संवेदनाओं के
अंतर गुन्जन पर
भाव लहरियों का
निःशब्दित नृत्य..
इस ओर से उस छोर
उस छोर से इस ओर
विलयित तटबन्ध..
लहर लहर मन
आनंदित 'नील सागर'
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Prachi Singh on October 1, 2013 at 9:00pm — 54 Comments
आँख मिचौली खेलता, मुझसे मेरा मीत
अंतरमन के तार पर, गाए मद्धम गीत
जैसे सूरज में किरण, चन्दन बसे सुगंध
प्रियतम से है प्रीत का, मधुरिम वह सम्बन्ध
क्यों अदृश्य में खोजता, मनस सत्य के पाँव
सहज दृश्य में व्याप्त जब, उसकी निश्छल छाँव
संवेदन हर गुह्यतम, सहज चित्त को ज्ञप्त
आप्त प्रज्ञ सम्बुद्ध वो, ज्ञानांजन संतृप्त
प्रीत प्रखरता जाँचती, नित्य नियति की चाल
मोहन लोभन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 29, 2013 at 1:30am — 28 Comments
छंद त्रिभंगी : चार पद, दो दो पदों में सम्तुकांतता, प्रति पद १०,८,८,६ पर यति, प्रत्येक पद के प्रथम दो चरणों में तुक मिलान, जगण निषिद्ध
रज कण-कण नर्तन, पग आलिंगन, धरती तृण-तृण, अर्श छुए
कर तन मन चंचल, फर-फर आँचल, मुक्त उऋण सी, पवन बहे
सुन क्षण-क्षण सरगम, अन्तर पुर नम, विलयन संगम, भाव बिंधे
सुन्दरतम नियमन, श्रुति अवलोकन, लय आलंबन, सृजन सुधे
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Prachi Singh on September 20, 2013 at 8:00pm — 25 Comments
१२२२...१२२२
नज़र दर पर झुका लूँ तो
मुहब्बत आज़मा लूँ तो
तेरी नज़रों में चाहत का
समन्दर मैं भी पा लूँ तो
बदल डालूँ मुकद्दर भी
अगर खतरा उठा लूँ तो
सियह आरेख हाथों का
तेरे रंग में छुपा लूँ तो
तेरी गुम सी हर इक आहट
जो ख़्वाबों में बसा लूँ तो
तुम्हारे संग जी लूँ मैं
अगर कुछ पल चुरा लूँ तो
न कर मद्धम सी भी हलचल
मैं साँसों को…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 13, 2013 at 9:30am — 55 Comments
अविश्वास !
प्रश्नचिन्ह !
उपेक्षा ! तिरस्कार !
के अनथक सिलसिले में घुटता..
बारूद भरी बन्दूक की
दिल दहलाती दहशत में साँसे गिनता..
पारा फाँकने की कसमसाहट में
ज़िंदगी से रिहाई की भीख माँगता..
निशदिन जलता..
अग्निपरीक्षा में,
पर अभिशप्त अगन ! कभी न निखार सकी कुंदन !
इसमें झुलस
बची है केवल राख !
....स्वर्णिम अस्तित्व की राख !
और राख की नीँव पर
कतरा-कतरा ढहता
राख के घरौंदे…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 12, 2013 at 4:00pm — 25 Comments
सद्गुरु मणि अनमोल है, जीवन दे चमकाय
पारस तो कुंदन करे, गुरु पारस कर जाय //१//
गुरु बंधन से मुक्त कर, ब्रह्म मार्ग दिखलाय
छद्म समझिए रूप वह, जो बंधन जकड़ाय //२//
गुरु की कृपा अनंत है, गुरु का प्रेम अथाह
श्रद्धानत जो मन हुआ, तद्क्षण पाई राह //३//
भटका गुरु-गुरु खोजता, गुरु मिलया नहिं कोय
ज्ञान पिपासा जब जगी, प्रकट स्वतः गुरु होय //४//
गुरु का आदि न अंत है, गुरु नहिं केवल गात्र
एक अनश्वर सत्व है,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 5, 2013 at 2:53pm — 38 Comments
हे देवपुरुष !
हे ब्रह्मस्वरूप !
कहती हूँ तुम्हें - श्रीकृष्ण !
पर
माधव, मैं -
वंशी धुन सम्मोहित
प्रेम…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 3, 2013 at 4:00pm — 33 Comments
हे धर्मराज! स्वीकार मुझे, प्रति क्षण तेरा संप्रेष रहे
यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
लोभ-मोह के छद्माकर्षण, प्रज्ञा से नित कर विश्लेषण,
इप्सा तर्पण हो प्रतिपूरित, मन में तृष्णा निःशेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल, निज प्राणार्पण हुतशेष रहे
कर्तव्यों का प्रतिपालन कर,निष्काम कर्म प्रतिपादन कर,
फल से हो सर्वस मुक्त मनस,बस नेह हृदय मधु-शेष रहे,
यह जीवन यज्ञ चले अविरल निज प्राणार्पण हुतशेष…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 31, 2013 at 8:30pm — 37 Comments
सितार के
सुरमई तारों की झंकार से
गूँज उठी
स्वप्न नगरी..
समय के धुँधलके आवरण से
शनैः शनैः
प्रस्फुटित हो उठी
एक आकृति
अजनबी
अनजान..
स्वप्नीली पलकें
संतृप्त मुस्कान
प्राण-प्राण अर्थ
निःशब्द..
निःस्पर्श स्पंदन
कण-कण नर्तन
क्षण विलक्षण
मन प्राण समर्पण
सखा-साथी-प्रिय-प्रियतम-प्रियवर
अनकहे वायदे, गठबंध परस्पर - हमसफ़र !
Added by Dr.Prachi Singh on August 27, 2013 at 7:00pm — 23 Comments
बोलो नेहा ! इतनी उदास क्यों हो ?
पर सूनी आँखों में कोई ज़वाब न देख, अपने हक के लिए कभी एक शब्द भी न कह पाने वाली दिव्या, अचानक हाथ में प्रोस्पेक्टस के ऊपर एडमीशन फॉर्म के कटे-फटे टुकड़े लिए, बिना किसी से इजाज़त मांगे और दरवाजा खटखटाए बगैर, सीधे ऑफिस में घुसी और डीन की आँखों में आँखे डाल गरजते हुए बोली “देखिये और बताइये– क्या है ये? आपकी शोधार्थी नें एडमीशन फॉर्म के इतने टुकड़े क्यों कर डाले? दो साल से सिनॉप्सिस तक प्रेसेंट नहीं हुई, क्यों ? इतना कम्युनिकेशन गैप? आखिर समय क्यों नहीं…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 22, 2013 at 6:30pm — 31 Comments
फासलों की
हर पर्त को चीरते
चंद शब्द...
जिनका चेहरा,
कभी दिखाई ही नहीं देता..
आखिर देखूँ भी तो क्यों ?
लुका छिपी में उलझाते मुखौटे !
जिनकी आवाज,
कभी सुनायी ही नहीं देती..
आखिर सुनूँ भी तो क्यों ?
कृत्रिमता में गुँथे बंधित अल्फाज़ !
जिनके अर्थ,
कभी बूझने नहीं होते..
आखिर बूझूँ भी तो क्यों ?
सिर्फ भ्रमित करते से दृश्य तात्पर्य !
जबकि,
हृदय गुहा…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 18, 2013 at 12:00am — 39 Comments
प्रियतम कैसा यह विरह, तन्हाँ मैं निश-प्रात ,
मधुरिम-मधुरिम वेदना, पिया प्रेम सौगात //१//
अथक चला अब सिलसिला, मन ही मन संवाद ,
कसमें वादे नित गुनूँ, उर झूमे आह्लाद //२//
जुल्फों के छल्ले बना, खेले मन बेचैन,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 15, 2013 at 8:00pm — 36 Comments
अनाद्यानंत आकाश में तैरते
Added by Dr.Prachi Singh on July 12, 2013 at 12:00pm — 30 Comments
प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments
गज़ल
बह्र : 2122 1212 22
जाल सैयाद नें बिछाया है
कैद में सोन पंछी आया है..
टीसता ज़ख्म पीपता रिश्ता
सब्र की आड़ में छिपाया है..
हारी बाज़ी पलट सका वो ही
संग…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on June 3, 2013 at 10:30pm — 25 Comments
//ॐ//
हंसवाहिनी वाग्देवी शारदे उद्धार कर
अर्चना स्वीकार कर माँ, ज्ञान का विस्तार कर
स्वप्न की साकारता संस्पर्श कर लें उंगलियाँ
ज्ञान की अमृत प्रभा द्रुमदल की खोले पँखुड़ियाँ
नवल सार्थक कल्पना में हौंसलों की धार कर …
Added by Dr.Prachi Singh on May 28, 2013 at 8:00pm — 37 Comments
छंद झूलना
(२६ मात्रा, ७,७,७,५ पर यति , चार पद , अंत गुरु लघु )
गुरु ज्ञान दो, उत्थान दो, वंदन करो स्वीकार
अनुभव प्रवण, उज्ज्वल वचन, हे ईश दो आधार
तज काग तन, मन हंस बन, अनिरुद्ध ले विस्तार
प्रभु के शरण, जीवन- मरण, पाता सहज उद्धार.....
Added by Dr.Prachi Singh on April 23, 2013 at 11:00pm — 35 Comments
संप्रेषित शुभकामना, स्वजन करें स्वीकार
नव-संवत शुभ आगमन, सृष्टि सृजन त्यौहार
सृष्टि-सृजन त्यौहार, पुलक शुभ वर्ष मनाएँ
मनस चरित व्यवहार साध निज गौरव पाएं
संकल्पित हो कर्म, धर्म को करें प्रतिष्ठित
राष्ट्र करे उत्थान, भावना शुभ संप्रेषित
Added by Dr.Prachi Singh on April 10, 2013 at 8:30pm — 28 Comments
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
गूँज लें सारी फिजाएँ
युगल मन मल्हार गाएँ
चंद्रिकामय बन चकोरी
प्रेम उद्घोषण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...
मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित
तोड़ कर हर बंध शापित
नेह पूरित निर्झरित उर
गान से तर्पण करूँ...
प्रीत शब्दातीत को…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on March 31, 2013 at 12:00pm — 28 Comments
घण्टियों की
खनखनाती खिलखिलाहट
से गूँज उठी
हर पूजास्थली..
मन्नत की
लाल चूनर और रंगीन धागों के
ग्रंथिबंधन में आबद्ध हुए सारे स्तम्भ
और बरगद पीपल की हर शाख..
माँ के दर फैलाये झोली,
जोड़े कर, झुकाए सर,
नवदम्पत्ति मांग रहे हैं भिक्षा-
पुत्र रत्न की...
और हम अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं !!!
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उड़ान भरने को व्याकुल
पर फड़फड़ाते…
Added by Dr.Prachi Singh on March 8, 2013 at 10:30am — 24 Comments
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