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मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : भीड़ (गणेश जी बाग़ी)

मारो रे स्साले को, जब हम लोगो का पर्व होता है तभी ये सूअर बिजली काट देता है, दूसरों के पर्व पर तो बिजली नही काटता !

संबंधित बिजली कर्मी जब तक कुछ कहता, तब तक भीड़ से कुछ उत्साहित युवा उस कर्मचारी को पीट चुके थे । बेचारा कर्मचारी गिड़गिड़ाते हुए बस इतना ही कह पाया...

"बड़े साहब के आदेश से बिजली कटी है ।"

"चलो रे....आज उ बड़े साहब को भी देख लेते हैं, बड़ा आया आदेश देने वाला"

भीड़ बड़े साहब के चेम्बर की तरफ बढ़ गयी ।

"क्यों जी, आज हम लोगो का पर्व का दिन है, जुलूस…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 21, 2020 at 2:00pm — 2 Comments

प्यार का प्रपात

प्यार का प्रपात

प्यार में समर्पण

समर्पण में प्यार

समर्पण ही प्यार

नाता शब्दों का शब्दों से मौन छायाओं में 

आँखों और बाहों का हो महत्व विशाल

बह जाए उस उच्च समर्पण में पल भर…

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Added by vijay nikore on February 21, 2020 at 3:30am — 4 Comments

"मै" इक  समंदर में तब्दील हो जाता हूँ

एक 
--------
रात 
होते ही 
"मै" इक  समंदर में तब्दील हो जाता हूँ 
और मेरे सीने के
ठीक ऊपर 
इक चाँद उग आता…
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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 20, 2020 at 5:30pm — 1 Comment

तू ही नहीं मैं भी तो हूँ (ग़ज़ल)

रमल मुसम्मन महज़ूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2 2 / 2 1 2

सारी दुनिया से ख़फ़ा तू ही नहीं मैं भी तो हूँ

हादसों का सिलसिला तू ही नहीं मैं भी तो हूँ

दौड़ता जाता है ख़ामोशी से बिन पूछे सुने

वक़्त से दहशत-ज़दा तू ही नहीं मैं भी तो हूँ

ज़िन्दगी है लम्हा लम्हा जंग अपने-आप से

अपने अंदर कर्बला तू ही नहीं मैं भी तो हूँ

दिल के अंदर गूंजती हैं चीख़ती ख़ामोशियाँ

एक साज़-ए-बे-सदा तू ही नहीं मैं भी…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 20, 2020 at 12:44am — 7 Comments

झूठी बातें कह कर दिनभर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



झूठी बातें कह कर दिनभर जब झूठे इठलाते हैं

हम सच के झण्डावरदारी क्यों इतना शर्माते हैं।१।

***

अफवाहों के जंगल यारो सभ्य नगर तक फैल गये

क्या होगा अब विश्वासों  का  सोच सभी घबराते हैं।२।

***

कैसे सूरज चाँद सितारे  अब तक चुनते आये हम

बात उजाले की कर के  जो  नित्य  अँधेरा लाते हैं।३।

***

नित्य हादसे  होते  हैं  या  उन में  साजिश होती है

छोटा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2020 at 11:00am — 8 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास

2122   2122   2122   22

जनाब क़तील शिफ़ाई साहब की एक ग़ज़ल 'अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको' जिसे जगजीत सिंह साहब ने गाया है उसी ग़ज़ल को गुनगुनाते हुए ये ग़ज़ल हुई है बहर थोड़ी परिवर्तित हुई है

तमाम दोस्तों को सादर समर्पित

स्वीकारें

कुछ हसीं फूलों से जीवन को सजा ले अब तो,

खुद को गुमनामी के पतझड़ से बचा ले अब तो.

मेरे जख्मों पे बड़ी तेरी इनायत होगी,

संग हाथों में कोई तू भी उठा ले अब तो.

अपनी गुल्लक को दिखा माँ को…

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Added by मनोज अहसास on February 16, 2020 at 10:00pm — 4 Comments

ये कैसी बहार है (ग़ज़ल)

मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

2 2 1 / 2 1 2 1 / 1 2 2 1 / 2 1 2

फूलों के सीने चाक हैं बुलबुल फ़रार है

सब दाग़ जल उठे हैं ये कैसी बहार है

कैसी बहार शहर में क्या मौसम-ए-ख़िज़ाँ

कारें इमारतें हैं दिलों में ग़ुबार है

कुछ बस नहीं बशर का क़ज़ा पर हयात पर

लेकिन ग़ुरूर ये है कि ख़ुद-इख़्तियार है

हाकिम है ख़ूब ख़्वाब-फ़रोशों पे मेहरबां

भाता नहीं उसे जो हक़ीक़त-निगार है

क्या ख़ूब है…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 16, 2020 at 7:41pm — 4 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : मैं भी लिखूंगा एक कविता (गणेश बाग़ी)

अतुकांत कविता : मैं भी लिखूंगा एक कविता

मैं भी लिखूंगा

एक कविता

चार पांच सालों बाद..

जब मेरे हाथों द्वारा लगाया हुआ

पलास का पौधा

बन जायेगा पेड़

उसपर लगेंगे

बसंती फूल

आयेंगी रंग बिरंगी तितलियाँ

चिड़िया बनायेंगी घोंसला...

मैं भी लिखूंगा

एक कविता

चार पांच सालों बाद..

जब मेरे घर आयेगी

नन्ही सी गुड़िया

जायेगी स्कूल

मेरी उँगली पकड़

और पढ़ेगी

क ल आ म .. कलम

गायेगी…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 15, 2020 at 11:30pm — 3 Comments

जायदाद के हकदार

अम्मा का जाना

जैसे पर्दों का हट जाना

एक- एक कर सारे के सारे तार- तार हो गए

जिगर के सब टुकड़े जायदाद के हकदार हो गए


छोटे छोटे पुर्जे तक बांटे गए

सारे कागज़ पत्र तक छांटे गए

जिगर के टुकड़े थे वो सारी जायदाद के हकदार हो गए
 
कुछ…
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Added by amita tiwari on February 15, 2020 at 7:30pm — 5 Comments

टीन एजर बेटे के मेसेज - मम्मी के लिए

एक

-----

मुझे,

मालूम है आप

मेरी लापरवाहियां और बेतरतीबी की लिए

ऊपर ऊपर डांटते हुए भी

अंदर अंदर खुशी से और मेरे लिए प्रेम से भरपूर रहती हो

मेरे बिखरे हुए कपड़ों व किताबों को सहेजना अच्छा लगता है

पर यहाँ हॉस्टल में आ कर अब मुझे अपने कपडे खुद तह कर के रखना सीख लिया है

वहां तो आप सुबह ब्रश में टूथ पेस्ट भी आप लगा के देती थी

टोस्ट में मक्खन भी लगा के हाथ में पकड़ा देती थी

और प्यार भरी झिड़की से जल्दी से खाने की हिदायत देती थी

पर…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 15, 2020 at 5:30pm — No Comments

गुज़ारिश

गुज़ारिश

मुहब्बत में मज़हब न हो

मज़हब में हो मुहब्बत

मुहब्बत ही हो सभी का मज़हब

तो सोचो, हाँ, सोचो तो ज़रा

कैसी होगी यह कायनात

कैसी होगी यह ज़मीन

खुश होगा कितना…

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Added by vijay nikore on February 15, 2020 at 4:00pm — 4 Comments

प्रेम पत्र - लघुकथा -

प्रेम पत्र - लघुकथा -

आज वीरेंद्र पिता की मृत्योपरांत तेरहवीं  की औपचारिकतायें संपन्न करने के पश्चात पिताजी के कमरे की अलमारी से पिता के पुराने दस्तावेज निकाल कर कुछ काम के कागजात छाँट रहा था।

तभी उसकी नज़र एक गुलाबी कपड़े की पोटली पर पड़ी।उसने उत्सुकता वश उसे खोल लिया।वह अचंभित हो गया।वह जिस पिता को एक आदर्श और सदाचारी पिता समझता था उनकी चरित्र हीनता का एक दूसरा ही चेहरा आज उसके सामने था।उस पोटली में पिता के नाम लिखे प्रेम पत्र और एक सुंदर सी महिला के साथ तस्वीरें…

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Added by TEJ VEER SINGH on February 15, 2020 at 11:30am — 6 Comments

डूब गया कल सूरज

डूब गया कल सूरज

कल ही तो था जो आई थी तुम

बारिश के मौसम की पहली सुगन्ध बनी

प्यार की नई सुबह बन कर आई थी तुम

मेरे आँगन में नई कली-सी मुस्कराई थी तुम

याद है मुझको वसन्त रजनी में

कल…

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Added by vijay nikore on February 15, 2020 at 6:30am — 4 Comments

वैलेनटाइन डे

कितना क़ायदा, कितना सलीका

ले आये हैं हम दुनिया में

दिन हैं मुक़र्रर सब कामों के

माँ और बाप को

उस्तादों को, और वतन को

यादों में लाने के लिए और

कितनी इज़्ज़त कितनी अक़ीदत

उनके लिए है दिल में हमारे

सबको बतलाने के लिए

और इक दिन है इश्क़ के नाम भी

वैलेनटाइन डे कहते हैं जिसको

जब भी आता है ये दिन तो

एक अजब एहसास सा दिल में भर जाता है

सोचता हूँ कि एक ही दिन क्यों रक्खा गया है

इश्क़, मुहब्बत, प्यार के नाम

प्यार भी…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on February 14, 2020 at 5:20pm — 3 Comments

धरणी भी आखिर रोती है

कितने ही द्रव्य और निधियाँ,

वह अपने गर्भ संजोती है

पर पल में मानव नष्ट करे

धरणी भी आख़िर रोती है



काटे नित हरे वृक्ष , पर्वत

माँ की काया श्री हीन करे

अपनी ही विपुल संपदा को

वह काँप-काँप कर खोती है

धरणी भी आख़िर रोती है



उसके ही सीने पर चढ़कर

जो भव्य इमारत खड़ी हुईं

उन बोझों से दबकर,थककर

अपनी कराह को ढोती है

धरणी भी आख़िर रोती है



उद्योग और कारखाने 

हैं कचरा नदियों में डालें

इनमें घुल गए रसायन में

मारक क्षमता तो…

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Added by Usha Awasthi on February 14, 2020 at 4:59pm — 6 Comments

एक ताज़ा ग़ज़ल

7 फेलुन 1 फ़ा

मेरी यादों से वो यारो जब भी घबराते हों गे

माज़ी के क़िस्सों से अपने दिल को बहलाते हों गे

काले बादल शर्म से पानी पानी हो जाते हों गे

बाम प आकर जब वो अपनी ज़ुल्फ़ें लहराते हों गे

जैसे हमको यार हमारे समझाने आ जाते हैं

उसके भी अहबाब यक़ीनन उसको समझाते हों गे

हम तो उनके हिज्र में तारे गिनते रहते हैं शब भर

वो तो अपने शीश महल में चैन से सो जाते हों…

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Added by Samar kabeer on February 13, 2020 at 5:55pm — 20 Comments

नए बीज / कविता

कुछ ख्वाबों के बीज लाकर

मैंने दिल के गमले में बोये थे।

पसीने का पानी पिलाकर

पौधे भी उगा दिये।

वो बात और है कि

गमले की मिट्टी मेरे दिल में भर गई।

और दिल भर देख भी नहीं…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on February 13, 2020 at 1:38pm — 6 Comments

प्रेम गली अति सांकरी

प्रेम गली अति सांकरी

------------------------

सुमी,



सुना है, किसी सयाने ने कहा है। ' प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय'

जब कभी सोचता हूँ इन पंक्तियों के बारे में तो लगता है, ऐसा कहने वाला, सयाना

रहा हो या न रहा हो, पर प्रेमी ज़रूर रहा होगा,जिसने प्रेम की पराकष्ठा को जाना होगा

महसूस होगा रोम - रोम से , रग - रेशे से, उसके लिए प्रेम कोई शब्दों का छलावा न

रहा होगा, किसी कविता का या ग़ज़ल का छंद और बंद न रहा होगा, किसी हसीन

शाम की यादें भर न रही होगा,…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 12, 2020 at 1:58pm — 4 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास

2×15

बीच सफर में धीरज टूटा,हाथों से पतवार गई.

मेरे मन की लाचारी से मेरी कोशिश हार गई.

एक अधूरा ख्वाब जो मुद्दत से आंखों में जिंदा है,

उसको लिखने की कोशिश में स्याही भी बेकार गई.

पिछले साल में और कोई था अब के साल में और कोई,

एक नए इजहार को चाहत फूलों के बाजार गई.

बरसों पहले जिसको चाहा उसकी यादें साथ रहें,

एक दुआ के आगे मेरी हर इक ख्वाहिश हार गई.

पापा की आंखों ने उसको जाने क्या क्या समझाया,

बेटी जब…

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Added by मनोज अहसास on February 12, 2020 at 1:10pm — 5 Comments

बिसासी सुजान(उपन्यास का एक अंश ) :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

हिन्दी की रीतिमुक्त धारा के शीर्षस्थ  कवि थे i उनकी प्रेमिका थी सुजान. जो दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह 'रंगीले' के दरबार में तवायफ थी i इनके मार्मिक प्रेम की अनूठी दास्तान पर आधारित है-उपन्यास 'बिसासी सुजान ' i पेश है उसका एक अंश ----घनानन्द

[48]

          

       जून का महीना I शुक्ल पक्ष की नवमी I दिन का अंतिम प्रहर I सूर्यास्त का समय I  यमुना नदी का काली घाट I घाट पर सन्नाटा I चंद्रमा की किरणें यमुना की लहरों से खेलती हुयी I हल्की आनंददायक हवा I आनंद…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 10, 2020 at 11:43am — 1 Comment

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