घुप अँधेरे में
रात के सन्नाटे में
मै अकेला बढ़ गया
गंगा के तीर
नदी की कल-कल से
बाते करता
पूरब से आता समीर
न धूल न गर्द
वात का आघात बर्फ सा सर्द
मैंने मन से पूछा –
किस प्रेरणा से तू यहाँ आया ?
क्या किसी अज्ञात संकेत ने बुलाया
अँधेरा इतना कि नाव तक न दिखती
कोई करुणा उस वात में विलखती
मैं लौटने को था
वहां क्या करता
पवन निर्द्वंद
एक उच्छ्वास सा भरता
तभी मै…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 21, 2015 at 4:00pm — 14 Comments
दुपट्टा
भारत के वक्ष पर
सलीके से पड़ा
सफ़ेद दुपट्टा
वायुयान से दिखी –
धवल गंगा !
गंगा अब यहाँ नहीं बहती
साधु ने बालक से कहा…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 18, 2015 at 2:00pm — 14 Comments
कुछ माह पहले
पैरों में लिपटते थे सांप
कीचड में सनते थे
पैर और वाहन
पसीने से चुभते थे वपुष में कांटे
धुप में झुलसी जाती थी देह
कुछ माह पहले
नभ से बरसता था
थका-थका मेह
पुरवा से ऐठती थी ठाकुर की देह
क्वार की धूप में हांफता था बैल
कुछ माह पहले
हवा में नमी थी
चलता न वात
पंखा हांकने से सूखता न गात
बरगद के नीचे भी ठंढी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 14, 2015 at 12:05pm — 13 Comments
‘पता चला है सेठ से तुम्हारे पुराने सम्बन्ध थे ?’- इंस्पेक्टर ने कड़क कर पूंछा I
‘जी हाँ ----I’
‘कैसे सम्बन्ध थे ?’
‘एक समय मै रखैल थी उसकी I’
‘तब तूने उसकी हत्या क्यों की ?’
‘क्योंकि वह मनुष्य नहीं राक्षस था I वह मेरी बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बनाने जा रहा था I मैंने साले को वही चाकू से गोद दिया I’
‘तो तेरी बेटी क्या सती सावित्री थी ?’
‘नहीं साहिब , हम जैसे लोग पेट के लिए देह बेचते है I सती -सावित्री होना हमारे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 10, 2015 at 7:30pm — 31 Comments
सिमट रहा है जीवन का वृत्त
परिधि कम ही होगी धीरे- धीरे
लोगों के टोकने पर
जाने लगा हूँ पार्क में टहलने
मन बहलता तो नहीं है
पर देता हूँ बहलने
शरीर को मेन्टेन रख्नना है
पर गलेगी देह भी धीरे-धीरे
वृत्त की परिधि कम होगी धीरे-धीरे
पढ़ना चाहता हूँ
किताबे दशको तक मित्र रही है मेरी
पर अब सब धुन्धला जाता है
चश्मा भी अब काम नहीं आता है
लिखना…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 7, 2015 at 1:48pm — 22 Comments
कमल-नैन या कंज-लोचन है वह
कहते है शोक-विमोचन है वह
पद्म -पांखुरी जैसे है अधर
रक्त-नलिन से कपोल है सुघर
नील-नीरज सा मोहक वदन
वपुष नीलोत्पल सुषमा-सदन
है दीर्घ बाहे अम्बुज की नाल
पाद-पुष्ट मानो है पंकज मृणाल
हाथ की हथेली है राजीव-दल
विकसित है कर में श्याम-शतदल
चरण-सरोज की है महिमा अनूप
सांवले सरोरुह सा खिला-खिला रूप…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 4, 2015 at 7:30pm — 14 Comments
कोई नहीं जानता
क्या होने वाला है ?
उत्तर से आ रही है
लाल हवायें
जीभ लपलपाती
गर्म सदायें
हिमालय बदहवास बिलकुल बेदम है
हवा में आक्सीजन शायद कुछ कम है
दो कपोत हैं अब हर घर में रहते
गुटरगूं करते जाने क्या कहते !
एक है श्वेत दूसरा काला है
कोई नहीं जानता
क्या होने वाला है ?
दर्पण हाथों से छूट रहे है
मखमल पर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2015 at 7:42pm — 14 Comments
कौन जाने ?
बद्दुआओ में होता है असर
वाणी के जहर
ये काटते तो है
पर देते नहीं लहर
पुरा काल में
इन्हें कहते थे शाप
ऋषियों-मुनियों के पाप
दुर्वासा इसके
पर्याय थे आप
भोगता था
अभिशप्त वाणी की मार
कभी शकुन्तला
या अहल्या सुकुमार
आह !आह ! ऋषि के
वे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 9:30pm — 19 Comments
‘कवियों से मुझे नफरत है
घिन आती है उनके वजूद से
जैसे सच्चे मुसलमान को
मूलधन के सूद से’
मुझसे कुबेर ने कहा
मैंने आघात को सहा
‘कवि तो मै भी हूँ
अँधेरे का रवि मै ही हूँ
जहाँ नहीं जाता रवि
वहां पहुँच जाता कवि
फिर आपको घिन क्यों है ?’
‘वो बात जरा यों है,
कवि को गरीब ही दिखते है
उन पर ही लिखते हैं
उन्हें दिखता है –काली रात,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 28, 2014 at 3:20pm — 19 Comments
नर्मदा के एक ऊंचे कगार पर खड़ा मै प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य का अवलोकन कर रहा था कि एक ग्यारह वर्ष का बालक मेरे पास आया और बोला –‘बाबू जी मै इस कगार से नर्मदा मैया में छलांग लगाऊंगा तो तुम मुझे पांच रुपये दोगे ?’
‘क्यों, तुम इतना खतरा क्यों उठाओगे ?’
‘कल से खाना नहीं खाया, बाबू जी ‘
मैंने उसे दस रुपये दे दिए I वह मेरे पैरो मे लोट गया I तभी मुझे एक जोरदार ‘छपाक’ की आवाज सुनायी दी और उसके साथ ही एक ह्रदय विदारक चीख I मैंने घबरा कर नीचे देखा I एक दूसरा लड़का कगार से कूदा था पर…
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 25, 2014 at 2:30pm — 16 Comments
विभु से मांगो मित्र तुम, अब ऐसा वरदान
नये वर्ष में शांत हो, मानव का शैतान
हो न धरा अब लाल फिर, महके मनस प्रसून
किसी अबोध अजान का, नाहक बहे न खून
सबके जीवन में खुशी, छा जाए भरपूर
अच्छे दिन ज्यादा नहीं, भारत से अब दूर
कवि गाओ वह गीत अब, जिससे सदा विकास
तन में हो उत्साह प्रिय, मन में हो उल्लास
आपस में सद्भाव हो, सभी बने मन-मीत
ओज भरे स्वर में कवे, महकाओ कुछ गीत
ऐसा जिससे नग…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 3:00pm — 44 Comments
वह चालीस वर्ष का हट्टा –कट्टा जवान था I बस में मेरी खिड़की के करीब आया I डबडबायी आँखों से मेरी ओर देखा –‘बाबू जी मेरी माँ अस्पताल में दम तोड़ रही है, उसकी दवा लेने गया था, फकत इक्कीस रुपये कम पड़ गए है I बाबू जी आप मेहरबानी कर दे तो मेरा माँ शायद बच जाय I अल्लाह आपको नेमते देगा I’
उसकी आँखों से आंसू छलक पड़े I मुझे तरस आ गया I मैंने उसे रुपये दे दिए I वह दुआ देता आँखों से ओझल हो गया I
किसी कारण से मेरी बस वही रुकी रही I इतने में…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 19, 2014 at 7:04pm — 16 Comments
हाँ
किसी अज्ञात यात्रा से
लोग यहाँ आते है
कोई आता है चुपके से दुबक कर
कोई आता है सीने से चिपककर
कोई आता इन्तेजार ख़त्म करने
किसी के आने पर बजते है नगाड़े
ढोल-ताशे
यहाँ आकर
फिर शुरू होती है एक नयी यात्रा
गंतव्य तक जाने की मंजिल पाने की
परिश्रम गंवाने की कुछ सुस्ताने की
जी भर रोने की मन-मैल धोने की
शांति से सोने की खुद अपने होने की
जो अभी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2014 at 12:15pm — 22 Comments
कुछ लिखना चाहता हूँ
पर सोचता हूँ क्या लिखूं
कलम जब होती है हाथ में
दिल करता है कुछ सांय-सांय
सोचता हूँ
पुण्य लिखूं
सेवा लिखूं, सम्मान लिखू
हाथ से फिसलता आसमान लिखूं
सत्य लिखूं , प्रेम लिखूं
ममता लिखूं , मौन-व्यापार लिखूं
किसी उजड़ी बस्ती का हाहाकार लिखूं
पाप लिखूं, शाप लिखूं
मन का परिमाप लिखूं
भूख लिखूं , स्वार्थ लिखूं
टी वी से झांकता
आधुनिक परमार्थ लिखूं
थाना लिखूं, जेल…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 11, 2014 at 12:30pm — 17 Comments
अलि, आज छू गया प्रिय से दुकूल !
पुलक गया मन महक उठा तन
हंस रहा अंतर का वृन्दावन
भाव के मेघ उठे सागर की छोर
मन में बरस गए सावन के घन
अम्बर से तारों के फूल गए झूल I
बसी नस-नस में पीड़ा की पीर
सुप्त उर हो उठा सहसा अधीर
पाटल से छिल रहा सांवला तन
मन को बेध गया नैनो का तीर
फूलो सा फूल गया अंतस का फूल I
मुकुलित…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2014 at 1:00pm — 18 Comments
पत्नी या प्रेमिका
चांद जैसी नहीं
सचमुच चाँद होती है
कभी लगती हेम जैसी
कभी देवि कालिका
कभी अंधकार
कभी मानस मरालिका
अंतस में अमिय-घट
स्वर्गंगा पनघट
राका एक छली नट
अभ्र बीच नाचे तू
चपला का शुभ्र पट
स्वयं में मगन इतना
शीतल तू आह कितना
सताये न अगन
चातक भी बैठा चुप
सहेजे निज लगन
सोलह कला चाँद में
अहो ! षोडश शृंगार में
अरे—रे---…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 30, 2014 at 3:00pm — 6 Comments
डाक्टर कहते है
स्वस्थ आनंदित जीवन के लिए
हंसो
ठठाकर हंसो , खिलखिलाकर हंसो
आकाश गुंजा दो ,अट्टहास करो
तभी तो
शरीर से झरेगा
ऐंडोर्फिन रसायन
जो हृदय को रखेगा मजबूत
नष्ट होंगे बैक्टीरिया, वायरस
सशक्त होगा प्रतिरक्षातंत्र
पर हंसू कैसे ?
बचपन में कोई फिसल कर गिरता
कीचड में सनता
या चिडिया करती बीट
तब हम ताली बजा कर हँसते
लोट-पोट हो जाते
मै और मेरी बहन हम, सब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 25, 2014 at 5:30pm — 24 Comments
बंद खिडकियों से
झांकता
प्रकाश
चारो ओर स्याह-स्याह
मुट्ठी भर
उजास
टूटी हुयी
गर्दन लिए
बल्ब रहे झाँक
ट्यूब लाईट
अपना महत्त्व
रहे आंक
सर्र से
गुजर जाते
चौपहिया वाहन
सन्नाटा
विस्तार में
करता अवगाहन
तारकोली
सड़क सूनी
रिक्त चौराहे
सर्पीली…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
पाकर आभास
अपनी ही कुक्षि में
अयाचित अप्रत्याशित
मेरी खल उपस्थिति का
सह्म गयी माँ !
* * *
हतप्रभ ! स्तब्ध ! मौन !
आया यह पातक कौन ?
जार-जार माँ रोई
पछताई ,सोयी, खोयी
‘पातकी तू डर
इसी कुक्षि में ही मर
मैं भी मरूं साथ
तेरे सर्वांग समेत
धिक् ! हाय उर्वर खेत’
* * …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 18, 2014 at 6:00pm — 19 Comments
छंद- गीतिका
लक्षण – इसके प्रत्येक चरण में (14 ,12 )पर यति देकर 26 मात्रायें होती हैं I इसकी 3सरी, 10वीं, 17वीं और 24वीं मात्रा सदैव लघु होती है I चरणांत में लघु –दीर्घ होना आवश्यक है I
मिट चुकी अनुकूलता सब अब सहज प्रतिकूल हूँ I
मर चुका जिसका ह्रदय वह एक बासी फूल हूँ II
किन्तु तुम संजीवनी हो ! प्राणदा हो ! प्यार हो !
हो अलस संभार…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 10, 2014 at 12:00pm — 24 Comments
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