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All Blog Posts Tagged 'गीत' (163)

‘गुनगुन करता गीत नया है’

गुनगुन करता गीत नया है,

क़दम बढ़ाता मीत नया है

*

दर्द दिखा हर ओर भरा है,

अचरज है हर पोर भरा है,

शब्दों में खामोशी जितनी,

भीतर उतना शोर भरा है।

कानों ने…

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Added by Ashok Kumar Raktale on September 22, 2022 at 10:30pm — 7 Comments

देना कब सीखेंगे हम-कविता

नदी जीवन देती है

नदी पालती है

नदी सींचती है

नदी बहना सिखाती है

नदी सहना सिखाती है

नदी बदलाव समझाती है

नदी ठहराव समझाती है

नदी हंसना सिखाती है

नदी अंत तक साथ देती है.



पहाड़, धरती, प्रकृति भी

हमें यही सब सिखाते हैं,

लेकिन हम क्या कर रहे हैं?

हम नदी को धीरे धीरे,

तिल तिल कर मार रहे हैं,

हम अपना सारा कचरा

बेदर्दी से इसमें उड़ेल रहे हैं,

हम प्रकृति को बर्बाद कर रहे हैं

हम धरती को बंजर बना रहे हैं

हम पहाड़ों को…

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Added by विनय कुमार on May 12, 2021 at 3:59pm — 2 Comments

हम क्यों जीते हैं--कविता

हम सांस लेते हैं, हम जीते हैं

और एक दिन आखिरी सांस लेते हैं

इस आखिरी सांस के पहले

हमारे पास वक़्त होता है

अपनों के लिए कुछ करने का

समाज को कुछ लौटाने का

ऐसी वजह बनाने का

जिससे लोग याद रखें

आखिरी सांस लेने के बाद भी,

मगर अमूमन हम

बस अपने लिए ही जीते हैं

और अंत में मर जाते हैं

बिना किसी के लिए कुछ किये.

हम पेड़ पौधों से नहीं सीखते

हम तमाम जानवरों से भी नहीं सीखते

हम नहीं सीखते औरों के लिए जीना

हमारी दुनिया वास्तव में…

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Added by विनय कुमार on May 11, 2021 at 6:10pm — 6 Comments

ये जिंदगी का हसीन लमहा

(12122)×4

ये ज़िंदगी का हसीन लमहा

गुजर गया फिर तो क्या करोगी

जो जिंदगी के इधर खड़ा है

उधर गया फिर तो क्या करोगी

तुम्हें सँवरने का हक दिया है

वो कोई पत्थर का तो नहीं है

लगाये फिरती हो जिसको ठोकर

बिखर गया फिर तो क्या करोगी

कि जिनकी शाखों पे तो गुमां है

मगर उन्हीं की जड़ों से नफरत

"वो आँधियों में  उखड़ जड़ों से"

शज़र गया फिर तो क्या करोगी

जिसे अनायास कोसती हो

छिपाए बैठा है पीर…

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Added by आशीष यादव on August 25, 2020 at 2:30am — 6 Comments

यह प्रणय निवेदित है तुमको

हे रूपसखी हे प्रियंवदे

हे हर्ष-प्रदा हे मनोरमे

तुम रच-बस कर अंतर्मन में

अंतर्तम को उजियार करो

यह प्रणय निवेदित है तुमको

स्वीकार करो, साकार करो

अभिलाषी मन अभिलाषा तुम

अभिलाषा की परिभाषा तुम

नयनानंदित - नयनाभिराम

हो नेह-नयन की भाषा तुम

हे चंद्र-प्रभा हे कमल-मुखे

हे नित-नवीन हे सदा-सुखे

उद्गारित होते मनोभाव

इनको ढालो, आकार करो

यह प्रणय निवेदित है तुमको

स्वीकार करो साकार करो

मैं तपता…

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Added by आशीष यादव on June 15, 2020 at 4:30am — 10 Comments

कोरोना तेरा मुंह काला--गीत

आखिर खुल गया ताला
होगा अब देश मतवाला


पुराने जमाने की बात थी
धंधा कहते थे, उसे काला


गरीब रोटी  को  रोता था
किसने ये गलत कह डाला


हस्पताल  खोलना क्यूँ है
जब हाथ हो सबके प्याला


किसे पढ़ना है बताओ तो
जब विषय ही बदल डाला


दूरी की चिंता  कौन करे
धज्जी उसकी उड़ा डाला


अब इकोनॉमी चमकेगी
कोरोना तेरा मुंह काला !!

Added by विनय कुमार on May 4, 2020 at 5:53pm — 8 Comments

जाने क्या कह रहा है मेरा आज मन ..गीत



शीत जैसी चुभन, आग जैसी जलन।।

जाने क्या कह रहा है मेरा आज मन।।

इक कशिश पल रही है हृदय में कहीं।

कश्मकश चल रही , साथ मेरे कोई।।

डुबकियां ले रहा ही मेरा आज मन।।

इस कदर है अधर से अधर का मिलन।।

जैसे पुरवा पवन छू रही हो बदन।।..१

जाने क्या कह रहा है .....

गर हूँ तन्हा मेरे साथ तन्हाई है।

भीड़ के साथ हूँ तो ये रूसवाई है।

दौड़कर पास आना लिपटना तेरा।।

मेरे आगोश में यूँ सिमटना तेरा।।

यूँ लगे जैसे मिलतें हो धरती…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on March 12, 2019 at 10:48am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गीत- मिथिलेश वामनकर

न गुनगुनाना न बोल पड़ना,

अभी अधर पर सघन हैं पहरे।



अगर तिमिर को सुबह कहोगे

तभी सुरक्षित सदा रहोगे

अभी व्यथा को व्यथा न कहना

कथा कहो या कि मौन रहना

न बात कहना निशब्द रहना

सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।

न तार छेड़ो सितार के तुम

बनो न भागी विचार के तुम

हवा बहे जिस दिशा बहो तुम

स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।

यही समय की पुकार सुन लो

सवाल सारे दबा दो गहरे।

मशाल रखना गुनाह घोषित

वहाँ करें कौन दीप पोषित।

प्रकाश की हर…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 4, 2019 at 3:50am — 13 Comments

गीत...धीरे धीरे आओ चन्दा (सार छंद 16,12 पर आधारित गीत)

धीरे धीरे आओ चन्दा

धीरे धीरे आओ

होंठों पर मुस्कान सजाये

सोया है मृग छौना

आहट से तेरी टूटेगा

उसका ख्वाब सलोना

बात समझ भी जाओ चन्दा

धीरे धीरे आओ

तुम चलते हो पीछे पीछे

चलते हैं सब तारे

और तुम्हारी सुंदरता पर

इठलाते हैं सारे

तुम तो मत इतराओ चन्दा

धीरे धीरे आओ

ऐसे भी कुछ घर आँगन हैं

बसते जहाँ अँधेरे

भूख वहाँ करताल बजाये

संध्या और सबेरे

उस दर भी मुस्काओ चन्दा

धीरे…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 8, 2018 at 6:30pm — 18 Comments

वो छू के गई ऐसे

हौले से हिला कर के

नींद से जगा कर के

बहती है पवन जैसे

वो छू के गई ऐसे |

प्यारी सी एक लड़की

थी सांवले कलर की

एक ख़्वाब जगा करके

मुझे अपना बता कर के

वो छू के गई ऐसे-----

रात भर मुझे जगाना

बिन बात मुस्कुराना

सिर मेरा ही खाना

कहने पे रूठ जाना

वो छू के गई ऐसे----

दुनियाँ भली लगी थी

वो जब मुझे मिली थी

शायद थी भागवत वो

था मुझको गुनगुनाना |

वो छू के गई…

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Added by somesh kumar on February 8, 2018 at 9:30am — 4 Comments

विरह अग्नि में दह-दह कर के

गीत 

मात्र भार १६ १६ 

बहला रहा रोज इस दिल को,  

किस्से बचपन के कह कर के.

तेरी महकी महकी यादें,

मैंने रख लीं हैं तह कर के.

 

प्रथम दृष्टि का वह सम्मोहन,

भूल नहीं अब तक मैं पाया.…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on January 18, 2018 at 8:30pm — 2 Comments

लजाते हो क्यूँ तुम-गीत

जो हमसे मोहब्बत नहीं है तो हमको

बताओ कि हमसे लजाते हो क्यूँ तुम?

निगाहें मिला कर निगाहों को अपनी

झुकाते हो हमसे छिपाते हो क्यूँ तुम?

कभी फेरना पत्तियों पर उँगलियाँ,

कभी फूल की पंखुड़ी पर मचलना

अचानक सजावट की झाड़ी को अपनी

हथेली से छूते हुए आगे बढ़ना

ये शोखी ये मस्ती दिखाते हो क्यूँ…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 4, 2018 at 8:00am — 7 Comments

एक गीत--

दिल जिन्हें ढूंढे, वो हालात कहाँ

खाली दिल में वो है जज्बात कहाँ

बस एक रस्म निभा देते हैं

अब वो पहले सी मुलाक़ात कहाँ

लॉन शहरों में खूबसूरत हैं

गांव की उसमें मगर बात कहाँ

वक़्त बस यूँ ही गुजर जाता है

अब वो दिन और अब वो रात कहाँ

कभी शामिल थे जिनकी हर शै में

उनके अब ऐसे, खयालात कहाँ !!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on August 3, 2017 at 12:30pm — 12 Comments

मैंने गलत को गलत कहा

ना कोई सगा रहा,

जिस दिन से होकर बेधड़क

मैंने गलत को गलत कहा!



तोहमतें लगने लगी,

धमकियां मिलने लगी,

हां मेरे किरदार पर भी

ऊंगलियां उठने लगी,

कातिलों के सामने भी

सिर नहीं मेरा झुका!

मैंने गलत को गलत कहा!



चापलूसों से घिरे

झाड़ पर वो चढ़ गये,

इतना गुरूर था उन्हें

कि वो खुदा ही बन गये,

झूठी तारीफें न सुन

हो गये मुझसे ख़फा!

मैंने गलत को गलत कहा!



मेरी सब बेबाकियों की

दी गई ज़ालिम सज़ा,

फांसी… Continue

Added by shikha kaushik on May 12, 2017 at 5:40pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तुम्ही बता दो कैसे आऊँ - (गीत) - मिथिलेश वामनकर

तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,

सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?

 

एक कृषक कल तक थे लेकिन अब शहरी मजदूर बने।

सृजक जगत के कहलाते थे, वो कैसे मजबूर बने?

वे बतलाते जीवन गाथा, पीड़ा से घिर जाता हूँ।

कितने दुख संत्रास सहे हैं, ये लिख दूँ, फिर आता हूँ।

कर्तव्यों के नव बंधन को तोड़ तुम्हारे पास प्रिये,

तुम्ही कहो, कैसे आऊँ,

सब छोड़ तुम्हारे पास प्रिये?

 

कौन दिशा में कितने पग अब कैसे-कैसे है चलना?

अर्थजगत के नए मंच पर, कैसे या कितना…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2017 at 2:00pm — 23 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गीत लिखो कोई ऐसा --(गीत)-- मिथिलेश वामनकर

गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।

सत्य नहीं क्या कविता में,  

निर्धनता का व्यापार हुआ?

 

जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।

आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।

जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।

हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?

इन बातों से श्रमजीवी का

बोलो कब उद्धार हुआ?

 

अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।

स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
शांत है सोया हुआ जल --(गीत)-- मिथिलेश वामनकर

उफ़! करो कोई न हलचल,

शांत सोया है यहाँ जल ।

 

नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।

लुप्त सी है चेतना,  दोनों दृगों पर है पलस्तर।

वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?

क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।

कौन, क्या, कैसे करे?  जब,

हो स्वयं निरुपाय-कौशल।

 

पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।

विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।

सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2017 at 3:00pm — 27 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
निस्संकोच कृपाण धरो - (गीत) - मिथिलेश वामनकर

भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।

सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।

 

व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।

भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।

सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?

मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।

प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।

 

शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।

भेदभाव का तम चीरे जो,  दीप जलाओ  अंतस में…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2017 at 10:30pm — 25 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दोहा गीत - मिथिलेश वामनकर

पिया खड़े है सामने,

घूंघट के पट खोल।

 

चुप रहने से हो सका, आखिर किसका लाभ,

आज समय की मांग है, नैनो में रक्ताभ।

आधी ताकत लोक की,

अपनी पीड़ा बोल।

 

पौरुषता का वो करें, अहम् हजारों बार,

लेकिन तेरे बिन सखी, बिलकुल है लाचार।

वो आयेंगे लौटकर,

सारी धरती गोल।

 

जननी से बढ़कर भला, ताकत किसके पास,

आज संजोना है तुम्हें, बस अपना विश्वास।

हिम्मत से मिटना सहज,

जीवन का ये झोल।

 

अपने…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 10:00am — 31 Comments

ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है- आशुतोष

ओजोन  की परत में अब छेद खल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है

उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने

तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने

खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी  पर

सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने

नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है

ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया

इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया

हम खूब समझते है परिणाम जानते है

पर…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on January 1, 2017 at 3:33pm — 12 Comments

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