kya bachpan hota hai yar ab bachpan ki kimat samajh aati hai us waqt lagta tha ki jaldi se bara ho jaun to koi padhne ke liye nahi kahega khele aur ghumne ki puri aajadi hogi. result nikalne se 1 din pehle ye manata tha ki bhagwan is par kisi tarah pass kar do next class me man laga ke padhenge. kya ajib sab khel humlog khelte the
1. budhiya kabaddi
2. kabbadi
3. noon tha
4 Gilli danda
5. Goli
6. Lakri choo
7. cricket jisme wicket 9-10 bricks se bante…
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Added by Ajit kumar sinha on June 1, 2010 at 8:22pm —
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वैसे तो
खुटे से बंधी चरती गाय
और प्रजातंत्र में
कोई समानता नहीं दिखती ॥
मगर
थोडा गौर फरमायें
तीन महत्वपूर्ण बिंदु ....
खूंटा , गाय और रस्सी ॥
खूंटा मतलब संबिधान
अपनी जगह स्थिर
गाय मतलब नेता
चारों ओर चरने वाला
और रस्सी यानी वोटर
इस रस्सी को जब चाहो
तोड़ दो , मोड़ दो , काट दो
है ना समानता ॥
क्या हम सब रस्सी
आपस में मिलकर .....
गाय को नियंत्रित नहीं कर सकते ॥
Added by baban pandey on June 1, 2010 at 8:03pm —
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मैं कोई लेखक नहीं हु लेकिन मेरे अंदर कीड़ा मचला है अब ..शब्दों को पिरोना संजोना नहीं अत्ता है .. लेकिंग जो बातें हैं कही अनकही बस लिख देना है
गर्मी भीषण हो रही है दिल्ली में मगर बचपना याद दिला रही है..झारखण्ड में एक जगह है , साहिबगंज . वह एक तरफ झरने वाली पहाड़ी है दूसरी तरफ उत्तर वाहिनी गंगा ..चिलचिलाती धुप में कभी झरने में नहा के सुकून लेते थे केकड़ो को पकड़ पकड़ कर हमलोग उसके शल्य चिकित्सा किया करते थे . रोज़ स्कूल से भाग के गंगा नहाने जाते थे सारा दिन मस्ती शाम को आंखे लाल होती…
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Added by Anand Vats on June 1, 2010 at 1:03pm —
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मैं
समुद्र की उन लहरों की तरह नहीं
जो बार -बार गिरती है / उठती है
और
किनारे तक आते - आते
दम तोड़ देती है ॥
मैं
उन घोड़ो की तरह भी नहीं
जिसे
चश्मा लगा देने पर
सुखी घास भी
हरी दूब समझ खा लेते हैं ॥
मैं
उन दिहाड़ी मजदूरों की तरह भी नहीं
जो १०० रुपया और एक पेट खाना पर
बुला लिए जाते है ....
राजनेताओ की रैलियो में
भीड़ जुटाने के लिए ॥
मैं तो चिंगारी हु मेरे दोस्त !!
सबके दिल में रहता…
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Added by baban pandey on June 1, 2010 at 12:49pm —
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माँ की सुनायी प्रयाय्वाची पे आधारित कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी है ....
हरी गए हरी से मिलने , हरी बैठे हरी पास
ये हरी वोह हरी मिल गए , ये हरी भये उदास |
हरी अर्थात (साप , मेढक . नदी )
Added by Anand Vats on June 1, 2010 at 12:06pm —
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मैं तत्काल प्रभाव से मेरे सारे कार्यों से त्यागपत्र दे रहा हूँ -- मेरे इस्तीफे के लिए कारण है कि मैं आज सुबह काम पर जाने से पहले मुझे एहसास हुआ की बाल मजदूरी आपराध है|| आपसे शिकायत है की आप मुझे एहसास न दिला पाए .

Added by Anand Vats on June 1, 2010 at 11:50am —
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बाल श्रमिक
वह जा रहा है बाल श्रमिक
अधनंगे बदन पर लू के थपेड़े सहते
तपती,सुलगती दुपहरी मैं,सर पर उठाये
ईंटों से भरी तगारी
सिर्फ तगारी का बोझ नहीं
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
सर पर उठाये
नन्हे श्रमिक के बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये
याद आ रहा है उसे
मां जब मजदूरी पर जाती और रखती
अपने सर पर ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती दो ईंटें उसके सर पर भी
जिन हालात मैं खुद जे रही थी
ढाल दिया उसी मैं बालक को भी
माँ के…
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Added by rajni chhabra on June 1, 2010 at 1:33am —
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इसी जद्दोज़हद में
ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ कर ज्यों
सफे भर रहे हैं
अधूरी है रदीफ़
काफिया नहीं है पूरा
तुकबंदी मिलाने की बस
जुगत कर रहे हैं
ज़िन्दगी गो कि
इक ग़ज़ल है
रूठा हुआ हमसे
अभी ये शगल है
अशआरों की तरह
उमड़ते हैं
चेहरे कई लेकिन
'मीटर' जो बैठ जाए
वही भर पन्नो पर
उतर रहे हैं
दुष्यंत .............
Added by दुष्यंत सेवक on May 31, 2010 at 4:31pm —
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चाँद नभ में आ गया, अब आप भी आ जाइये.
सज गई तारों की महफ़िल, आप भी सज जाइये.
नींद सहलाती है सबको, पर मुझे छूती नहीं.
जानें आँखें पथ से क्यों,क्षणभर को भी हटती नहीं.
प्यासी नज़रों को हसीं, चेहरा दिखा तो जाइये.
कल्पना मेरी बिलखती, वेदना सुन जाइये.
सज गई तारों की महफ़िल, आप भी सज जाइये.
कब तलक मैं यूँ अकेला, इस तरह जी पाउँगा.
इस निशा- नागिन के विष को, किस तरह पी पाउँगा.
इस जहर में अधर का, मधु रस मिला तो जाइये
याद जो हरदम रहे, वो बात तो कर जाइये
सज…
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Added by satish mapatpuri on May 31, 2010 at 2:17pm —
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एक और साल ख़त्म हुआ तेरे इंतज़ार का...
एक और जाम ख़त्म हुआ हिज़रे -ऐ-यार का
कई रिंद मर गए पीते-पीते,
साकी बता दे पता अब तू मेरे यार का
गिन-गिन के प्याला तोड़ता हूँ,
मै तेरे मैखाने में हर रोज़
कभी तो ख़त्म हो ये पैमाना तेरे इंतज़ार का
तुझे तो कातिल भी नहीं कह सकता
क्यूँ जिन्दा छोड़ दिया मुझे तड़पने को
सारे ज़माने से तनहा होगया
क्यूँ इतना तुझे प्यार किया
मुझे कहीं पागल न समझ बैठे जमाना
इसलिए थाम लिया लबो पे तेरे फ़साने को
अब…
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Added by Biresh kumar on May 30, 2010 at 7:30am —
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जब याद तेरी तडपाये
रातों को नींद न आये
कोई दर्द समझ न पाए
आने वाले अब तो आजा
सावन बीता जाए
जब याद तेरी तडपाये
बचपन में साथ जो खेले
सब दुःख सुख मिलकर झेले
हम रह गए आज अकेले
jab से वोह परदेस गए हैं
लौट कर फिर न आये
जब तेरी याद तडपाये
जब फैली तेरी खुशबू
सूखे आँखों में आंसू
है तुझमे ऐसा जादू
मिटटी को अगर हाथ लगा दे
तो सोना बन जाए
जब याद तेरी तडपाये
बरसे…
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Added by aleem azmi on May 29, 2010 at 9:03pm —
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ज़रा सोच लो
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दूसरों को ठोकरें मारने वालो
ज़रा सोच लो एक पल को
पराये दर्द का एहसास
तुम्हे भी सालेगा तब
ज़ख़्मी हो जायेंगे
तुम्हारे ही पाँव जब
दूसरों को ठोकरें मारते मारते
रजनी छाबरा
Added by rajni chhabra on May 28, 2010 at 2:40pm —
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क्यों मुझे सताती हो यैसे एक झलक दिखलाकर ,
क्या मिलता हैं तुझको यैसे में मुझे तरपाकर ,
जानती हो तुझको ही चाहू रखा हु दिल में बसाकर ,
सातों जनम का साथ हैं अपना साबित करू अपनाकर ,
क्यों मुझे सताती हो यैसे एक झलक दिखलाकर ,
मेरी नेह के नाता जानम तेरी सुन्दर काया नहीं ,
जनम जनम का प्रीत का खेल तब मिले हम यही ,
एक बार तू पास तो आओ मुझे समझो अंग लगाकर ,
बात मेरी मनो मुझको जानो देखो न नजर मिलकर ,
क्यों मुझे सताती हो यैसे एक झलक दिखलाकर ,
Added by Rash Bihari Ravi on May 28, 2010 at 2:30pm —
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जिंदगी को कुछ यूँ गुज़ारना हमें मंजूर न था
हरने को हम तैयार थे पर जीतना उन्हें मंजूर न था
अजी करते भी तो क्या करते,
की आना उन्हें मंजूर न था इंतज़ार करना हमें मंजूर न था
बस जीते चले गए इसी तरह कुछ क्यूंकि
रोना हमें मंजूर न था,और हसना उन्हें मंजूर न था
हम तो कबसे बैठे ही थे उनका दामन थामने
पर क्या करे की हमारा साथ उन्हें मंजूर न था
मिलने की तो भरपूर छह थी,पर फिर वही किस्मत अपनी
की गिरना हमें मंजूर न था और उठाना उन्हें मंजूर न था
राहे तो हर पल मै…
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Added by Biresh kumar on May 28, 2010 at 12:51am —
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हम को भी तुमसे प्यार था और बेहिसाब था
था वक़्त आशिकी का दौरे शबाब था
आँखों में शराब जब वक्ते शबाब था
जुल्फे भी उनकी नागिन ऐसा जनाब था
जो तुम खफा हुए तो ज़माना खफा हुआ
हम पर खुदा कसम की कोई अज़ाब था
उसने जब अपने हाथ में मेहदी रचा लिया
सब कुछ मिटा के रख दिया जितना खवाब था
मुझसे बिछड़ के रुख की कशिश को भी खो दिया
चेहरा था पुर कशिश कोई ताज़ा गुलाब था
अलीम के होश उड़ गए देखा जो एक झलक
कयामत वो ढा रहा था और बेहिजाब…
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Added by aleem azmi on May 25, 2010 at 9:35pm —
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हा मैं पिता हु ,
और मुझे गर्व हैं ,
की मैं पिता हु ,
माँ को दुःख था ,
की मैं पिता नहीं हु ,
घर वाले परेशान रहते थे ,
की मैं पिता नहीं हु ,
आज मैं पिता हु ,
सब खुस हैं ,
माँ रहती तो ओ भी ,
खुश होती ,
मेरी पत्नी कहती हैं ,
की मैं पिता हु ,
कसम से मैं झूठ नहीं बोलता ,
मैं पिता हु ,
अपने दो बच्चो का पिता हु ,
Added by Rash Bihari Ravi on May 25, 2010 at 1:43pm —
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दौरे गम में भी सबको हंसाते रहे .
आँखें नम थी मगर मुस्कुराते रहे .
किसमें हिम्मत जो हमपे सितम ढा सके .
वो तो अपने ही थे जो सताते रहे
जिन लबों को मुकम्मल हँसी हमने दी .
वो ही किस्तों में हमको रुलाते रहे .
उनको हमने सिखाया कदम रोपना .
जो हमें हर कदम पे गिराते रहे .
काश !मापतपुरी उनसे मिलते नहीं .
जो मिलाके नज़र फिर चुराते रहे .
गीतकार- सतीश मापतपुरी
मोबाइल -9334414611
Added by satish mapatpuri on May 24, 2010 at 4:00pm —
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दो सीढियाँ चढ़ता और एक उतर जाता,
जबतक मै सोचता ये दिन गुज़र जाता,
ऐसे ही गुज़रते दिन,और फिर महीना गुज़र जाता,
महीने गुज़रते केवल तो कोई बात न थी
पर कमबख्त पूरा साल भी गुज़र जाता
बस दो सीढियाँ चढ़ता और एक उतर जाता
जबतक मै सोचता ये दिन गुज़र जाता
वक़्त का कहीं कोई रिश्तेदार भी न है
की दो पल कहीं बैठता और जरा बतियाता
इस्पे बस चलने का धुन सवार है
कोई कितनी भी दे सदा,
ये न रुकता बस चला जाता
इंसान बस गिनता रहता है घड़ियाँ…
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Added by Biresh kumar on May 22, 2010 at 11:07pm —
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देख कर लोग मेरे साथ में जल जाते है
हम कभी साथ में तनहा जो निकल जाते है
याद आये मेरी तस्वीर लगाना दिल से
देख तस्वीर तेरी हम भी बहल जाते है
तू में खाई है कसम साथ निभाना होगा
करके वादे को सभी लोग बदल जाते है
होके दीवाना मैं गलियों में फिरा करता हू
वह कभी सज संवर के जो निकल जाते है
है उन्हें नाज़ जवानी पे ये मगर ए अलीम
देखकर हमको सभी लोग अहल जाते है
aap kabhi bhi hume yaad kar sakte hai kyuki kuch dino ke liye aapse…
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Added by aleem azmi on May 22, 2010 at 9:33pm —
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वो सफ़र की घड़ी
वो मुहब्बत की छड़ी
वो श्वेत मुस्कान की लड़ी
जैसे मानो दुनिया ही खड़ी
ऐसी अदा दिखलाके वो
जाने कहाँ गुम हो गयी
मुझे तन्हा छोड़ के गयी
मुझे बेसहारा कर के गयी..
उसका नज़रें चुराना
शर्म से पलकें झुकाना
हर अदा को छुपाना
जैसे खुद ही को झुठलाना
इतना करके भी वो खुद को रोक ना सकी
जैसे रुँधे गले से मेरा नाम ले गयी
खुद को झुठलाके वो खुद ही गुम हो गयी
वो अंजानी नगर
वो अनचाहा सफ़र
वो…
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Added by ABHISHEK TIWARI on May 22, 2010 at 4:32pm —
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