकीकत  में किसी के पास 

वो ज़बान  ही नहीं 

जो सच को बयाँ कर सके 

इसीलिये अक्सर लोग 

रूहानी आवाज़ को 

अपने अंदर ही दफ़्न कर लेते हैं 

घोंट देते हैं अहसासों का गला 

और छटपटाने देते हैं 

वेदना की व्याकुलता को 

किसी परकटे पंछी की तरह 

अंदर ही अंदर 

रूहानी परतों के…

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Added by Sushil Sarna on March 4, 2020 at 7:42pm — 2 Comments

होली के रंगों से फिर क्यों - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



जो दुनिया से तन्हा लड़कर प्यार बचाया करते हैं

वो ही  सच्चे  अर्थों  में   सन्सार  बचाया  करते हैं।१।

**

उन लोगों से ही तो  कायम  हर शय की ये रंगत है

जो पत्थर दिल दुनिया में जलधार बचाया करते हैं।२।

**

तुम तो अपने सुख की खातिर खून को पानी करते हो

हम राख  की  ढेरी  में  देखो  अंगार  बचाया  करते हैं।३।

**

जो कहते हैं हम तो डूबे प्यार के रंगो में…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 4, 2020 at 7:30am — 5 Comments

समूची धरा बिन ये अंबर अधूरा है

समूची धरा बिन ये अंबर अधूरा है

ये जो है लड़की

हैं उसकी जो आँखे

हैं उनमें जो सपने

जागे से सपने

भागे से सपने…

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Added by amita tiwari on March 4, 2020 at 1:07am — 2 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : माँद (गणेश बाग़ी)

अतुकांत कविता : माँद

=============

क्या आपने कभी देखी है ?

सियार की माँद !

मैं बताता हूँ

क्या होती है माँद !

जमीन के अंदर

सियार बनाता है

सुरक्षित आशियाना

जिसे कहते हैं माँद

माँद से जुड़े होते है

छोटे-लंबे

कई सारे रास्ते

ताकि

जब कोई खतरा हो

तो उसका कुनबा

निकल सके सुरक्षित...

देश की न्याय प्रणाली भी है

उसी माँद की मानिंद

एक रास्ता बंद होता है

तो कई…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 3, 2020 at 7:59am — 4 Comments

झोल खाई हुई खुशी

झोल खाई हुई खुशी

तारों भरी रात, फैल रही चाँदनी

इठलाता पवन, मतवाला पवन

तरू-तरु के पात-पात पर

उमढ़-उमढ़ रहा उल्लास

मेरा मन क्यूँ उन्मन

क्यूँ इतना उदास…

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Added by vijay nikore on March 2, 2020 at 4:30am — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : आदमखोर (गणेश बाग़ी)

अतुकांत कविता : आदमखोर

==================

नुकीले दाँत

लंबे-लंबे नाखून

उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें

चार पैर

लंबी-सी जीभ

बेतरतीब बाल

भयानक चेहरा

बेडौल शरीर

डरावनी दहाड़ ?

नहीं-नहीं ...

वो ऐसा बिलकुल नहीं है

उसके पास हैं

मोतियों जैसे दाँत

तराशे हुए नाखून

खूबसूरत आँखें

दो पैर, दो हाथ

सामान्य-सी जीभ

सलोना चेहरा

सजे-सँवरे बाल

आकर्षक शरीर

मीठे बोल

किंतु... 

वो…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 1, 2020 at 11:18pm — 2 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास

122×8



मेरे साथ कोई ज़रा मुस्कुरा ले,

कलेजा बहुत भारी होने लगा है।

ये जीवन का रस्ता वहाँ आ गया है,

जहाँ हर किसी को मुझी से गिला है।



वो बचपन के साथी जो खाते थे कसमें,

रहेंगे सदा साथ जीवन डगर में।

कोई अपनी मंजिल पर तन्हा खड़ा है,

कोई जिंदगी के भंवर में फंसा है।



जो पाए हैं तुझको खुदी को मिटा कर,

वो पैगाम ए उल्फत ही देकर गए पर,

तेरा सबसे मिलना वो चेहरे बदल कर,

जमाने में झगड़े का जरिया बना है।



मुलाकात का कोई वादा… Continue

Added by मनोज अहसास on March 1, 2020 at 10:45pm — 4 Comments

कोई हो ही नहीं सकता (ग़ज़ल)

बह्र हज़ज मुसम्मन सालिम

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222 1222 1222 1222

सियासत में शरीफ़ इन्साँ कोई हो ही नहीं सकता

सियासतदान सा शैताँ कोई हो ही नहीं सकता

जो नफ़रत की दुकानों में है शफ़क़त ढूँढता फिरता

उस इन्साँ से बड़ा नादाँ कोई हो ही नहीं सकता

निकाला जा रहा है जो जनाज़ा ये सदाक़त का

तबाही का सिवा सामाँ कोई हो ही नहीं सकता

बिरादर को बिरादर से रफ़ाक़त अब नहीं बाक़ी

ये नुक़साँ से बड़ा नुक़साँ कोई हो ही नहीं…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 29, 2020 at 10:30pm — 6 Comments

किसी को कुछ नहीं होता

किसी को कुछ नहीं होता

तोता पंखी किरणों में

घिर कर

गिर कर

फिर से उठ कर

जो दिवाकर से दृष्ष्टि मिलाई

तो पलक को स्थिती समझ नहीं आयी

ऐसा ही होता है प्राय

मन ही खोता है प्राय

बाकी किसी को कुछ नहीं होता

किसी को भी



प्रचंड की आँख में झांकना

कोई दृष्टता है क्या

केवल मन उठता है

प्रश्न प्रश्न उठाता है

लावे की लावे से

मुलाकात…

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Added by amita tiwari on February 29, 2020 at 1:30am — 2 Comments

दिल्ली जलती है जलने दे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

**

कब कहता हूँ आम आदमी मुझको अपने पैसे दे

हो सकता है तुझ से  कुछ  तो क़ुर्बानी में रिश्ते दे।१।

**

दिल्ली जलती है जलने दे मुझे सियासत करने दे

हर नेता का ये कहना  है  कुछ तो कुर्सी फलने दे।२।

**

ये  लाशों  के  ढेर  हमेशा  सीढ़ी  बन  कर  उभरे  हैं

इनको मत रो इन पर मुझको पद की खातिर चढ़ने दे।३।

**

खूब सुरक्षा मुझे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 28, 2020 at 8:30am — 13 Comments

माइल नहीं हुआ (ग़ज़ल)

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

2 2 1 / 2 1 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2

ये दिल इबादतों पे तो माइल नहीं हुआ

मुनकिर न था मगर कभी क़ाइल नहीं हुआ

इसको बचा बचा के यूँ कब तक रखेंगे आप

वो दिल ही क्या जो इश्क़ में घाइल नहीं हुआ

ग़ैरत थी कुछ अना थी किया ज़ब्त उम्र भर

मैं तिश्नगी में जाम का साइल नहीं हुआ

दर्जा अदब का ऊँचा है मज़हब से जान लो

शाइर कभी भी वज्ह-ए-मसाइल नहीं हुआ

क्या क्या…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 27, 2020 at 11:12pm — 6 Comments


मुख्य प्रबंधक
दो शब्द दृश्य (गणेश जी बाग़ी)

प्रथम दृश्य : शांति

===========

माँ ने लगाया

चांटा...

मैं सह गयी,

पापा ने लगाया

थप्पड़..

मैं सह गयी,

भाई ने मारा

घूंसा..

मैं सह गयी,

घर से बाहर छेड़ते थे

आवारा लड़के

मैं चुप रही,

पति पीटता रहा

दारू पीकर

मैं चुप रही,

सास ससुर

अपने बेटे की

करते रहे तरफ़दारी

उसकी गलतियों पर भी

मैं चुप रही,

मैं सदैव चुप रही

ताकि बनी रहे

घर मे…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 26, 2020 at 10:57pm — 3 Comments

मुझे आज तुमसे कुछ कहना है

प्रिय, मुझे आज तुमसे कुछ कहना है ...

जानता है उल्लसित मन, मानता है मन

तुम बहुत, बहुत प्यार करती हो मुझसे

गोधूली-संध्या समय तुम्हारा अक्सर चले आना, 

गलें में बाहें, गालों पर चुम्बन, अपनत्व जताना

झंकृत हो उठता है मधुरतम पुरस्कृत मन-प्राण

मैं बैठा सोचता, सपने में भी कोई इतना अपना

आत्म-मंदिर में अपरिसीम मधुर संगीत बना

निज का साक्षात प्रतिबिम्ब बन सकता है कैसे

पलता है मेरी आँखों में प्रिय, यह प्यार…

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Added by vijay nikore on February 26, 2020 at 6:30pm — 4 Comments

आख़िर नुक़सान हमारा है

है करता कौन समाज ध्वस्त?

किसने माहौल बिगाड़ा है?

किसकी काली करतूतों से

यह देश धधकता सारा है?



चिल्लाते जो जनतन्त्र-तन्त्र

"जन" को ही बढ़कर मारा है

बरगला "अशिक्षित" लोगों को

शिक्षा से किया किनारा है



है अकरणीय कर्मों के वश

अब शहर सुलगता सारा है

विद्यालय की पवित्र धरण

बनती जा रही अखाड़ा है



विद्वेष भरें अपनों में ही

जनता की दौलत नष्ट करें

लेते बापू का नाम मगर, 

हिंसा का बजे नगाड़ा है



वह नहीं…

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Added by Usha Awasthi on February 26, 2020 at 8:30am — 2 Comments

मेरे ज़रूरी काम / अतुकांत कविता / चंद्रेश कुमार छतलानी

जिस रास्ते जाना नहीं

हर राही से उस रास्ते के बारे में पूछता जाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

जिस घर का स्थापत्य पसंद नहीं

उस घर के दरवाज़े की घंटी बजाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

कभी जो मैं करता हूं वह बेहतरीन है

वही कोई और करे - मूर्ख है - कह देता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मुझे गर्व है अपने पर और अपने ही साथियों पर

कोई और हो उसे तो नीचा ही दिखाता…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on February 25, 2020 at 12:40pm — 2 Comments

जानता हूँ मैं (ग़ज़ल)

221 2121 1221 212

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

.

तेरे फ़रेब-ओ-मक्र सभी जानता हूँ मैं

'शाहिद' हूँ ज़िन्दगी तुझे पहचानता हूँ मैं

काफ़िर न जानिए है ये कुछ अस्र-ए-बद-दुआ

शह्र-ए-बुतां की धूल जो अब छानता हूँ मैं

जी भर के ज़िन्दगी न जिया ख़ुद से है गिला

जीने की रोज़ सुब्ह यूँ तो ठानता हूँ मैं

इक़बाल-ए-जुर्म मेरा मुसव्विर भी तो करे

ख़ुद की तो ख़ामियाँ सभी गर्दानता हूँ…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 25, 2020 at 1:00am — 5 Comments

तरही ग़ज़ल

 शख्स उसको भी तो दीवाना समझ बैठे थे हम l

जो था अच्छा उस को बेचारा समझ बैठे थे हम l



अब न जीतेगा ज़माना भी हमेशा की तरह,

जिस तरह का था उसे वैसा समझ बैठे थे हम l



गीत गाया था बहारों पर सुनाया था कहाँ,

जब ख़िज़ाँ को भी अगर अपना समझ बैठे थे हम l



फूल ये बिखरा तो खुशबू सा शजर बनता मिला,

"इस ज़मीन ओ आसमां को क्या समझ बैठे थे हम l"



ये जहाँ बदला मगर ये जिंदगानी क्यूँ नहीं,

झूठ दुनिया जिस कहे सच्चा समझ बैठे थे हम…

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Added by मोहन बेगोवाल on February 25, 2020 at 12:00am — 1 Comment

जीवन्तता

जीवन्तता

माँ

कहाँ हो तुम ?

अभी भी थपकियों में तुम्हारी

मैं मुँह दुबका सकता हूँ क्या

तुम्हारा चेहरा सलवटों भरा

मन शाँत स्वच्छ निर्मल

पथरीले…

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Added by vijay nikore on February 24, 2020 at 5:30am — 4 Comments

तरही गजल - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122 / 2122 / 2122 /  212

**

उनका वादा राम का  वादा  समझ बैठे थे हम

हर सियासतदान को सच्चा समझ बैठे थे हम।१।

**

कह रहे थे सब  यहाँ  जम्हूरियत है इसलिए

देश में हर फैसला अपना समझ बैठे थे हम।२।

**

गढ़ गये पुरखे हमारे  बीच  मजहब नाम की

क्यों उसी दीवार को रस्ता समझ बैठे थे हम।३।

**

आस्तीनों  में  छिपे  विषधर  लगे  फुफकारने

यूँ जिन्हें जाँ से अधिक प्यारा समझ बैठे थे हम।४।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 22, 2020 at 8:28am — 9 Comments

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