2122 1212 22
ज़िन्दगी यूँ लगी भली, फिर भी
बात खुशियों की है चली, फिर भी
देखिये सच कहाँ पहुँचता है
यूँ है चरचा गली गली, फिर भी
क्या करूँ हक़ में कुछ नहीं मेरे
रूह तक तो मेरी जली, फिर भी
क्यों अँधेरा घिरा सा लगता है
साँझ अब तक नहीं ढली फिर भी
आप दहशत को और कुछ कह लें
डर गई हर कली कली फिर भी
अश्क रुक तो गये हैं आखों के
दिल में बाक़ी है बेकली फिर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 26, 2014 at 12:00pm — 20 Comments
2122 2122 2122 2
अब हवा है , कोयला दहके तो अच्छा है
देख ले ये बात भी कहके तो अच्छा है
खूब झेला पतझड़ों को, अब कोई कोना
इस चमन का भी ज़रा महके तो अच्छा है
सीलती सी, उस अँधेरी झोपड़ी में भी ,
देखते हैं आप जो रहके , तो अच्छा है
कहकहा केवल नहीं अनुवाद जीवन का
दर्द भी आकर कभी चहके , तो अच्छा है
ज़िन्दगी बेस्वाद लगती है लकीरों में
अब क़दम थोड़ा अगर, बहके तो अच्छा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 15, 2014 at 5:30pm — 40 Comments
ईश्वर होना चाहता भी हूँ या नहीं
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आज पूजा जा रहा हूँ ।
दूर दूर से आ कर
नत मस्तक हो हज़ारों हज़ारों भक्त
दुआयें मांगते हैं , चढ़ावे चढ़ाते हैं ,
अपनी अपनी मुरादों के लिये ।
उनकी अटूट ,गहरी आस्थाओं ने, विश्वासों ने
सच में ज़िन्दा कर दिया है
मेरे अंदर , ईश्वरत्व ,
वो ईश्वरत्व
जो सारे ब्रम्हांड के कण कण में है ।
पूरी हो रहीं है मुरादें भी,
पर ,
कैसे कहूँ मै शुक्रिया उन…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 3, 2014 at 6:43pm — 19 Comments
2122 2122
दस्तो बाज़ू खोल लें क्या
फिर परों को तोल लें क्या
शब्दों में धोखे बहुत हैं
मौन में ही बोल लें क्या
दोस्त के क़ाबिल नहीं वो
दुश्मनी ही, मोल लें क्या
और कितना हम लुटेंगे
हाथ में कश्कोल लें क्या ------ कश्कोल - भिक्षापात्र
दिल हमारा ,साफ है तो
रंग, कुछ भी घोल लें क्या
नीम है , हर बात उनकी
हम ही मीठा ,बोल लें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 1, 2014 at 4:30pm — 47 Comments
2122 2122 2122
लंग सा जो भंग पैरों पर खड़ा है
हाँ, सहारा दो तो वो भी दौड़ता है
व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है
कौन कैसा क्यों है, ये किसको पता है
दानवों सा इस जगह जो लग रहा है
सच कहूँ ! कुछ के लिये वो देवता है
सत्य सा निश्चल नही अब कोई आदम
मौका आने पर स्वयम को मोड़ता है
आप अपनी राह में चलते ही रहिये
बोलने वाला तो यूँ भी बोलता है
उनकी क़समों का भरोसा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 23, 2014 at 5:34pm — 36 Comments
2122 1212 22 /112
आज फिर से बवाल लेते हैं
प्रश्न कोई उछाल लेते हैं
प्यास का हल कोई हमीं करलें
वो समझने में साल लेते हैं
उनको आँखों में सिर्फ अश्क़ मिले
वो जो सब का मलाल लेते हैं
तेग वो ही चलायें, खुश रह लें
आदतन, हम जो ढाल लेते हैं
आज कश्मीर पर हो हल कोई
आओ सिक्का उछाल लेते हैं
भूख, उनके खड़ी रही दर पर
रिज़्क जो- जो हलाल लेते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 18, 2014 at 5:00pm — 40 Comments
2122 2122 2122 212
क्या मुआफी मांग इंसा यूँ भला हो जायेगा
एक अच्छाई से दानव, देवता हो जायेगा ?
खूब घेरी चाँद को , बेशक हज़ारों बदलियाँ
क्या लगा ये ? चाँद भी अब साँवला हो जायेगा
जिस तरह से धूप अब अठखेलियाँ करने लगी
सच अगर तू देख लेगा , बावला हो जायेगा
थोड़ा डर भी है सताता इस जमे विश्वास को
पर कभी लगता, चमन फिर से हरा जो जायेगा
हौसलों को तुम अमल में भी कभी आने तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 15, 2014 at 5:00pm — 18 Comments
1222 1222 1222 1222
कहीं कुछ दर्द ठहरा सा , कहीं है आग जलती सी
कभी सांसे हुई भारी , कभी हसरत मचलती सी
कभी टूटे हुये ख़्वाबों को फिर से जोड़ता सा मै
कभी भूली हुई बातें मेरी यादों में चलती सी
कभी होता यक़ीं सा कुछ , कहीं कुछ बेयक़ीनी है
तुझे पाने की उम्मीदें कभी है हाथ मलती सी
कभी महफिल में तेरी रह के मै तनहा सा रहता हूँ
कभी तनहाइयों में संग पूरी भीड़ चलती सी
कभी बेबात ही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 10, 2014 at 4:00pm — 43 Comments
2122 2122 2122 2122
चद्दरों से, सिर्फ़ कचरों को दबाया जा रहा है
साफ सुथरा इस तरह खुद को जताया जा रहा है
लूट के लंगोट भी बाज़ार में नंग़ा किये थे
फिर वही लंगोट दे हमको मनाया जा रहा है
रोशनी सूरज की सहनी जब हुई…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 5, 2014 at 4:00pm — 31 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on April 1, 2014 at 10:30am — 32 Comments
ताकि, बचा सकूँ हताशा से
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इसलिये नही कि ,
सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ
इसलिये भी नही कि ,
मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,…
Added by गिरिराज भंडारी on March 27, 2014 at 4:30pm — 3 Comments
अल्प विराम – पूर्ण विराम
********************
वो मै होऊँ या आप
छोटा मोटा विद्यार्थी
सबके अंदर जीता है ,
आवश्यक रूप से
और वो जानता भी है ,
जीते रहने की…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 7:00am — 12 Comments
11212 11212 11212 11212
हुये रोशनी के प्रतीक जो , वो अँधेरों से हैं घिरे हुये
ये कहो नही, जो कहे अगर, तो ये जान लें कि गिले हुये
न ही दर्द की कोई जात है, न ही शादमानी की कौम है
ये सियासतों की है साजिशें , जो हैं बांटने को पिले…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 24, 2014 at 11:00am — 19 Comments
1222 1222 122
फ़क़त दो चार पल की बात है ये
हाँ, बस इक रात जैसी रात है ये
कबूतर, तुम यक़ीं करना समझ कर
कहूँ क्या? आदमी की जात है ये
रफ़ाक़त आप कैसे कह रहे हैं ?
असल में पीठ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 18, 2014 at 5:00pm — 25 Comments
कह मुकरियाँ “ – पाँच
*******************
मुझे छोड़ वो कहीं न जाये
इधर उधर की सैर कराये
साथ रहे जैसे हो धड़कन
क्या सखि साजन , नहीं सखि मन
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 10, 2014 at 9:00pm — 15 Comments
11212 11212 11212 11212
ये न पूछ शाम ढली किधर , तू ये देख चाँद निकल रहा
समाँ सुर्मयी था जो रात का , वो भी चंपई मे बदल रहा
***
ये तो हौसले की ही बात है ,बड़ी तेज धूप है चार सूँ
किसी सायबाँ का पता नही ,बिना आसरा कोई चल रहा
***…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 5, 2014 at 6:30pm — 16 Comments
2122 2122 2122 2122
गर यक़ीं ख़ुद पर नहीं हर रास्ता दुश्वार होगा
ख़्वाब मे भी फूल देखोगे वहाँ पर खार होगा
बात बाहर जब गई है तो कोई गद्दार होगा
कल्पनाओं से ही तो छपता नही अखबार होगा
चौक में जो रात को चिल्ला रहा था बात…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 2, 2014 at 10:00am — 24 Comments
सात दोहे – '' रिश्ते ''
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नाराजी जो है कहीं , मिल के कर लो बात
खामोशी देती रही , हर रिश्ते को मात
रिश्तों को भी चाहिये , इन्जन जैसे तेल
बिना तेल देखे बहुत , झटके खाते मेल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 24, 2014 at 9:30pm — 46 Comments
2122 2122 2122 212
कौन चुपके आ रहा है आज मेरे मौन में
गीत कोई गा रहा है आज मेरे मौन में
वाक़िया जिसकी वज़ह से दूरियाँ बढ़ने लगीं
बस वही समझा रहा है ,आज मेरे मौन में
ख़्वाब कोई अब पुराना टूट जाने के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 21, 2014 at 6:30pm — 20 Comments
2122 2122 212 ( पूरा )
इस फ़िज़ा के शोख नज़्ज़ारे भी देख
बाग मे पानी के फौव्वारे भी देख
सिर्फ सूखे तू शज़र देखा न कर
हो रहे पत्ते हरे सारे भी देख
तू अमा में चाँद खातिर , ज़िद न कर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 17, 2014 at 6:00pm — 32 Comments
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