Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 22, 2015 at 5:00pm — 8 Comments
वातानुकूलित कक्ष में बैठकर
तुम करते हो
देश के लिए
देश की जनता के लिये
अच्छे दिन लाने के लिये
जी –तोड़ काम
पर काम किसे कहते है
तुम नहीं जानते
और यदि जानते हो
तो आ जाओ साथ
हो जांए आपस में दो-दो हाथ
मैं एक ओर
चलाता हूँ कुदाल
दूसरा छोर
मेरे भाई तू संभाल
देखते है किसका
है पसीना लहू बनता
देश मेरे दोस्त
लफ्फाजी से नहीं चलता
कोई खेत सोना
यूँ ही नहीं…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2015 at 5:30pm — 1 Comment
मेरी कराहों की
लोरियां सुनकर
तुम सो गए
रस्सियों से जकड़ी
मेरी देह से
रिसते लहू ने
तुम्हारा मुख धोया
मेरे पसीने की दुर्गन्ध से
तुम जग गए
तुमने और कस दी
मेरी रस्सियाँ
जो मांस को चीर कर
हड्डियों तक धंस गयीं
मेरी पीड़ा कंठ से निकल
कपाल में फंस गयी
तब तुमने किया
एक विराट…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 25, 2015 at 9:30pm — 6 Comments
हमें भी न आया
तू ऐसा बीज थी
जिसे न मिली धूप
न हवा, न पानी
और न कोई खाद
फिर भी तू पनपी
पनपी ही नही
बन गयी एक पेड़
बरगद सी छाया
फिर तूने बसाया
अपना संसार
और कहलाई माँ
फिर बांटी तेजस धूप
पवन में भरी गंध
दूध से सींचे पौधे
हृदय को मथकर
लाई खाद
हुए तेरे
लख-लख पूत आबाद…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2015 at 8:38pm — 15 Comments
पढाया गया था-
‘मैन इज ए सोशल एनिमल’
हमने भी रट लिया
औरों की तरह
पर मन नहीं माना
कहाँ पशु और कहाँ हम
पर एक दिन जाना
पक्षी और पशु
दोनों ही बेहतर है
हम जैसे मानव से
क्योंकि
भूख सबको लगती है
पर पक्षी
न घुटने टेकता है
और न हाथ फैलाता है
रोता भी नहीं
गिडगिडाता भी नहीं
हाथ तो मित्र
पशु भी नहीं फैलाते
बल्कि वे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 1:13pm — 9 Comments
हजज मुसम्मन सालिम
1222 1222 1222 1222
तुम्हारी आँख का जादू ज़रा हमराज देखेंगे
भरा कैसा है सम्मोहन यही तो आज देखेंगे
कभी मैंने तुम्हें चाहा अभी तक दर्द है उसका
रहेगी कोशिशें मेरी तेरे सब काज देखेंगे
नहीं आसां मुहब्बत ये कलेजा मुख को आता है
यहाँ पर वश न था मेरा गिरेगी गाज देखेंगे …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 20, 2015 at 1:30pm — 5 Comments
2122 2122 2122 2
फाईलातुन फाईलातुन फाईलातुन फा
हम किसी से मिलने उसके घर नहीं जाते
आप भी है जिद में मेरे दर नहीं आते
बेबसी महबूब की किस भाँति समझाऊँ
आज भी उनको मेरे चश्मेतर नहीं भाते
जिन्दगी बीती है उनकी सूफियाना सी
मस्त तो है रहते साजो पर नहीं गाते
इश्क में हूँ जांबलब मेरा भरोसा क्या
फ़िक्र उनको कब है चारागर नहीं लाते
एक साया उसका बांटी जिन्दगी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 16, 2015 at 9:30pm — 34 Comments
हजज मुरब्बा सालिम
1222 1222
खुदा से जो भी डरता है
खुदा को याद करता है
समय है जानवर ऐसा
जरा धीरे से चरता है
कृषक की छातियाँ देखो
पसीना नित्य झरता है
बिछे जब राह में काँटे
पथिक पग सोंच धरत़ा है
भला है जानवर उससे
उदर जो आप भरता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 14, 2015 at 9:00pm — 20 Comments
रमल मुसम्मन सालिम
2122 2122 2122 2122
खो गए जो मीत बचपन के सिकंदर याद आते
ध्यान में आह्लाद के सारे समंदर याद आते
गाँव की भीगी हवा आषाढ़ के वे दृप्त बादल
और पुरवा के उठे मादक बवंडर याद आते
आज वे वातानुकूलित कक्ष में बैठे हुए हैं
किंतु मुझको धूप में रमते कलंदर याद आते
नित्य गोरखधाम में है गूँजती ‘आदित्य’ वाणी
देश को…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 11, 2015 at 11:00am — 19 Comments
रमल मुरब्बा सालिम
2122 2122
क्या ज़माने आ गये हैं ?
बेशरम शर्मा गये हैं I
था भरोसा बहुत उनका
वे मगर उकता गये हैं I
पोंछ लें आंसू कृषक अब
स्वर्ण वे बरसा गये हैं I
देखकर अंदाज तेरे
हौसले मुरझा गये है I
लाजिम है हो नशा भी
जाम जब टकरा…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 9, 2015 at 11:34am — 24 Comments
मुतदारिक मुसम्मन सालिम
212 212 212 212
आपकी थी हमें भी बहुत कामना
आज संयोग से हो गया सामना
आँख से आँख अपनी मिली इस तरह
रस्म भर ही रहा हाथ का थामना
मयकशीं जो करूं तो नशा यूँ चढ़े
और आये कभी हाथ में जाम ना
इश्क आँखों में जब से लगा नाचने
हो गयी पूर्ण …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 12:30pm — 20 Comments
एक वृक्ष की दो संताने तू गुलाब मैं काँटा
जो तुझको फुसलाता है मैं धर देता हूँ चाँटा
तितली भ्रमर और मधुमक्खी सब मुझसे थर्राते
मेरे डर से पास तुम्हारे आने में भय खाते
वन-कानन का पशु भी कोई परस नहीं कर पाता
मणिधर भी तेरी सुगंध को लेने …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2015 at 5:30pm — 22 Comments
मैं यहां पर रहूँ या वहां पर रहूँ
ऐ खुदा तू बता मैं कहां पर रहूँ ?
एक साया मुझे आपका जो मिले
फ़िक्र क्या फिर कहाँ किस मकां पर रहूँ I
जिन्दगी आज तो है तिजारत हुयी
फर्क ये है कि मैं किस दुकां पर रहूँ I
हो रहम मालिकों की मयस्सर मुझे
पंचवक्ता तेरी मैं अजां पर रहूँ I
याद तेरी करूं …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 11:00am — 24 Comments
एक कविता सुनाता हूँ –
“पीडाओं के आकाश से
चरमराती टहनियां
मरुस्थल की आकाश गंगा
की खोज में जाती हैं
धुर दक्षिण में अंटार्कटिक तक
जहाँ जंगलों में तोते सुनते हैं
भूकंप की आहट
और चमगादड़ सूरज को गोद में ले
पेड़ से उछलते है
खेलते है साक्सर
और पाताल की नीहरिकायें
जार –जार रोती हैं
मानो रवीन्द्र संगीत का
सारा भार ढोती हैं
उनके ही कन्धों पर
युग का…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
चकोर सवैया (7 भगण +गुरु लघु ) 23 वर्ण
चाबुक खा कर भी न चला अरुझाय गया सब घोटक साज
अश्व अड़ा पथ बीच खड़ा न मुड़ा न टरा अटका बिन काज
सोच रहा मन में असवार यहाँ इसमे कछु है अब राज
बेदम है यह ग्रीष्म प्रभाव चले जब सद्य मिले जल आज
मत्तगयन्द (मालती) सवैया (7 भगण + 2 गुरु) 23 वर्ण
बीत बसंत गयो जब से सखि तेज प्रभाकर ने हठि…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 9:17pm — 5 Comments
प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 6:39pm — 13 Comments
:: 1 ::
मॉं तू माने या न माने !
तेरी वाणी-वीणा के स्वर ।
रस-वत्सल के बहते निर्झर ।
मै अबोध तन्मय सुनता था वह सारे कलरव अनजाने ।
मॉं तू माने या न माने !
वह तेरे पायल की रून-झुन ।
मै बेसुध घुंघुरू की धुन सुन ।
मेरे मुग्ध मन:स्थिति की गति अन्तर्यामी ही जाने ।
मॉं तू माने या न माने !
सरगम सा आँखो का पानी ।
तू कच्छपि रागो की रानी ।
इन तारो की ही झंकृति…
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 10, 2015 at 1:03pm — 6 Comments
शायद हो ख्वाब
तुम्हे व्योम में उड़ते देखा
तुम्हारे बाल बल खाते
और
लहराता प्यार का आँचल
उड़ने की होती है अपनी ही मुद्रा
परियो के अनुराग सी
नैनों के राग सी
प्रात के विहाग सी
इस उड़ने में नहीं कोई स्वन
या पद संचालन की अहरह धुन
उड़ते ही रहना मीत
धरणि पर न आना
रेशम सी किरणों पर मधु-गीत गाना
दूर तो रहोगी, पर दृग-कर्ण-गोचर
पास आओगी तो
फिर एक अपडर
धरती पर टिकते ही परी जैसे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 19, 2015 at 11:17am — 7 Comments
सरगम भरता, कल-कल करता,
झर-झर झरता निर्झर सस्वर I
तम को छलता, पग-पग चलता,
धक्-धक् जलता सूरज सत्वर II
सन-सन बहता, गुम-सुम रहता,
क्या-कुछ कहता रह-रह मारुत I…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 15, 2015 at 4:30pm — 20 Comments
मुतकारिब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122
न जाने किये कौन से रतजगे हैं
मुझे आप से तुम वो कहने लगे है
पिया है अमिय रूप वह जो तुम्हारा
पड़ा हूँ , सभी रोम रस में पगे हैं
हुआ पाटली नैन का जोर जादू
खड़े इंद्र गन्धर्व सब तो ठगे हैं
जिन्हें काम का देवता लोग कहते
तुम्हे देखकर काम उनके जगे हैं
हुआ है अभी यह नया नेह बंधन
कि लगते मुझे वे सगों से…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 8, 2015 at 8:20pm — 16 Comments
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