गुनगुन करता गीत नया है,
क़दम बढ़ाता मीत नया है
*
दर्द दिखा हर ओर भरा है,
अचरज है हर पोर भरा है,
शब्दों में खामोशी जितनी,
भीतर उतना शोर भरा है।
कानों ने…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on September 22, 2022 at 10:30pm — 7 Comments
नदी जीवन देती है
नदी पालती है
नदी सींचती है
नदी बहना सिखाती है
नदी सहना सिखाती है
नदी बदलाव समझाती है
नदी ठहराव समझाती है
नदी हंसना सिखाती है
नदी अंत तक साथ देती है.
पहाड़, धरती, प्रकृति भी
हमें यही सब सिखाते हैं,
लेकिन हम क्या कर रहे हैं?
हम नदी को धीरे धीरे,
तिल तिल कर मार रहे हैं,
हम अपना सारा कचरा
बेदर्दी से इसमें उड़ेल रहे हैं,
हम प्रकृति को बर्बाद कर रहे हैं
हम धरती को बंजर बना रहे हैं
हम पहाड़ों को…
Added by विनय कुमार on May 12, 2021 at 3:59pm — 2 Comments
हम सांस लेते हैं, हम जीते हैं
और एक दिन आखिरी सांस लेते हैं
इस आखिरी सांस के पहले
हमारे पास वक़्त होता है
अपनों के लिए कुछ करने का
समाज को कुछ लौटाने का
ऐसी वजह बनाने का
जिससे लोग याद रखें
आखिरी सांस लेने के बाद भी,
मगर अमूमन हम
बस अपने लिए ही जीते हैं
और अंत में मर जाते हैं
बिना किसी के लिए कुछ किये.
हम पेड़ पौधों से नहीं सीखते
हम तमाम जानवरों से भी नहीं सीखते
हम नहीं सीखते औरों के लिए जीना
हमारी दुनिया वास्तव में…
Added by विनय कुमार on May 11, 2021 at 6:10pm — 6 Comments
(12122)×4
ये ज़िंदगी का हसीन लमहा
गुजर गया फिर तो क्या करोगी
जो जिंदगी के इधर खड़ा है
उधर गया फिर तो क्या करोगी
तुम्हें सँवरने का हक दिया है
वो कोई पत्थर का तो नहीं है
लगाये फिरती हो जिसको ठोकर
बिखर गया फिर तो क्या करोगी
कि जिनकी शाखों पे तो गुमां है
मगर उन्हीं की जड़ों से नफरत
"वो आँधियों में उखड़ जड़ों से"
शज़र गया फिर तो क्या करोगी
जिसे अनायास कोसती हो
छिपाए बैठा है पीर…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 25, 2020 at 2:30am — 6 Comments
हे रूपसखी हे प्रियंवदे
हे हर्ष-प्रदा हे मनोरमे
तुम रच-बस कर अंतर्मन में
अंतर्तम को उजियार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो, साकार करो
अभिलाषी मन अभिलाषा तुम
अभिलाषा की परिभाषा तुम
नयनानंदित - नयनाभिराम
हो नेह-नयन की भाषा तुम
हे चंद्र-प्रभा हे कमल-मुखे
हे नित-नवीन हे सदा-सुखे
उद्गारित होते मनोभाव
इनको ढालो, आकार करो
यह प्रणय निवेदित है तुमको
स्वीकार करो साकार करो
मैं तपता…
ContinueAdded by आशीष यादव on June 15, 2020 at 4:30am — 10 Comments
आखिर खुल गया ताला
होगा अब देश मतवाला
पुराने जमाने की बात थी
धंधा कहते थे, उसे काला
गरीब रोटी को रोता था
किसने ये गलत कह डाला
हस्पताल खोलना क्यूँ है
जब हाथ हो सबके प्याला
किसे पढ़ना है बताओ तो
जब विषय ही बदल डाला
दूरी की चिंता कौन करे
धज्जी उसकी उड़ा डाला
अब इकोनॉमी चमकेगी
कोरोना तेरा मुंह काला !!
Added by विनय कुमार on May 4, 2020 at 5:53pm — 8 Comments
शीत जैसी चुभन, आग जैसी जलन।।
जाने क्या कह रहा है मेरा आज मन।।
इक कशिश पल रही है हृदय में कहीं।
कश्मकश चल रही , साथ मेरे कोई।।
डुबकियां ले रहा ही मेरा आज मन।।
इस कदर है अधर से अधर का मिलन।।
जैसे पुरवा पवन छू रही हो बदन।।..१
जाने क्या कह रहा है .....
गर हूँ तन्हा मेरे साथ तन्हाई है।
भीड़ के साथ हूँ तो ये रूसवाई है।
दौड़कर पास आना लिपटना तेरा।।
मेरे आगोश में यूँ सिमटना तेरा।।
यूँ लगे जैसे मिलतें हो धरती…
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 12, 2019 at 10:48am — 2 Comments
न गुनगुनाना न बोल पड़ना,
अभी अधर पर सघन हैं पहरे।
अगर तिमिर को सुबह कहोगे
तभी सुरक्षित सदा रहोगे
अभी व्यथा को व्यथा न कहना
कथा कहो या कि मौन रहना
न बात कहना निशब्द रहना
सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।
न तार छेड़ो सितार के तुम
बनो न भागी विचार के तुम
हवा बहे जिस दिशा बहो तुम
स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।
यही समय की पुकार सुन लो
सवाल सारे दबा दो गहरे।
मशाल रखना गुनाह घोषित
वहाँ करें कौन दीप पोषित।
प्रकाश की हर…
Added by मिथिलेश वामनकर on March 4, 2019 at 3:50am — 13 Comments
धीरे धीरे आओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
होंठों पर मुस्कान सजाये
सोया है मृग छौना
आहट से तेरी टूटेगा
उसका ख्वाब सलोना
बात समझ भी जाओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
तुम चलते हो पीछे पीछे
चलते हैं सब तारे
और तुम्हारी सुंदरता पर
इठलाते हैं सारे
तुम तो मत इतराओ चन्दा
धीरे धीरे आओ
ऐसे भी कुछ घर आँगन हैं
बसते जहाँ अँधेरे
भूख वहाँ करताल बजाये
संध्या और सबेरे
उस दर भी मुस्काओ चन्दा
धीरे…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 8, 2018 at 6:30pm — 18 Comments
हौले से हिला कर के
नींद से जगा कर के
बहती है पवन जैसे
वो छू के गई ऐसे |
प्यारी सी एक लड़की
थी सांवले कलर की
एक ख़्वाब जगा करके
मुझे अपना बता कर के
वो छू के गई ऐसे-----
रात भर मुझे जगाना
बिन बात मुस्कुराना
सिर मेरा ही खाना
कहने पे रूठ जाना
वो छू के गई ऐसे----
दुनियाँ भली लगी थी
वो जब मुझे मिली थी
शायद थी भागवत वो
था मुझको गुनगुनाना |
वो छू के गई…
ContinueAdded by somesh kumar on February 8, 2018 at 9:30am — 4 Comments
गीत
मात्र भार १६ १६
बहला रहा रोज इस दिल को,
किस्से बचपन के कह कर के.
तेरी महकी महकी यादें,
मैंने रख लीं हैं तह कर के.
प्रथम दृष्टि का वह सम्मोहन,
भूल नहीं अब तक मैं पाया.…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on January 18, 2018 at 8:30pm — 2 Comments
जो हमसे मोहब्बत नहीं है तो हमको
बताओ कि हमसे लजाते हो क्यूँ तुम?
निगाहें मिला कर निगाहों को अपनी
झुकाते हो हमसे छिपाते हो क्यूँ तुम?
कभी फेरना पत्तियों पर उँगलियाँ,
कभी फूल की पंखुड़ी पर मचलना
अचानक सजावट की झाड़ी को अपनी
हथेली से छूते हुए आगे बढ़ना
ये शोखी ये मस्ती दिखाते हो क्यूँ…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2018 at 8:00am — 7 Comments
दिल जिन्हें ढूंढे, वो हालात कहाँ
खाली दिल में वो है जज्बात कहाँ
बस एक रस्म निभा देते हैं
अब वो पहले सी मुलाक़ात कहाँ
लॉन शहरों में खूबसूरत हैं
गांव की उसमें मगर बात कहाँ
वक़्त बस यूँ ही गुजर जाता है
अब वो दिन और अब वो रात कहाँ
कभी शामिल थे जिनकी हर शै में
उनके अब ऐसे, खयालात कहाँ !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on August 3, 2017 at 12:30pm — 12 Comments
Added by shikha kaushik on May 12, 2017 at 5:40pm — 15 Comments
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
एक कृषक कल तक थे लेकिन अब शहरी मजदूर बने।
सृजक जगत के कहलाते थे, वो कैसे मजबूर बने?
वे बतलाते जीवन गाथा, पीड़ा से घिर जाता हूँ।
कितने दुख संत्रास सहे हैं, ये लिख दूँ, फिर आता हूँ।
कर्तव्यों के नव बंधन को तोड़ तुम्हारे पास प्रिये,
तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,
सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?
कौन दिशा में कितने पग अब कैसे-कैसे है चलना?
अर्थजगत के नए मंच पर, कैसे या कितना…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2017 at 2:00pm — 23 Comments
गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments
उफ़! करो कोई न हलचल,
शांत सोया है यहाँ जल ।
नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।
लुप्त सी है चेतना, दोनों दृगों पर है पलस्तर।
वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?
क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।
कौन, क्या, कैसे करे? जब,
हो स्वयं निरुपाय-कौशल।
पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।
विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।
सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2017 at 3:00pm — 27 Comments
भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।
सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।
व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।
भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।
सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?
मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।
प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।
शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।
भेदभाव का तम चीरे जो, दीप जलाओ अंतस में…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2017 at 10:30pm — 25 Comments
पिया खड़े है सामने,
घूंघट के पट खोल।
चुप रहने से हो सका, आखिर किसका लाभ,
आज समय की मांग है, नैनो में रक्ताभ।
आधी ताकत लोक की,
अपनी पीड़ा बोल।
पौरुषता का वो करें, अहम् हजारों बार,
लेकिन तेरे बिन सखी, बिलकुल है लाचार।
वो आयेंगे लौटकर,
सारी धरती गोल।
जननी से बढ़कर भला, ताकत किसके पास,
आज संजोना है तुम्हें, बस अपना विश्वास।
हिम्मत से मिटना सहज,
जीवन का ये झोल।
अपने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 10:00am — 31 Comments
ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने
तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने
खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी पर
सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने
नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया
इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया
हम खूब समझते है परिणाम जानते है
पर…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on January 1, 2017 at 3:33pm — 12 Comments
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