For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (19,141)

गज़ल:खुदाई जिनको

खुदाई जिनको आजमा रही है,

उन्हें रोटी दिखाई जा रही है.



शजर कैसे तरक्की का हरा हो,

जड़ें दीमक ही खाए जा रही है.



राम उनके भी मुंह फबने लगे हैं,

बगल में जिनके छुरी भा रही है .



कहाँ से आयी है कैसी हवा है ,

हमारी अस्मिता को खा रही है.



तिलक गांधी की चेरी जो कभी थी ,

सियासत माफिया को भा रही है.



हाई-ब्रिड बीज सी पश्चिम की संस्कृति ,

ज़हर भी साथ अपने ला रही है .



शेयर बाज़ार ने हमको दिया क्या ,

गरीबी और बढती… Continue

Added by Abhinav Arun on September 25, 2010 at 3:00pm — 6 Comments

नवगीत : बरसो राम धड़ाके से.... संजीव 'सलिल'

नवगीत:



बरसो राम धड़ाके से



संजीव 'सलिल'

*

*

बरसो राम धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



लोकतंत्र की

जमीं पर, लोभतंत्र के पैर

अंगद जैसे जम गए अब कैसे हो खैर?

अपनेपन की आड़ ले, भुना

रहे हैं बैर

देश पड़ोसी मगर बन- कहें मछरिया तैर

मारो इन्हें कड़ाके से, बरसो राम

धड़ाके से !

मरे न दुनिया फाके से !



कर विनाश

मिल, कह रहे, बेहद हुआ विकास

तम की कर आराधना- उल्लू कहें उजास

भाँग कुएँ में घोलकर,… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 25, 2010 at 10:30am — 7 Comments

पीड़ा… एक कविता

पीड़ा का इक पल दर्पण

टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |

इक मोती सा विश्वास मगर,

अन्तस मे कहीं ठहर गया |



उमडाया ये खालीपन,

गहराया ये सूनापन,

एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |

मन ने वीणा के फ़िर तार कसे

उठो, कोई चुपके से ये कह गया |

विचलित होता अन्त:मन,

उभरा हर क्षण ये चिन्तन,

मन अनजाने ये किधर गया |

ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये

भींगी आंखो मे जो उभर गया |



करता पल पल ये क्रन्दन,

धडका बूंद बूंद ये जीवन,

छांव ममता…

Continue

Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am — 4 Comments

धर्म या राजनीती © (सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



धर्म या राजनीति © ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 24, 2010 at 10:31pm — 3 Comments

किससे करूं मै बात ...!!!

किससे करूं मै बात ,उन जनाब की
जिनसे की है मुहब्बत बे-हिसाब की

दीखते नही वो दिन में ,रातें भी स्याह हुई
हुई मद्धम रोशनाई मेरी वफ़ा-ए-महताब की

किससे गिला करूं कहाँ तहरीर दूं ?
कोई ढूंढ लाये तस्वीर मेरे ख्वाब की

बिखर जाएगी शर्मो -हया इस जहाँ में
जो बरसों से हिफाजत में है हिजाब की

Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 24, 2010 at 10:00pm — 2 Comments

क्या होगी जिन्दगी तेरे बगैर....

न मिलेगा सुकूने दिल सियाह चाहे रोशनी में

खलबली सी फ़कत रहेगी तेरे बगै़र जिऩ्दगी में



तुम से बिछुड़कर हाल हमारा कुछ ऐसा होगा

तेरे तस्सवुर में उम्र कटेगा हर पल बेबसी में



बहारों का क्या फायदा गर एहसास में खि़जा

माहताब भी गर्क हो जाये सबे ता़रीकी में



नजरें दरिचा बन जाये दिल ख़्यालों का मकां

दफ्न हो जाये वजूद तन्हाई के आरसतगी में



ओ रूखसत होने वाले देता जा तदवीर कोई

दिलबस्तगी का बहाना होगा तेरे नामौजुदगी में



मुश्किल से मिलता… Continue

Added by Subodh kumar on September 24, 2010 at 8:00pm — 2 Comments

गरीब की सोचः-

सोचता है एक गरीब,
मैं कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

कट जाता है समय,
दो शाम की रोटी जुटाने में।

फिर भी भरता नहीं पेट,
इस महगाई भरे जमाने में।।

रोते हैं बीबी और बच्चे,
जब मैं शाम को घर जाता हूँ।

कोशते हैं इस गरीबी को,
फिर भी मैं इसे नहीं भगा पाता हूँ।।

सोचता है एक गरीब,
मै कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:19am — 1 Comment

ऐ माँ.....

ऐ माँ मत मार मुझे,

मैं दुनियां में आना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं इस संसार में जन्म लेकर,

जीवन चक्र बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मैं बड़ी होकर,

डॉक्टर, इन्जीनियर बनना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं किसी से शादी कर-कर,

उसका वंश बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मत समझ बोझ मुझे,

मैं तेरा भी बोझ उठाउँगी।



ऐ माँ मैं तेरे बुढ़ापे को,

बेटे से ज्यादा सवारूँगी।।



ऐ माँ तुमने ये कैसे सोच लिया,

तुम भी तो किसी की बेटी हो।



ऐ माँ… Continue

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:00am — 1 Comment

::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: ©



::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)



हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...

तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...

साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?

कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...

जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...



गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...

मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...

मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 10:00pm — 5 Comments

तीन क़त'आत

//कोशिश//



तूने शब् -ऐ -विसाल को आने नहीं दिया ,

मैंने भी इस मलाल को आने नहीं दिया .

रखा है खुद को दूर तेरी याद से बहुत

दिल में तेरे ख्याल को आने नहीं दिया !

------------------------------------------

//पहचान//



नाम -ओ -निशान मेरा मिटेगा नहीं कभी

गुलशन में खुश्बुओ की झलक छोड़ जाऊंगा

गुलचीं मसल के देख मुझे मै वो फूल हूँ

हाथो में तेरे अपनी महक छोड़ जाऊंगा… Continue

Added by Hilal Badayuni on September 23, 2010 at 7:00pm — 3 Comments

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

फिर भी जलने को दिल करता है ,

तुम्हारी तपिश से दिल में ,

एक हलचल सी उठती है ,

उसी हलचल में खो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



मगर तुम्हे आग कहना ग़लत होगा ,

कारण, तुम्हारा वो रूप भी देखा है ,

जो बर्फ की शीतलता लिए ,

तन मन को रोमांचित कर देता है ,

और मैं तुम्हारा हो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



कभी कभी लगता हैं मुझे ,

सावन की रिमझिम फुहार हो ,

और तुम जब बरसती हो… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on September 23, 2010 at 6:30pm — 1 Comment

चाँद दरिया में

चाँद दरिया में शब भर उतरता रहा .

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

एक जवां हुस्न के करवटें लेने से.

चाँदनी का बदन सर्द जलता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

चाँद छिपने का होता रहा तब भरम.

गेसू रुखसार पे जब बिखरता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

आ ना जाए क़यामत ये डर भी हुआ.

जब-जब सीने से आँचल सरकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

मापतपुरी से तन्हाई में जब मिले.

आईना शर्म का खुद चटकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता… Continue

Added by satish mapatpuri on September 23, 2010 at 5:30pm — 2 Comments

विस्मृति

विस्मृति



पोस्त के लाल फूल

असंख्य

उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा

ठंडी गुफा के मुहाने पर

पालथी मारे बैठा सूरज

देख रहा है फेनिल

धारा का झर-झर झरना ...

झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..

पतझड़ जो लगा है ..

चट्टानों के बिछौनों पर ...

अपने चारों ओर

देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद

एक फंतासी ...

जिस पर मखमल -सी बर्फ

अपना आसमान ताने खड़ी है



और ढरक रही है… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 3:00pm — 3 Comments

कविता

अन्तर्ध्वन्द

अमर प्रेम के अंकुर को ,
संकोच और अनजानी धूप ने,
यूँ झुलसाया,
पतझड़ आने को बौराया है,
मन बसंत में उलझा है,
उम्र ढलने को आई,
मन यौवन में अटका है,
संस्कार,मर्यादा,मान,परिधि,
सब पीछे छूटा,
मन विकल हो भागा,
रिश्ते नातों के फंदों से,
बुन गया यौवन सारा,
जब सबसे मुक्त हुआ,
मन बंधने को भागा........

अलका तिवारी

Added by alka tiwari on September 23, 2010 at 11:00am — 3 Comments


प्रधान संपादक
"OBO लाईव तरही मुशायरा 3"- एक रपट !

"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :



"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"



मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :



//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया

एक निगह रास्ते पर जमी रह गई

मिट गई… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 11 Comments


प्रधान संपादक
"OBO लाईव तरही मुशायरा 2" की सभी ग़ज़लें एक ही जगह

ओपन बुक्स ऑनलाइन पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी द्वारा (११-१५ सितम्बर-२०१०) मुनाक्किद "OBO लाईव तरही मुशायरा 2" में तरही मिसरा था :



"उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है"

(वज्न: १२१ २१२ १२१ २१२ २२)



उस मुशायरे में पढ़ी गईं सब ग़ज़लों को उनकी आमद के क्रम से पाठकों की सुविधा के लिए एक स्थान पर इकठ्ठा कर पेश किया जा रहा है !



// जनाब नवीन चतुर्वेदी जी //



(ग़जल-१)



फितूर जिनका लोगों को धता बताना है|

उन्हीं के कदमों में ही जा गिरा जमाना… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 2 Comments

इंतज़ार


तू
लौट आ
वेरना
मैं यूँ ही
जागती रहूंगी
रात रात भर
चाँदनी रातों मैं
लिख लिख कर
मिटाती रहूंगी
तेरा नाम
रेत पर
और हेर सुबह
नींद से
बोझिल पलकें लिए
सुर्ख,उनींदी
आंखों से
काटती
रहूंगी
कलेंडर से
एक और तारीख
इस सच का
सबूत
बनते हुए
की
एक
और रोज़
तुझे
याद किया
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया

Added by rajni chhabra on September 22, 2010 at 11:00pm — 1 Comment

ग़ज़ल.... "कमी रह गई"

वो गया तो गया चांदनी भी गयी.
भागते सावनों की रजा रह गयी.

ज़ाहिरा जागते तीरगी सो गयी.
जाग जा अब न तेरी धमक रह गयी.

ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.

दोड़ते हाँफते रहगुज़र हम रहे
होंसले में कभी ना कमी रह गई

जानता था कि वो चापलूसी न थी
मिलन क़ी आरज़ू थी, रह गई.

या खुदा आसरा ताउम्र तू रहा
आजमा ले मुझे, ना कमी रह गई.

Added by chetan prakash on September 22, 2010 at 8:00pm — 4 Comments

मन की बुझी ना प्यास तेरे दीदार की...

मन की बुझी ना प्यास तेरे दीदार की

मन का था भ्रम या हद थी प्यार की ।



क्यूँ नहीं समझता ये दिल अपनी हदों कों

किया सब जो थी मेरी कूवत अख्तियार की।



जिद में क्यूँ कर बैठा तू ऐसी खता

कर दी बदनामी खुद ही अपने प्यार की ।



सुर्खरू हो जाता है तन-मन तुझे देख कर

सुध-बुध नही रही इसे अब संसार की ।



हर तमन्ना में बस तमन्ना है तेरे दीद की

कयामत की हद बना रखी है इंतजार की ।



जमाना चाहे जितने कांटे बिछा दे राहों में

'कमलेश 'जीत आखिर… Continue

Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 22, 2010 at 7:30pm — 2 Comments

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. --संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :



हिंदी की प्रासंगिकता और हम.



संजीव वर्मा 'सलिल'



हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 6:30pm — 5 Comments

Monthly Archives

2025

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 186 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा आज के दौर के…See More
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"  क्या खोया क्या पाया हमने बीता  वर्ष  सहेजा  हमने ! बस इक चहरा खोया हमने चहरा…"
Sunday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"सप्रेम वंदेमातरम, आदरणीय  !"
Sunday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

Re'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Dec 13
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181
"स्वागतम"
Dec 13

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय रवि भाईजी, आपके सचेत करने से एक बात् आवश्य हुई, मैं ’किंकर्तव्यविमूढ़’ शब्द के…"
Dec 12
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-181

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Dec 10
anwar suhail updated their profile
Dec 6
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
Dec 5
ajay sharma shared a profile on Facebook
Dec 4
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Dec 1
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Nov 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service