For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

Sushil Sarna's Blog (835)

नमक सी जलन...

नमक सी जलन  ..... 

मत समेटो
हृदय में
शूल सी स्मृतियों को
ये
जब तक रहेंगी
अपने लावे से
विगत पलों को
सुलगाती रहेंगी
इसलिए
रोको मत
बह जाने दो
इन
नमक सी जलन देती
स्मृतियों की खारी ढेरियों को
आंसूओं के
प्रपात में

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 25, 2018 at 8:37pm — 7 Comments

क्षणिकाएं :

क्षणिकाएं :

१.
तूफ़ान का अट्टहास
विनाश का आभास
काँपती रही
लौ दिए की
झील की लहरों पर
देर तक
आंधी के साथ हुए
जीवन मृत्यु के संघर्ष को
याद करके

२.
श्वास
नितांत अकेली
देह
चिता की सहेली
जीवन
अनबुझ पहेली

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 23, 2018 at 6:37pm — 9 Comments

स्मृति ...

स्मृति ...

ज़िंदगी
जब
ढलान पर होती है
उसके अंतस में
बुझे अलाव होते हैं
एक शाश्वत डर की आहट होती है
कुछ अनसुलझे सवाल होते हैं
कुछ अधूरे जवाब होते हैं

ज़िंदगी
धीरे -धीरे
बिना पड़ाव के पथ पर
अग्रसर होती है
आँखों में ओस होती है
प्रभात और साँझ एक हो जाते हैं
आहट यथार्थ हो जाती है
और एक श्वास
अंतिम हो जाती है
ज़िंदगी
स्मृति हो जाती है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 21, 2018 at 5:45pm — 1 Comment

ज़रा से रूठ जाने पर ...

ज़रा से रूठ जाने पर ...





अजब

मिज़ाज है

नादाँ दिल का

तोड़ देता है

हर रस्म

उनके

ज़रा से रूठ जाने पर



जो लम्हे

मेरी हयात

बन कर आये थे

तारीकियों में

रूठ गए

हयात-ए-शरर के

ज़रा से रूठ जाने पर



क्या ख़बर

बाद मेरे फ़ना होने के

क्या गुजरी होगी

ख्वाब-ए-माहताब पर

यक़ीनन

मैंने ही नहीं

उनके लम्हों ने भी

पायी होगी सज़ा

ज़ार ज़ार रोने की

तन्हाईयों में

ख़ुद के ही

ज़रा से रूठ… Continue

Added by Sushil Sarna on May 17, 2018 at 1:01pm — No Comments

हरजाई ....

हरजाई ....

ये

वो गालियां हैं

जहां

अंधेरों में

सह्र होती है

उजाले उदास होते हैं

पलकों में

खारे मोती

होते हैं

बे-लिबास जिस्म,

लिपे -पुते चेहरे,

शायद

बाजार में

बिकने की

ये पहली जरूरत है

इक रोटी के लिए

सलवटों से खिलवाड़

रौंदे गए जिस्म की

बिलखती दास्ताँ हैं

भोर

एक कह्र ले कर आती है

पेट की लड़ाई

शुरू हो जाती है

दिन ढलने के साथ -साथ…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 16, 2018 at 11:30am — 2 Comments

नहीं जानती ...(350 वीं कृति )

नहीं जानती ...(350 वीं कृति )

नहीं जानती

तुम किस धागे से

रिस्ते हुए ज़ख्मों पर

ख़्वाबों का

पैबंद लगाओगे

नहीं जानती

तुम किस चाशनी में डुबोकर

ज़ख़्मी लम्हों को

मेरी आँखों की हथेली पर

सजाओगे

नहीं जानती

तार तार हुए

ख़्वाबों के लिबास

कैसे बेशर्मी को

नज़रअंदाज़ कर पाएंगे

मगर

जानती हूँ

तुम फिर से

मेरे

संग-रेज़ों में तकसीम ख़्वाबों को

अपने शीरीं…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 5:30pm — 4 Comments

यौवन रुत ...

यौवन रुत ...

चक्षु आवरण पर

प्रत्यूष का सुवासित स्पर्श

यौवन रुत की प्रथम अंगड़ाई का

प्रतीक था

आँखों की स्मृति वीचियों पर

अखंडित लालसाओं की तैरती नावें

बहुबंध में सिमटी

अमर्यादित अभिलाषाओं की

प्रतीक थी

मौन अनुबंधों के अंतर्नाद

निष्पंद देह में

उन्माद क्षणों के चरम अनुभूति के

प्रतीक थे

मयंक मुख पे

केश मेघों की अठखेलियाँ

कामनाओं की अनंत तृषा की

प्रतीक…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 4:59pm — 10 Comments

डूब गए ...

डूब गए ...

तिमिर
गहराने लगा
एक ख़ामोशी
सांसें लेने लगी
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


तैर रहे थे
निष्पंद से
कुछ स्पर्श
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


सुलग रहे थे
कुछ अलाव
चाहतों की
अदृश्य मुंडेरों पर
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


डूब गए
कई जज़ीरे
ख़्वाबों के
खामोश से तूफ़ान में
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 3:21pm — 2 Comments

संग दीप के .....

संग दीप के  ... 

जलने दो

कुछ देर तो

जलने दो मुझे

मैं साक्षी हूँ

तम में विलीन होती

सिसकियों की

जो उभरी थी

अपने परायों के अंतर से

किसी की अंतिम

हिचकी पर

मैं साक्षी हूँ

उन मौन पलों की

जब एक तन ने

दुसरे तन को

छलनी किया था

मैं

बहुत जली थी उस रात

जब छलनी तन

मेरी तरह एकांत में

देर तक

जलता रहा

मैं साक्षी हूँ

उस व्यथा की

जो…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 2:30pm — 4 Comments

क्षणिकाएं : ....


क्षणिकाएं : ....

१,
मौत
देती है
ज़िंदगी
मौत को

२.
शूल के
प्रतिबन्ध से
पुष्प
वंचित रहा
स्पर्श से

३.

मयंक
आधी खाई रोटी से
लुभा रहा था
अन्धकार को

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 8, 2018 at 12:27pm — 2 Comments

सुलगन :....

सुलगन :

तुम
अपना तमाम धुआँ
मुझे सौंप
चले गए
मुझे अकेला छोड़

मेरी देह
तुम्हारे धुएँ की गर्मी से
देर तक
ऐसे सुलगती रही
जैसे
गरम सिगरेट की
झड़ी हुई राख से
सुलगती है
कोई
ऐश -ट्रे
देर तक

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 7, 2018 at 4:21pm — 8 Comments

अपने भीतर ...

अपने भीतर ...





थक गया था

बरसों तक

अपने भीतर के एकांत को

जीते जीते

इसीलिये

एक दिन

अपने भीतर की दीवार को तोड़

मैं अदृश्य अदेह में

चला गया



अब जब मैं

स्वयं से बहुत दूर जा चुका हूँ

भूल चुका हूँ

भीतर लौटने की

तमाम राहें

तो अब मुझे

उद्वेलित कर रही हैं

अपने भीतर की

तमाम सुखद स्मृतियाँ

जो कभी गुजारी थी

मैंने

अपने भीतर के एकांत में



अब

सम्पूर्ण सृष्टि की भटकन

मेरा… Continue

Added by Sushil Sarna on May 5, 2018 at 4:39pm — 5 Comments

मजदूर ...

मजदूर ...

अनमोल है वो

जिसे दुनिया

मजदूर कहती है

इसी के बल से

धरातल पर

ऊंचाई रहती है

कहने को

मेरुदंड है वो

धरा के विकास का

आसमानों को छूती

अट्टालिकाएं बनाने वाला

जो

तिनकों की झोपड़ी में रहता है

वो

सृजनकर्ता

मजदूर कहलाता है

हर आज के बाद

जो

कल की चिंता में डूबा रहता है

कल का चूल्हा

जिसकी आँखों में

सदा धधकता रहता है

कम होती…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 3:49pm — 6 Comments

कल, आज और कल ....

कल, आज और कल ....

वर्तमान का अंश था

जो बीत गया है कल

अंश होगा वर्तमान का

आने वाला कल

वर्तमान के कर्म ही

बन जाते हैं दंश

वर्तमान से निर्मित होते

सृजन और विध्वंस

वर्तमान की कोख़ में

सुवासित

हर पल के वंश

वर्तमान से युग बनते

युग में कृष्ण और कंस

कागा धुन निष्फल होती

मोती चुगता हंस

चक्र सुदर्शन कर्म का

करे निर्धारित फल

कर्म बनाएं वर्तमान को

कल, आज और कल



सुशील सरना

मौलिक एवं…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 4:21pm — 8 Comments

नश्वरता .....

नश्वरता ....

तुम

कहाँ पहचान पाए

उस बुनकर की

आदि और अंत की

अनंत बुनती को

तुम

बुनकर बन

असफल प्रयास करते रहे

विधि के बनाये

आदि और अंत के

नग्न शरीर की

कृति पर

सच-झूठ ,अच्छा-बुरा ,

तेरा-मेरा ,पाप-पुण्य की सजावट से

दुनियावी वस्त्रों को

अलंकृत करने का

मैं

धागा था

तुम्हारे दर्द का

तुम

बुनकर हो कर भी

मुझे न पहचान पाए

जानते हो

उसकी

और…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 3:32pm — 12 Comments

मोहब्बत ...

मोहब्बत ...

गलत है कि 

हो जाता है 

सब कुछ फ़ना 

जब ज़िस्म 

ख़ाक नशीं 

हो जाता है 

रूहों के शहर में 

नग़्मगी आरज़ूओं की 

बिखरी होती 

ज़िस्म सोता है मगर 

उल्फ़त में बैचैन 

रूह कहाँ सोती है

मेरे नदीम 

न मैं वहम हूँ 

न तुम वहम…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 25, 2018 at 7:16pm — 10 Comments

चाँद बन जाऊंगी ..

चाँद बन जाऊंगी ..

कितनी नादान हूँ मैं

निश्चिंत हो गई

अपनी सारी

तरल व्यथा

झील में तैरते

चाँद को सौंपकर

हर लम्हा जो

एक शिला लेख सा

मेरे अवचेतन में

अंगार सा जीवित था

निश्चिंत हो गई

उसे

झील में तैरते

चाँद को सौंपकर

उम्र कैसे फिसल गई

अपने तकिये पर

तुम्हारी गंध को

सहेजते -सहेजते

कुछ पता न चला

निश्चिंत हो गई

अपनी चेतना के जंगल में व्याप्त …

Continue

Added by Sushil Sarna on April 23, 2018 at 11:30am — 10 Comments

निष्कलंक कृति ...

निष्कलंक कृति .....



अवरुद्ध था

हर रास्ता

जीवन तटों पर

शून्यता से लिपटी

मृत मानवीय संवेदनाओं की

क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर

इंसानी दरिंदों के

वहशी नाखूनों से नोची गयी

अबोध बच्चियों की चीखों से

साक्षात्कार करने का

रक्त रंजित कर दिए थे

वासना की नदी ने

अबोध किलकारियों को दुलारने वाले

पावन रिश्तों के किनारे

किंकर्तव्यमूढ़ थी

शुष्क नयन तटों से

रिश्तों की

टूटी किर्चियों की

चुभन…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments

क्षणिकाएं ....

क्षणिकाएं ....

१.
खेल रही थी
सूर्य रश्मियाँ
घास पर गिरी
ओस की बूंदों से
वो क्या जानें
ये ओस तो
आंसू हैं
वियोगी
चाँद के

....................

२.

जीवन
मिटने के बाद भी
ज़िंदा रहता है
स्मृति के गर्भ में
अवशेष बन
श्वासों का

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 12:16pm — 6 Comments

इन्तिजार ....

इन्तिजार ....

दफ़्न कर दिए

सारे जलजले

दर्द के

इश्क़ की

किताब में

ढूंढती रही

कभी

ख़ुद में तुझको

कभी

ख़ुद में ख़ुद को

मगर

तू था कि बैठा रहा

चश्म-ए -साहिल पर

इक अजनबी बन के

मैं

तैरती रही

एक ख़्वाब सी

तेरे

इश्क़ की

किताब में

राह-ए-उल्फ़त में

दिल को

अजीब सी सौग़ात मिली

स्याह ख़्वाब मिले

मुंतज़िर सी रात मिली

यादों के सैलाब मिले

चश्म को बरसात…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 18, 2018 at 12:30pm — 7 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
5 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
5 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post दीप को मौन बलना है हर हाल में // --सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। लम्बे अंतराल के बाद पटल पर आपकी मुग्ध करती गजल से मन को असीम सुख…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Nov 17
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Nov 17
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Nov 17

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service