2122 1122 1122 22
सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,
उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।
है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा
सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।
आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ
अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।
जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन
मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।…
Added by Dr.Prachi Singh on February 21, 2016 at 2:30pm — 40 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 17, 2016 at 12:27pm — 4 Comments
माही मुझे चुरा ले मुझसे, मेरी प्याली खाली कर दे।
रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।
मैं बदरी तू फैला अम्बर
मैं नदिया तू मेरा सागर,
बूँद-बूँद कर प्यास बुझा दे
रीती अब तक मन की गागर,
लहर-लहर तुझमें मिल जाऊँ, अपनी लय भीतर-बाहर दे।
रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।
शब्द तू ही मैं केवल आखर
तू तरंग, मैं हूँ केवल स्वर,
रोम-रोम कर झंकृत ऐसे
तेरी ध्वनि से गूँजे अंतर,
माही दिल में मुझे बसा कर, कण-कण आज तरंगित…
Added by Dr.Prachi Singh on February 16, 2016 at 1:37pm — 3 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:22pm — 17 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:19pm — 3 Comments
212 212 212 212
संग सुख-दुख सहेंगे ये वादा रहा।
साथ हर वक्त देंगे ये वादा रहा।
चाँदनी रात में ओढ़ कर चाँदनी
तुम जो चाहो, जगेंगे ये वादा रहा।
हाथ सर पर दुआओं का बस चाहिए
हम भी ऊँचा उढ़ेंगे ये वादा रहा।
राह काँटो भरी ये पता है हमें
हौसलों पर बढ़ेंगे ये वादा रहा।
दीप बाती से हम, जब भी मिल कर जले
हर अँधेरा हरेंगे ये वादा रहा।
देह के पार जो चेतना द्वार है
हम वहाँ पर मिलेंगे…
Added by Dr.Prachi Singh on February 14, 2016 at 11:30am — 5 Comments
2122 2122 2122 212
हाय दिल में बस गयी एक गीत गाती सी नज़र ।
कुछ बताती सी नज़र और कुछ छुपाती सी नज़र ।
उसकी आहट से सिहर उठते हैं मेरे जिस्मो-जाँ
बाँचती है मुझको उसकी सनसनाती सी नज़र ।
ज़िन्दगी के फलसफे को पंक्ति दर पंक्ति पढ़ा
क्या गहनता नाप पाती सरसराती सी नज़र ?
आज फिर खामोश सहमा सा कहीं आँगन कोई
सूँघ ली क्या बच्चियों ने बजबजाती सी नज़र ?
कतरा कतरा हो रही है रूह जैसे अजनबी
मुझको मुझसे छीनती है हक़ जताती सी नज़र।…
Added by Dr.Prachi Singh on February 10, 2016 at 4:00pm — 9 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 8, 2016 at 12:30pm — 7 Comments
2122 2122 2122 2122
बत्तियाँ सारी बुझा कर द्वार पर साँकल चढ़ा कर
मस्त वो अपनी ही धुन में मुझको मुझसे ही चुरा कर
साँस हर मदहोश करती हाथ में खुशबू बची बस
फूल सब मुरझा चुके हैं राह में काँटे बिछा कर
क्या उसे एहसास भी है उस सुलगती सी तपिश का
जिस सुलगती राख में वो चल दिया मुझको दबा कर
सींच कर अपने लहू से ख्वाब की मिट्टी पे मिलजुल
जो लिखी थी दास्तां वो क्यों गया उसको मिटा कर
मेरी पलकों पर सजाए उसने ही सपने सुनहरे
जब कहा…
Added by Dr.Prachi Singh on February 6, 2016 at 8:00pm — 13 Comments
सुधि-बुधि बिसराई
व्याकुल पनीली आँखें,
अधखुले केश, बेसुध आँचल
अस्त-व्यस्त आभूषण...
कराहती सिसकती चीत्कारती
पल-पल जमती जाती करुण वाणी से
कहाँ-कहाँ नहीं पुकारा-
पर,
लौट-लौट आती थी
हर पुकार की कर्णपटों को बेधती
हृदय विदारक प्रतिध्वनि...
लिख चुकी थी नियति
यशोधरा के भाग्य में
अंतहीन निष्ठुर विरह...
कितनी प्रबल रही होगी
सत्यान्वेषण को आतुर
अंतरात्मा की वो पुकार,
कि नहीं थम…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 2, 2016 at 11:30pm — 4 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on January 31, 2016 at 2:46pm — 9 Comments
मृग छाया सी प्रीत बस, दे समीप्य का भास
मधुर मोहिनी बन करे, बैरी खुद की श्वास
बाह्य प्राप्ति से पूर्णता, मिलती कब पर्याप्त
मिले न कुछ वो भी मिटे, जो भी हो निज व्याप्त
नहीं एक भी वायदा, नहीं बंध से युक्त
प्रीत प्रखर निभती तभी, मन हों जब उन्मुक्त
प्रीत न कलुषित कर कभी, आरोपित कर चाह
मन इच्छित हर कामना, लीले सलिल प्रवाह
अकथ मौन सुन सब करें, मन ही मन संवाद
जैसी जिसकी वासना, वैसा ही…
Added by Dr.Prachi Singh on January 7, 2016 at 1:00pm — 11 Comments
हौसलों के पंख ओढ़े
स्वप्न फिर थिरके सभी,
चूम कर अपना धरातल
उड़ चले विस्तार को...
क्या हुआ गत वक्त की यदि बेड़ियाँ थीं क्रूरतम
क्या हुआ जख्मी हृदय यदि दर्द से होते थे नम
स्वप्न में कण भर धड़कते प्राण जब तक शेष हैं
जीतती है आस तब तक, हारते विद्वेष हैं
हर विगत की आँच पर रख
नर्म भावों की छुअन,
बढ़ चले हैं स्वप्न फिर
युग के नवल शृंगार को...
हो निशा चाहे घनेरी ये चलेंगे पार तक
राह नित गढ़ते बढ़ेंगे रौशनी केे द्वार तक…
Added by Dr.Prachi Singh on December 27, 2015 at 1:00am — 13 Comments
ओढ़नी ओढ़ कर मैं पिया प्रेम की
प्रार्थना कर रही, चाँद वरदान दे
मन महकता रहे प्रीत की गंध से
दो हृदय एक हों प्रेम के बंध से
प्रीत अक्षय सदा भाग्य अनुपम मिले
जिस्म दो हैं मगर एक ही जान दे...
ओढ़नी ओढ़ कर...
मैं पिया के हृदय में सदा ही रहूँ
वो ही सागर मेरे, मैं नदी सी बहूँ
चाँद, हर इक नज़र से बचाना उन्हें
दीर्घ आयु सदा मान-सम्मान दे
ओढ़नी ओढ़ कर...
मेंहदी हाथ में रच महकती रहे
और लाली…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 30, 2015 at 2:30pm — 18 Comments
मूक अंतर्वेदना स्वर को तरसती रह गयी
आँख सागर आँसुओं का सोख पीड़ा सह गयी
मानकर जीवन तपस्या अनवरत की साधना
यज्ञ की वेदी समझ आहूत की हर चाहना
मन हिमालय सा अडिग दावा निरा ये झूठ था
उफ़! प्रलय में ज़िंदगी तिनके सरीखी बह गयी
मूक अंतर्वेदना....
खोज कस्तूरी निकाली रेडियम की गंध में
स्वप्न का आकाश भी ढूँढा कँटीले बंध में
दिख रही थी ठोस अपने पाँव के नीचे ज़मीं
राख की ढेरी मगर थी भरभरा कर ढह गयी
मूक…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 26, 2015 at 9:30am — 11 Comments
बादलों की ओट से उधार लूँ ज़रा
चाँद आज तुझको मैं निहार लूँ ज़रा..
कँपकँपा रहे अधर नयन मुँदे मुँदे
साँस की छुअन से ही पुकार लूँ ज़रा..
शब्द शून्य सी फिज़ा हुई है पुरअसर
सिहरनों से रूह को सँवार लूँ ज़रा..
चाँद भी पिघल के कह रहा मचल मचल
चाँदनी में प्यार का निखार लूँ ज़रा..
अब महक उठे बहक उठे प्रणय के पल
इन पलों में ज़िन्दगी…
Added by Dr.Prachi Singh on September 27, 2015 at 1:00am — 24 Comments
बन सौभाग्य सँवारे मुझको
सावन घिरे पुकारे मुझको
हाथ पकड़ झट कर ले बंदी
क्या सखि साजन?न सखि मेहंदी
उसने हाय! शृंगार निखारा
प्रेम रचा मन भाव उभारा
प्रेम राह पर गढ़ी बुलंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
अंग लगे तो मन खिल जाए
खुशबू साँसों को महकाए
प्यारी उसकी घेराबंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
उसमें महक दुआओं की है
उसमें चहक फिजाओं की है
हिमशीतल निर्झर कालिंदी
क्या…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 17, 2015 at 8:15am — 14 Comments
सपनों के झिलमिल से जुगनू पलकों पर पल भर आ ठहरे...
नन्हें पर हैं, पर भोला मन
नभ छू ले करता अभिलाषा,
कंटीले तारों की जकड़न
देगी केवल हाथ हताशा,
अन्धकार नें बरबस नोचे परियों के भी पंख सुनहरे...
सपनों के झिलमिल से जुगनू पलकों पर पल भर आ ठहरे...
सपनों को मंज़ूर हुआ कब
ढुलक आँख से झरझर बहना,
हँसकर स्वीकृत किया उन्होंने
सीपी में मोती बन रहना,
सागर ने अपने सीने में राज़ छुपाए हैं कुछ गहरे...
सपनों के…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on June 4, 2015 at 9:30pm — 15 Comments
रे पथिक, रुक जा! ठहर जा! आज कर कुछ आकलन
बाँच गठरी कर्म की औ’ झाँक अपना संचयन
हैं यहाँ साथी बहुत जो संग में तेरे चले
स्वप्न बन सुन्दर सलोने कोर में दृग की पले,
प्रीतिमय उल्लास ले सम्बन्ध संजोता रहा
या कपट,छल,तंज से निर्मल हृदय तूने छले ?
ऊर्ध्वरेता बन चला क्या मुस्कुराहट बाँटता ?
छोड़ आया ग्रंथियों में या सिसकता सा रुदन ?.......रे पथिक..
कर्मपथ होता कठिन, तप साधता क्या तू रहा ?
या नियतिवश संग…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on April 29, 2015 at 5:00pm — 22 Comments
स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार
हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार
ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप
हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप
कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान
प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान
भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?
सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !
प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on April 26, 2015 at 11:30am — 19 Comments
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