देख मयूर
अनुपम सौंदर्य
मन बावरा।
विश्व सौंदर्य
प्रकृति हो रमणी
नाचे मयूर।
सुंदर पंख
नागराज भी डरे
निराला मोर।
मन हर्षाता
पंख फैलाए मोर
जो इठलाता।
काला बादल
नर्तकप्रिय मोर
मन को भाता।
अनिता भटनागर
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Anita Bhatnagar on July 1, 2023 at 1:00pm — No Comments
मैं कौन हूँ
अब तक मैं अपना
पहचान ही नहीं पा सका
भीड़ में दबा कुचला व्यथित मानव
दड़बे में…
Added by जगदानन्द झा 'मनु' on February 13, 2023 at 9:16am — 3 Comments
भूख नैसर्गिक है ,
पर रोटी , रोटी
नैसर्गिक नहीं है।
भूख का निदान
स्वयं को करना होता है ,
रोटी कमानी पड़ती है ,
रोटी खरीदनी पड़ती है ,
रोटी पर टैक्स चुकाना पड़ता है ,
रोटी निदान है , आय का जरिया है।
भूख ऐसी कुछ नहीं , उसका निदान ,
आदमी से क्या कुछ नहीं करा देता है ,
उसे एक शब्द में कमाई कह देते हैं।
अपने लिए , अपने पेट के लिए।
सब कुछ नैसर्गिक है ......... ?
व्यापार के लिए , राजस्व के लिए।
मौलिक…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on November 27, 2021 at 11:29am — 2 Comments
कहो सूरमा! जीत लिए जग?
तुम्हें पता है जीत हार का?
केवल बारूदों के दम पर
फूँक रहे हो धरती सारी
नफरत की लपटों में तुमने
धधकाई करुणा की क्यारी
कितना आतंकित है…
ContinueAdded by आशीष यादव on September 2, 2021 at 1:00am — 5 Comments
रणभेरी बजने से पहले अच्छा है तुम घर जाओ
वरना पीठ दिखाने से तो अच्छा है तुम मर जाओ
कितनी ही आशाएं तुमसे लगी हुई है, टूटेंगीं
कितनी ही तकदीरें तुमसे जुड़ी हुई हैं, रूठेगीं
तेरे पीछे मुड़ जाने से कितने सिर झुक जाएंगे
कितने प्राण कलंकित होंगे कितने कल रुक जाएंगे
उतर गए हो बीच समर तो कौशल भी दिखला जाओ
हिम्मत के बादल बन कर तुम विपदाओं पर छा जाओ
तप कर और प्रबल बनकर तुम शोलों बीच सँवर जाओ
वरना पीठ दिखाने से तो अच्छा है तुम…
Added by आशीष यादव on May 28, 2021 at 12:11am — 7 Comments
बीते कुछ दिनों में लगा
कि हम कुछ बड़े हो गये ,
अहंकार से फूलने लगे
और फूलते...चले गए।
फूले इतना कि हर समस्या
के सामने बौने हो गये।
यकीन नहीं होता कि
आदमी खुद कुछ नहीं होता ,
ये जानने के बाद भी ,
कुछ का ख्याल हैं कि
लूटो-खाओ, पाप-पुण्य
कहीं कुछ नहीं होता ,
भगवान भी कहीं नहीं होता।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on April 30, 2021 at 10:48am — 2 Comments
मुहब्बत हो जाती है ,
मुहब्बत हो जाती है ,
मुहब्बत हो जाती है ,
ये तो नफ़रतें हैं ,
जिनके लिए टेंडर
निकाले जाते हैं .
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on April 25, 2021 at 10:00pm — 2 Comments
एक उम्र भर हम
लोगों को समझते रहे।
हालातों को समझते रहे ,
दोनों से समझौता करते रहे ,
दुनिया में समझदार माने गए।
बस अफ़सोस यह ही रहा ,
हमें कोई ऐसा मिला ही नहीं ,
या नसीब में था ही नहीं ,
जिसे हम भी समझदार मानते
और हम भी समझदार कहते।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on July 20, 2020 at 10:31pm — 2 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 12, 2020 at 8:30am — 2 Comments
शायद अब इच्छाओं का अंत हो रहा है
यह सीमित शरीर अब अनंत हो रहा है
रे मन अचानक तुझे ये क्या हो गया है
खिलखिलाता था तू अब कुमंत हो रहा है
खुशियां बहुत सी बटोरी थी हमने भी
हर यादगार लम्हा अब अश्मंत हो रहा है
करीबी रिश्तों का मेरे मन के साथ सजाया
हर विचार शायद अब उमंत हो रहा है
करंड की भांति हर शरीर धरा पर मेरा भी
शहद या धार चली गई अब अस्वंत हो रहा है
मेरा चंचल मन जो नरेश था मेरे निर्णयों…
ContinueAdded by Vinay Prakash Tiwari (VP) on July 7, 2020 at 10:00am — 1 Comment
उम्र साठ-सत्तर तक की ,
आदमी पांच पीढ़ियों से रूबरू हो लेता है।
देखता है , समझ लेता है कि
कौन कहाँ से चला , कहाँ तक पहुंचा ,
कैसे-कैसे चला , कहाँ ठोकर लगी , ,
कहाँ लुढ़का , गिरा तो उठा या नहीं उठा ,
और उठा तो कितना सम्भला।
कर्म , कर्म का फल , स्वर्ग - नर्क ,
कितना ज्ञान , विश्वास , सब अपनी जगह हैं।
हिसाब -किताब सब यहीं होता दिखाई देता है।
बस रेस में दौड़ने वालों को सिर्फ
लाल फीता ही दिखाई देता है।
मौलिक एवं अप्रकाशित…
ContinueAdded by Dr. Vijai Shanker on July 2, 2020 at 9:36am — 4 Comments
इस दुनिया में
हर आदमी की
अपनी एक दुनिया होती है।
वह इस दुनिया में
रहते हुए भी अपनी
उस दुनिया में रहता है।
उसी में रह कर रहता है ,
उसी में सोचता है ,
उसी में जीता है।
**************************
वो बेहद खुशनसीब हैं
जो रिश्तों को जी लेते हैं ,
वफ़ा के लिए जी लेते हैं ,
वफ़ा के लिए मर जाते हैं ,
बाकी तो सिर्फ ,इन्हें
निभाते-निभाते मर जाते हैं।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on June 15, 2020 at 9:30am — 9 Comments
हे रूपसखी हे प्रियंवदे
हे हर्ष-प्रदा हे मनोरमे
तुम रच-बस कर अंतर्मन में
अंतर्तम को उजियार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो, साकार करो
अभिलाषी मन अभिलाषा तुम
अभिलाषा की परिभाषा तुम
नयनानंदित - नयनाभिराम
हो नेह-नयन की भाषा तुम
हे चंद्र-प्रभा हे कमल-मुखे
हे नित-नवीन हे सदा-सुखे
उद्गारित होते मनोभाव
इनको ढालो, आकार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो साकार करो
मैं तपता…
ContinueAdded by आशीष यादव on June 15, 2020 at 4:30am — 10 Comments
आज ऐरावत की मौत हुई तो कोप जताने आया हूँ
जन्म से पहले प्राण गए हैं रोष दिखाने आया हूँ
आया हूँ मैं ये प्रण लेकर संताप नहीं ये कम होगा
धोखे से मनु ने प्राण हरे जो लड़ने का न दम होगा
मानव कितना नीच जीव है कहता खुद को सबसे ऊपर
अ हिंसा का भाषण देकर हाथ उठाता मूक जीव पर
दम्भ तुझे किस बात का मानव तू क्यों इतना है इतराता
तेरे खेल की आग में जलकर झुलस गई गज की माता
कैद रहा है तीन माह से क्या…
ContinueAdded by Vinay Prakash Tiwari (VP) on June 11, 2020 at 8:33pm — 2 Comments
फूल-सी सुकोमल,सुकुमारी
कौन-सा फूल तेरी बगिया की
न्यारी-प्यारी माँ-बाबा की दुलारी
मुस्कराती ,बाबा फूले ना समाते
फूल-से झङते माँ होले-से कहती
पर दादी झिङकती-फूल कोई-सा होवे
पर सिर पर ना ,चरणों में चढाये जावे
उस समय कोमल मन को समझ ना आई
जब किसी के घर गुलदान की शोभा बनी
तब बात समझ आई
नकारा,छटपटाई,महकना चाहती थी
टूटकर अस्तित्वहीन नहीं होना था
पर असफल रही,दल-दल छितर-बितर गया
सोचती,मैं फूल तो हूँ
चंपा,चमेली,चांदनी,पारिजात नहीं
गुलाब…
Added by babitagupta on April 21, 2020 at 4:32pm — No Comments
कुछ ख्वाबों के बीज लाकर
मैंने दिल के गमले में बोये थे।
पसीने का पानी पिलाकर
पौधे भी उगा दिये।
वो बात और है कि
गमले की मिट्टी मेरे दिल में भर गई।
और दिल भर देख भी नहीं…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on February 13, 2020 at 1:38pm — 6 Comments
चलो, विश्वास भरें
गया पुरातन वर्ष
नवीन विचार करें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो, विश्वास भरें
बैर भाव से हुए प्रदूषित
जो मन, बुद्धि , धारणाएँ
ज्ञानाग्नि से , सर्व कलुष कर दग्ध
सभी संत्रास हरें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो, विश्वास भरें
है अनेकता में सुन्दर एकत्व
उसे अनुभूति करें
कर संशय, भ्रम दूर
नेह, सतभाव वरें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो,…
ContinueAdded by Usha Awasthi on January 1, 2020 at 9:12pm — 5 Comments
मूर्खता विद्व्ता के सर पर ताण्डव कर रही है ,
सर के अंदर छुपी विद्व्ता संतुलन बनाये हुए है ,
क्योंकि मूर्खता में कोई वजन नहीं है ,
विद्व्ता शालीन है , संयत है , संतुलित है
आराम से मूर्खता को ढोये जा रही है ,
क्योंकि यही युग धर्म है आज , शायद ,
कि वह मूर्खता को शिरोधार्य करे ,
उसे नाचने के लिए ठोस मंच दे , आधार दे।
युगदृष्टा जाने विद्व्ता ने शायद ही कभी
मूर्खता का पृश्रय लिया हो , उसे आधार बनाया हो।
भाषा वैज्ञानिक स्वयं भ्रमित…
Added by Dr. Vijai Shanker on September 27, 2019 at 6:30pm — 4 Comments
स्वरचित कविता
शीर्षक- "लक्ष्य तय करो जीवन का"
पंचभूत तन दो दिन का
लक्ष्य तय करो जीवन का
शैशव में मासूम रहें सब
सीखें हैं जीने का ढब
धीरे-धीरे तन मुस्काए
मन में चुलबुल शोखी आए
पथ पर मंथर कदम पड़ें
करतब करते लघु बड़े
गतिमय जीवन निश-दिन का
पंचभूत तन दो दिन का
लक्ष्य तय करो जीवन का
सदाचार का पाठ पढ़ो
सुगढ़ प्रेम के तंत्र गढ़ो
करो बड़ों का तुम सम्मान
बंधु!देव!मनुज-संतान!
छोटों पर वात्सल्य लुटाओ
खिलखिल करके गले…
Added by Dr. Anju Lata Singh on September 23, 2019 at 6:44pm — 3 Comments
सोचता हूँ ,
अब तो यह भी सोचना पड़ेगा
कि कैसे सोचते हैं हम ?
कितनी सीमाओं में सोचते हैं हम ?
या किस सीमा तक सोचते हैं हम ?
कुछ सोचते भी हैं हम ?
अगर नहीं तो क्यों नहीं सोचते हैं हम ?
सच तो यह है कि ' बिना विचारे जो करे ' .....
भी नहीं सोचते हैं हम।
खुद में गज़ब का विश्वास रखते है हम ?
बस सोचने में क्रियाशील रहते हैं हम ,
जितनी तेजी से आगे जाते हैं
उतनी हे तेजी से लौट आते हैं।
नतीज़तन वहीं के वहीं रह जाते हैं हम।…
Added by Dr. Vijai Shanker on September 23, 2019 at 10:01am — 6 Comments
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