“ हे. भगवान..बस! एक पोते की कामना थी, वो भी पूरी नहीं हो पाई इस बार. तीन-तीन पोतियों की लाइन लग गई ” अपनी बहु के कमरे से बाहर, खले की ओर जाते हुए मन में बडबडा ही रही थी, कि
“ माँ!! मैं बाजार जा रहा हूँ, कुछ लाना हो बता दो ” बेटे ने पूछा
“ हाँ! बेटा.. गुड़ ले आना, वो बूढी गाय न जाने कब जन जाए, अब की बार बछिया ले आये तो आगे भी घर का दूध मिल जाया करेगा “
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 10:54am — 24 Comments
"अरे!! तुम्हारे जैसे गरीब अनाथ के झोपड़े में महात्मा गाँधी की तस्वीर...”
“हाँ! साहब, अभी कुछ दिन पहले ही लोगों ने चौराहे पर इस तस्वीर को लगाकर.. मालायें पहनाई, खूब जोर-शोर से भाषण-बाजी की. फिर इसे सब, वहीं छोड़कर चले गये.. ये वहां बे-सहारा थे, तो इन्हें अपने घर ले आया...”
जितेन्द्र पस्टारिया
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on January 24, 2015 at 7:33pm — 22 Comments
वर्ष फिर बीत गया
यूँ दे गया, अनुभव
जीने के
लड़ने के, अंधेरों से
रौशनी के लिए
सत्य से सत्य को
छीन लिया
असत्य से असत्य
छोड़े भी और मांग भी लिए
अधिकारों को
थोड़ी सी घुटन में
राहों में चलते रहे
अपनों के साथ
अपनों के ही लिए
जान लिया, पहचाना भी
समझ भी तो गये
अँधेरा और दुःख
दोनो ही तो, चाहिए
रौशनी और सुख के साथ-साथ
बड़ा अच्छा लगता है
इनके बीच…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on January 1, 2015 at 7:28am — 10 Comments
जानकीप्रसाद जी सेवानिवृत्ति के पश्चात कई वर्षों से अपनी पत्नि के साथ, बड़े प्यार से अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत कर रहे है. दीपावली के आते ही घर में रंगरोगन का काम शुरू होने वाला है. जानकीप्रसाद जी ने अपने पडौसी से कहकर, दीवारों पर रंग करने के लिए एक पुताई वाले को बुलवाया है. उस पुताई वाले नौजवान को देख अकेले रह रहे बुजुर्ग दंपति बहुत खुश है. क्युकी दो-तीन दिनों के लिए एक मेहमान आया है
“बेटा! तुम्हारा क्या नाम है..? “ जानकीप्रसाद जी ने बड़े ही स्नेह से पूछा
प्रश्न…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on November 8, 2014 at 10:23am — 24 Comments
रामकिशन अपनी फसल से बहुत ज्यादा प्यार करता था. पौधों को अपने बच्चों के जैसा समझता. खेतों की साफ़-सफाई, हर काम शुरू करने से पहले पूजा-पाठ, यहाँ तक की अपनी भावुकता के कारण नन्हें-नन्हें पौधों पर कीटनाशकों का छिडकाव भी नहीं करता था. उसे यही लगता था कि इन मासूमों पर जहर का इस्तेमाल कैसे करूँ..? किन्तु ख़राब मौसम के कारण जन्मे कीट उसकी फसल को चट कर जाते. अपने हाथ कुछ न लगना और गाँव के लोगों द्वारा उसकी हंसी उड़ाना , एक दिन उसे समझ आ गया. अब रामकिशन अपनी फसलों से आमदनी का भरपूर फायदा ले रहा…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on November 4, 2014 at 1:05am — 14 Comments
पूरे मोहल्ले में केवल बब्लू के घर की ही पक्की छत थी, बाकि सारे मकान कच्चे थे. बब्लू को बचपन से ही पतंगबाजी का बड़ा शौक था. हमेशा छत पर चढ़कर पतंग उड़ाकर वो मोहल्ले के लोंगो, जो कि अपने आँगन से पतंगबाजी करते थे, सभी की पतंग काट दिया करता था. अभी चार माह पहले ही पतंग उड़ाते हुए ,छत से बुरी तरह से नीचे जमीन पर गिर जाने के बाद भी बब्लू का पतंग उड़ाने का शौक तो नही गया, किन्तु अब छत की हद को बार-बार ध्यान में रखता है, और एक दिन में कई पतंगें कटवा देता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on October 13, 2014 at 8:00am — 20 Comments
बहुत सुंदर है
मीठा है बहुत,
बिलकुल मिश्री की तरह
मिल जाता है, कहीं भी
कभी भी, हर तरफ
खोखलापन लिए, समा जाये इसमें
कोई भी,कितना भी.
सच! ही तो है
असत्य जो है
कितना आसान है
इसे पाना, स्वीकारना
खुश हो लेना
चलायमान तो इतना
कि रुकता ही नहीं
अनेकों राहें, उनमे भी कई राहें
पूर्ण सामयिक ही बन बैठा है.
और वो देखो !.. सत्य
वहीं खड़ा है, अनंत काल से
न हिलता न…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on October 8, 2014 at 10:02am — 18 Comments
“नमस्कार बाबू जी..! मुझे इस खसरे की नकल जल्द से जल्द निकलवाना है, यह रहा मेरा आवेदन” रमेश ने सरकारी दफ्तर में फाइलों के बीच सिर दिए बाबू से कहा
“ अरे भाईसाहब..! जिसे देखो उसे जल्दी है. यहाँ इतना काम फैला पड़ा है और स्टाफ भी कम है, अपना आवेदन दे जाइए और आप १५ दिनों के बाद आइयेगा. आपको नकल मिल जायेगी. हाँ..! अगर जरुरी काम हो ,जल्दी चाहिए तो थोड़ा सेवा-शुल्क कर दीजिये. कल ले जाना अपनी नकल” बाबू ने रमेश का आवेदन लेकर फ़ाइल कवर में रखते हुए कहा
“ अरे बाबू जी..! कैसी…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on October 4, 2014 at 11:59am — 14 Comments
चार माह की
तपती धरा पर
जैसे ही बारिश की बूँदे बरसी
बो दिये , नन्हे-नन्हे अंकुरों को
कई कतारों में
सभी ने मिलकर
नन्हें -नन्हे से हाथो को
ऊँचा उठाकर
दूर कर दी , मिट्टी की चादर
धीरे से झाँक ने लगे
इस सुंदर सी दुनिया को
दो से चार और फिर छै:
धीरे-धीरे पत्तियां बढ़ने लगी
ढांकने लगी
अपनी ही छाँव से,
नाजुक जड़ों को
धूप में भी बनाये रखी
अपने-अपने हिस्से की नमी
अपनी एकता की…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 29, 2014 at 10:30pm — 14 Comments
मध्यम वर्गीय परिवार में पला-बड़ा मुकेश, अपने छोटे से शहर से अच्छे प्राप्तांक से स्नातक की डिग्री लेकर बड़े शहर में प्रसिद्द निजी शिक्षण संस्था से प्रबंधन की डिग्री लेना चाहता है. आर्थिक समस्या के कारण उसे संस्था में प्रवेश नही मिल पा रहा है उसने कई बार संस्था के प्रबंध-समूह से शुल्क में कमी करने की गुजारिश की, लेकिन शिक्षा भी तो व्यापार ही सिखाती है. अपने ही शहर के दो और छात्रों को उसी प्रसिद्द निजी संस्था की गुणवत्ता बताकर, प्रवेश दिलवाने से मुकेश के पास अब एक वर्ष के रहने और खाने के पूँजी…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 19, 2014 at 11:34pm — 6 Comments
" भाई! रामौतार.. यह साल तो खेती के हिसाब से बहुत ही बढ़िया रहा. काश! ऐसा हर साल ही होता रहे " दिनेश ने अपनी हथेली पर तंबाकू मे चूना लगाकर , रगड़ते हुए कहा
" हाँ भाई! दिनेश.. सच इस बार, हर साल की तुलना मे अतिवृष्टि से थोड़ी कम फसल ज़रूर हुई लेकिन लोक-सभा और विधान- सभा चुनाव के रहते सरकारों ने खूब मुआवज़ा भी दिया और फसल बीमा को भी मंज़ूरी दिलवाई , तो देखो न! दोगुने से भी ज्यादा बचत हो गई " रामौतार ने दिनेश की हथेली पर से मली हुई तंबाकू अपने मुंह में दबाते हुए…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on September 15, 2014 at 8:30pm — 12 Comments
रमेश अपने बेटे व् त्यौहार पर आई हुई अपनी बहन के बेटे को, लेकर बाजार गया था, उसकी बहन कल अपने घर जाने वाली है. सोचा शायद उसके बेटे को कुछ दिलवा दिया जाये, उसे कुछ सस्ते से कपडे एक दुकान से दिला लाया है. बहन के बेटे ने भी निसंकोच उन्हें स्वीकार कर लिया. बाजार में रमेश का बेटा जिद करता रहा पर , उसने अपने बेटे को कुछ नही दिलवाया है ...
“ पापा..!! मुझे तो वो ही वाले ब्रांड के कपडे चाहिए जो मैंने पसंद किये थे, कुछ भी हो उसी दुकान से दिलवाना पड़ेगा आपको..” रमेश के बेटे ने, रमेश…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 29, 2014 at 2:08pm — 8 Comments
मंदबुद्धि और भोला रामदीन वर्षों से अपने परिवार व् गाँव से दूर , दूसरे गाँव में काम करके अपने परिवार में अपनी पत्नी व् बेटे का पालन करते-करते, विगत कुछ महीनों से बहुत थक चुका है. शरीर से बहुत कमजोर भी हो गया है , आखिर उम्र भी पचपन-छप्पन के लगभग जो हो गई. अब तो कभी-कभी खाना ही नही खा पाता. पहले कई वर्षों तक रामदीन का मालिक उसके परिवार तक उसकी पगार पंहुचा दिया करता था. अब रामदीन का बेटा बड़ा हो गया है, कमाने भी लगा है अपने ही गाँव में. कुछ महीनों से उसकी पगार लेने भी आता जाता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 20, 2014 at 1:12am — 42 Comments
देखो ! न.. बेचारा नरेश बड़े शहर में नौकरी कर, अपनी पत्नि व् छोटे से बेटे के साथ-साथ गाँव में अपनी बूढी विधवा माँ और दो कुवांरे निकम्मे भाइयों का भी पालन करता रहा. उसने कई बार अपने दोनों भाइयो को काम-धंधे से लगवाया, किन्तु दोनों की मक्कारी और माँ के लाड़-प्यार ने उन्हें हमेशा से कामचोर भी बना रखा था.
हाँ भाई ! अभी पिछले माह ही तो सड़क दुर्घटना में नरेश की मौत हुई थी और देखो तो बेचारे नरेश की विधवा पत्नी और बेटे को घर से बाहर निकाल दिया, दोनों हरामी भाइयों ने. कम से कम ,माँ को तो…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 11, 2014 at 1:59am — 12 Comments
सुरेश रात-दिन कितनी भी शरीर-तोड़ मेहनत कर ले, अपनी पत्नि रजनी और दोनों बच्चों के खर्च के साथ-साथ मोबाईल, मोटर-साइकिल,मकान का किराया सब कुछ वहन नहीं कर सकता. अब पेट काटकर धीरे-धीरे अपना घर बनाना शुरू तो कर दिया पर कभी सीमेंट ख़त्म, तो कभी लोहा.
लेकिन.. जब से सुरेश से कहीं ज्यादा कमाने वाले मित्र, अशोक का उसके यहाँ आना-जाना शुरू हुआ है, तब से घर का काम दिन दोगुना -रात चौगुना चल रहा है. आजकल तो सुरेश अपने घर के बंद दरवाजे के बाहर अशोक के जूतों को देख, अपने नए बन रहे घर कि ओर चला…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 3, 2014 at 12:30pm — 30 Comments
बचपन से देवेश को एक तिरष्कार, जो कभी मोहल्ले के दूसरे बच्चों या उनके पालकों द्वारा झिड़की भरे अंदाज से मिलता रहा था. इस वजह से देवेश का बचपन हमेशा एक डर और निरंतर टूटे हुए आत्मबल में गुजरा. इन्ही मापदंडों के अनुसार अपनी पहचान को तरसते, आज वो बड़ा हो चुका है. निकला है एक सामजिक कार्यक्रम में शामिल होने को, अपनी एक पहचान और बहुत सारा आत्मबल लेकर.... भीड़ में जो उसे पहचानते है वो लोग उसे अनदेखा कर रहे थे . और जो उसे नही पहचानते , वो लोग जानने की कोशिश में लगे हुए है.....
“अरे..!…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 29, 2014 at 11:16am — 24 Comments
“ अरे! बेटा..तैयार हो रहे हो. अगर बाहर तक जा रहे हो तो अपने पिता कि दवाई ले आओ, कल कि ख़त्म हुई है”
“ अरे! यार मम्मी!! मैं जब भी बाहर निकलता हूँ , आप टोंक देती हो. आपको पता है न, हमारी पूरी एन.जी.ओ. की टीम पिछले हफ्ते से गरीब और असहाय लोगों कि सहायता के लिए गाँव-गाँव घूम रही है. शायद ! आप जानती नही हो, अभी मेरी सबसे बढ़िया प्रोग्रेस है पूरी टीम में ”
जितेन्द्र ‘गीत’
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2014 at 1:30pm — 26 Comments
" अरे..! आओ बेटा रजनी, और सुनाओ कैसी हो..? . बड़े दिनों बाद आना हुआ.. अरे हाँ तुमने अपने बेटे , बिट्टू को नही लाई. वो वहां तुम्हारे बिन रोयेगा तो.." राधेश्याम जी ने अखबार के पन्नो की घड़ी करते हुए कहा
" प्रणाम चाचाजी....सब कुछ कुशल है.. बिट्टू तो बहुत परेशान करने लगा था , दिन भर मम्मी मम्मी ..!! . मैंने उसे टेलीविजन का ऐसा शौक लगाया है की, उसे मेरी बिलकुल भी जरुरत नहीं. शाम तक आराम से जाउंगी.." रजनी ने बड़ी चैन की सांस लेते हुए…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 16, 2014 at 8:26pm — 20 Comments
“बेटा..! ऐसा मत कर, फेंक दे ये ज़हर की बोतल I ले हमने जमीन के कागज़ पर दस्तख़त कर दिए हैं. जा, अब मर्ज़ी इसे बेच या रख। बस अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ख़ुशी से रह । हमारा क्या है बेटा, हम कुछ दिन के मेहमान हैं,जी लेंगे जैसे-तैसे...” माँ रुंधे हुए गले से कहा.
सभी निगाहें बेटे पर केंद्रित थीं जो जहर की बोतल को आँगन में ही फेंक दस्तखत किये हुए कागजों को समेटने में व्यस्त था. लेकिन उसी बोतल को उठाकर अपनी कोठरी में ले जाते बापू पर किसी की भी नज़र नही पडी थी.
…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 11, 2014 at 11:30am — 30 Comments
आज कुछ....
आहट सी हुई, उस बंद
वीरान अन्धेरें से कोने में
जहाँ कभी
खुशियों की रौशनी थी
क्यों..?
आज उस बेजान लगने वाली
बंजर भूमि में
नमी सी आ गई
और दिखने लगा
एक आशा का अंकुरण
उस अंकुर में
जो कभी
हमने मिल कर
बोया था
हमारे वर्तमान और भविष्य
की छाँव
और फल के लिए
हाँ..! कुछ तो बाकी है
जो अमिट रहा
शायद....!
यही तो रिश्ता होता…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 2, 2014 at 2:05am — 10 Comments
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