आँखों देखी 8 - दक्षिण गंगोत्री में सांस्कृतिक उत्सव
शीतकालीन अंटार्कटिका के विविध रंग हमें दिख रहे थे और हम उनमें डूबते जा रहे थे. लेकिन, जैसा कि मैंने पहले कहीं कहा है, देश और परिवार से इतनी दूर रहकर अवर्णनीय कठिन परिस्थितियों का सामना करना इतना आसान नहीं था. अंटार्कटिका के इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि ऐसी विषम परिस्थितियों में रहकर अभियान दल के सदस्यों में शारीरिक समस्याओं के साथ ही मानसिक समस्याएँ भी उत्पन्न…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on January 1, 2014 at 3:43am — 5 Comments
आँखों देखी 7 – बर्फ़ की गहरी खाई में
दक्षिण गंगोत्री स्टेशन के अंदर रहते हुए एक डरावना ख़्याल हम सबको अक़्सर परेशान करता था. हम सभी जानते थे कि पूरा स्टेशन लकड़ी (प्लाईवुड) से बना है और इनसुलेशन के लिये दीवारों के दो पर्तों के बीच पी.यू.फोम भरा हुआ है जो ज्वलनशील पदार्थ होता है. यदि किसी कारणवश स्टेशन के अंदर आग लगी तो चिमनीनुमा एकमात्र प्रवेश/निकास मार्ग से होकर बाहर निकलना शायद असम्भव हो जाए. यदि बाहर निकल भी…
Added by sharadindu mukerji on December 25, 2013 at 7:00pm — 21 Comments
वह अलौकिक हेडलाईट – आँखों देखी 6
शीतकालीन अंटार्कटिका का अनंत रहस्य हर रोज़ अपने विचित्र रंग-रूप में हमारे सामने उन्मोचित हो रहा था. बर्फ़ के तूफ़ान चल रहे थे जो एक बार शुरु होने पर लगातार घन्टों चला करते. कभी-कभी तो छह सात दिन तक हम पूरी तरह स्टेशन के अंदर बंदी हो जाते थे. 80 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से हवा चलती जो झटके से, जिसे तकनीकी भाषा में Gusting कहते हैं, प्राय: 140 कि.मी.प्र.घ. हो जाती थी. तूफ़ान के आने का…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on December 9, 2013 at 12:14am — 20 Comments
मैं तारों से बातें करता हूँ
जब गहन तिमिर के अवगुंठन में
धरती यह मुँह छिपाती है
मैं तारों से बातें करता हूँ
झिल्ली जब गुनगुनाती है.
(2)
फुटपाथों पर भूखे नंगे
कैसे निश्चिंत हैं सोये हुए
उर उदर की ज्वाला में
जाने क्या सपने बोये हुए.
(3)
दो बूंद दूध का प्यासा शिशु
माँ की आंचल में रोता है
रोते रोते बेहाल अबोध
फिर जाने कैसे सो जाता है!
(4)
क्या उसके भी सपनों में
कोई, सपने लेकर आता…
Added by sharadindu mukerji on December 2, 2013 at 5:00pm — 20 Comments
दीवार
मैं जानता हूँ
तुम्हें उस दीवार से डर लगने लगा है,
दीवार, जो तुम्हारे और तुम्हारे अपनों के बीच
समय ने खड़ी कर दी है.
उठो,
उस दीवार से ऊपर उठो
नहीं तो सुबह औ’ शाम
उसकी लम्बी होती छाया
तुम्हें लील लेगी.
उस पार देखने के लिये
ऊपर उठना पड़ेगा,
उस दीवार से बहुत ऊपर –
और,
दीवार को नीचा दिखाने के लिये
तुम्हें नीचे आना पड़ेगा,
उस ज़मीं पर
जहाँ तुम्हारे अपने
तुम्हारी…
Added by sharadindu mukerji on November 11, 2013 at 11:00pm — 16 Comments
आँखों देखी – 5 आकाश में आग की लपटें
भूमिका :
पिछले अध्याय (आँखों देखी – 4) में मैंने आपको बताया था कैसे एक तटस्थ डॉक्टर के कारण हम लोग किसी सम्भावित आपदा को टाल देने में सक्षम हुए थे. शीतकालीन अंटार्कटिका का रंग-रूप ही कुछ अकल्पनीय ढंग से अद्भुत होता है.…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on October 30, 2013 at 2:30pm — 28 Comments
आँखों देखी – 4 डॉक्टर का चमत्कार
भूमिका :
मैं प्राय: लोगों से कहता रहता हूँ कि जिसने अंटार्कटिका का अंधकार पर्व अर्थात तथाकथित शीतकालीन अंटार्कटिका नहीं देखा है उसके लिये इस अद्भुत महाद्वीप को जानना अधूरा ही रह गया, भले ही उसने ग्रीष्मकालीन अंटार्कटिका कई बार देखा हो. ऐसा इसलिये कि दो महीने तक लगातार सूरज का उदय न होना हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को गम्भीर रूप से प्रभावित करता है. एक छोटे से स्टेशन के अंदर…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on August 24, 2013 at 1:51am — 12 Comments
(1)
औक़ात
भोर की दहलीज पर बैठा मैं,
ललचायी इच्छाएँ लेकर,
पर्वत निहार रहा था –
उनके शरीर से लुढ़क कर
वादियों में फैलती,
प्रभात की पहली किरण ने,
मुझे,
मेरी औक़ात बता दी.
(2)
दिन के झरोखे में बैठे
एक लम्बी सांस खींचे,
मैंने सूरज बनने की ठानी –
तैरते हुए बादल के
एक छोटे से टुकड़े की
छोटी सी छाँव ने,
मुझे,
मेरी औक़ात सिखा दी.
(3)
गोधूलि के धुँधलके में छिपकर
मैंने,…
Added by sharadindu mukerji on July 25, 2013 at 1:00am — 12 Comments
उफ़ ! वह रात... आँखों देखी – 3
भूमिका : मैं इससे पहले आपको बता चुका हूँ कि भारत के अंटार्कटिका अभियान की सूचना कब और क्यों हुई. अंटार्कटिका का सूक्ष्म परिचय भी मैंने आपको दिया है लेकिन यह एक ऐसा विशाल विषय है कि इस पर किसी भी आलोचना या विचार विमर्श का अंत मुझे नहीं दिखता.
आप सब जानते हैं कि अंटार्कटिका एक महाद्वीप है जिसको घेरकर दक्षिण महासागर (Southern Ocean ) का रहस्यमय साम्राज्य है. यह महाद्वीप पृथ्वी के दक्षिण छोर पर होने के कारण यहाँ दिन-रात का चक्र कुछ दूसरे ही नियम से चलता…
Added by sharadindu mukerji on June 3, 2013 at 1:30am — 6 Comments
भारत तीर्थ
(कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता से क्षमायाचना सहित कुछ पंक्तियों का हिन्दी भावानुवाद)
ओ मेरे मन जागो जागो
पुण्य तीर्थ में धीरे,
भारत के जन-मानस के
सागर तीर में.
यहाँ खड़े कर बाहु प्रसारित
नर-नारायण को नमन करुँ मैं,
उदार छन्द में परम आनन्द से,
उनका आज वंदन करुँ मैं.
ध्यानमग्न है यह धरती -
नदियों की माला जपती,
यहीं नित्य दिखती है मुझको
पवित्र यह धरणी रे…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on May 10, 2013 at 12:50am — 6 Comments
यह रोज़ ही की बात है
जब रात गए,
शबनम की बरसात हुआ करती है-
पात पात रात भर
वात बहा करती है,
चोरी छिपे मैंने भी देखा है
दोनों को,
जब रात से प्रभात की
मुलाक़ात हुआ करती है -
मैं तो बस दर्शक हूँ
यह एक तसवीर है.
(2)
रात की लज्जा,
चहारदीवारी के साये में,
मेरे आंगन में छुपे
कलियों के आंचल में
सिमट-सिमट जाती है -
लेकिन वह सूरज
अनायास मेरे घर की
प्राचीर को लांघ…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on May 7, 2013 at 9:30pm — 9 Comments
तनाव से भरे कुछ घण्टे – “ आँखों देखी 2 “
भूमिका : मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ उसे समझने के लिये आवश्यक है कि घटना से सम्बंधित स्थान, काल, परिवेश का एक संक्षिप्त परिचय दे दूँ.
अंटार्कटिका हमारे ग्रह – पृथ्वी – का वह सुदूरतम महाद्वीप है जहाँ मानव की कोई स्थायी बस्ती नहीं है. हैं तो कुछ देशों के वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र जिनमें अस्थायी रूप से रहकर काम करने के लिये वैज्ञानिक तथा अन्य अभियात्रियों का हर वर्ष समागम होता है. लगभग 1.4 करोड़ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले इस…
Added by sharadindu mukerji on April 28, 2013 at 10:30pm — 9 Comments
आंखों देखी
बात फ़रवरी 1986 की है. भारत का पाँचवा वैज्ञानिक अभियान दल अंटार्कटिका में अपना काम समाप्त कर चुका था. शीतकालीन दल के सभी 14 सदस्य भारतीय अनुसंधान केंद्र “ दक्षिण गंगोत्री ” में पहुँच चुके थे. इस दल को अगले एक वर्ष तक यहीं रहना था. ग़्रीष्मकालीन दल के करीब सब अभियात्री 15 किलोमीटर दूर खड़े जहाज “ एम.वी. थुलीलैण्ड “ में थे. मौसम बेहद खराब हो जाने की वजह से एक दो वैज्ञानिक जहाज में नहीं पहुँच पाये थे. कुछ और औपचारिकताएँ बाकी थीं...इंतज़ार था मौसम के ठीक होने का. मौसम का आलम यह था…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on April 20, 2013 at 4:07am — 10 Comments
हक़ीकत की सफेद दीवार पर
तजुर्बों की भीड़ ने,
अहसास नाम की
नन्हीं सी कील ठोक दी थी.
मैं,
अरमानो की इस टेढ़ी-मेढ़ी गली से
यूँ ही गुजर रहा था –
अटपटा सा लगा
तो सोचा,
क्यों न काँच से मढ़े हुए
इस “ मैं “ को
उस पर टाँग दूँ –
गली में भटकने वालों का
इसे तोड़ने और जोड़ने में
शायद मन बहल जाए.
न जाने उस तसवीर के
कितने ही टुकड़े हो गये होंगे,
कितने ही असावधानी तमाशबीन
उन टुकड़ों की नुकीली धार से,
लहू-लुहान हुए होंगे !
मुझे तो अब…
Added by sharadindu mukerji on April 17, 2013 at 2:44am — 13 Comments
(1)
विधि ने सुंदर गीत रचा,
अलि कुल स्वर सा यह गुंजन –
विश्व चराचर,
अविरत निर्झर,
श्वासों का यह स्पंदन.
कितना विस्मय,
कितना मधुमय,
कितना अनुपम,
मानव जीवन !
(2)
नक्षत्र खचित अम्बर में
किसके, उज्ज्वल स्नेह का प्रकाश ?
किसके इंगित पर मुस्काते हैं
यह धरती और यह आकाश ?
किसके सौरभ से
सुरभित यह मन,
अश्रु शिशिर,
नहीं क्रंदन !
किसके कर में क्रीड़ा करते
जीवन – मरण,
मरण – जीवन -
उसको अर्पित…
Added by sharadindu mukerji on April 7, 2013 at 4:30am — 17 Comments
लब पे ये मुस्कान जैसे चंद्रमा हो,
तारक खचित अम्बर में तुम अनुपमा हो –
विश्व के सुकुमार पलकों पर सुभगे,
स्वप्नवत तुम मधुर कोई कल्पना हो.
*****
जागो जगाओ विश्व को दो निज आलोक,
कलुष भेद तम दूर हटें जागे त्रिलोक,
बाहु में शक्ति, हृदय में भक्ति लिए सुकुमारी,
निर्भीक बढ़ो जीवन पथ पर बेरोक-टोक.
****
माटी का कण तृण गंध तुम्हारे साथ है,
उन्मुक्त समीरण मंद तुम्हारे साथ है,
जीवन उपवन में खिली हुई ऐ नवल कलि,
रोम-रोम में रग-रग में भगवान…
Added by sharadindu mukerji on April 1, 2013 at 1:30am — 11 Comments
वाणी जब नयनों से छलके
दो दिल में हो एक स्पंदन,
हो केशगुच्छ के अवगुंठन में
अधरों का अधरों से मिलन –
जब अलि के नीरव गुंजन से
सिहरित हो, पुष्पित कोमल तन,
जब भाव बहे सरिता बनकर
भाषा हो मृदुल, मंद समीरण –
प्रिये तभी होता है प्राणों का
जीवन से आलिंगन.
जब पवन चले औ’ किलक उठे
कलियों का दल इठलाकर,
जब तरु की शाखों में जाग उठे
उन कोमल पत्रों का मर्मर,
जब ओस बिंदु को मिलता हो
तृण का कम्पित अवलम्बन –
बंधु तभी मुखरित होता है,
यह जग,…
Added by sharadindu mukerji on March 25, 2013 at 8:44pm — 4 Comments
वातायन निर्वाक प्रहरी था,
बाहर मस्त पवन था
अंदर तो ‘बाहर’ निश्चुप था,
अंतर में एक अगन था.
कितने ही लहरों पर पलकर,
कितने झोंके खाकर
कितने ही लहरों को लेकर,
कितने मोती पाकर –
मैं आया था शांत निकुंज में.
मैं आया था शांत निकुंज में,
एक तूफ़ाँ को पाने
एक हृदय को एक हृदय से,
एक ही कथा सुनाने.
पर निकुंज की छाया में
थी तुम बैठी उद्भासित सी,
थोड़ी सी सकुचायी सी
और थोड़ी सी घबरायी सी.
स्तब्ध रहे कुछ पल
हम दोनों, पलकों…
Added by sharadindu mukerji on March 21, 2013 at 3:47am — 11 Comments
तुम्हारे उपवन के उपेक्षित कोने में
एक नन्हा सा घरौंदा है,
जहाँ मैं और मेरी तन्हाई
साथ-साथ रहते हैं –
क्या तुमने कभी देखा है ?
यहाँ तुम्हारे आंचल की सरसराहट
सुनाई नहीं देती,
तुम्हारी खुशी की खिलखिलाहट भी
मंद पड़ जाती है –
पर,
तुम्हारे गजरे का सुबास
स्वयम यहाँ आता है,
हर सुबह एक कोयल
कोई नया राग गाती है ;
हमने ओस की बूंदों को
पलकों का सेज दिया है –
क्या तुमने कभी जाना है…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on March 17, 2013 at 2:43am — 3 Comments
ज़िंदगी की राह के किनारे लगी
ऊंचे दरख्तों की झुकी डालें नंगी हैं.
एक बेचैन सन्नाटे को पछाडकर,
मैं, एक खामोश कोलाहल में,
परेशान भटक रहा हूँ.
शायद अकारण ही!
शायद आगे उस मोड़ पर
कोई तूफ़ान मिल जाए;
शायद उन कँटीली झाड़ियों के पीछे
कोई झुरमुट मिल जाए -
पर आह,
मेरे सपनों के गुलमोहर
इन राहों में बिखरे पड़े हैं.
उन्हें कुचल नहीं सकता, बटोर रहा हूँ -
आँसुओं की नमी में पलकर
वे अभी मुरझाए नहीं…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on March 13, 2013 at 3:30am — 9 Comments
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