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Abhinav Arun's Blog (149)

ग़ज़ल:-घर से बाहर निकल

ग़ज़ल

घर से बाहर निकल

चाँदनी में टहल |



खौफ गिरने का है

थोडा रुक रुक कर चल |



याद बचपन को कर

और फिर तू मचल |



मौत सा सच नहीं

ज़िंदगी पल दो पल |



फूल था बीज बन

पंखुरी मत बदल |



थोड़ी मोहलत मिले

फैसला जाये टल |



मैं गुनहगार हूँ

सोच मत मुझको छल |



ये घड़ा विष भरा

पी ले शिव बन गरल |



कोई झंडा उठा

कोई कर दे पहल… Continue

Added by Abhinav Arun on December 2, 2010 at 10:14am — 1 Comment

ग़ज़ल : -तुम न मेरे हुए

ग़ज़ल



तुम न मेरे हुए

घुप अँधेरे हुए |



सोन मछली हो तुम

हम मछेरे हुए |



शाम बेमन सी थी

लो सबेरे हुए |



तितली नादान थी

फिर भी फेरे हुए |



निकली बंजर ज़मी

क्यों बसेरे हुए |



याद सावन हुई

हम घनेरे हुए |



दर्द है या धुंआ

मुझको घेरे हुए |



बीन तुमने सूनी

हम सपेरे हुए |



इक बदन चाँदनी

सौ चितेरे हुए… Continue

Added by Abhinav Arun on December 2, 2010 at 9:56am — 3 Comments

ग़ज़ल:-हूरों की तस्वीरें

ग़ज़ल

होटल वाली खीरें अच्छी लगती हैं

हूरों की तस्वीरें अच्छी लगती हैं |



अपने घर के गमले सारे सूखे हैं

औरों की जागीरें अच्छी लगती हैं|



शहरों में है लिपे पुते चेहरों की भींड

गावों वाली हीरें अच्छी लगती हैं |



मुझे बनावट वाले ढेरों रिश्तों से

यादों की जंजीरें अच्छी लगती हैं |



अपनी खुशियों में अब कम खुश होते लोग

पड़ोसियों की पीरें अच्छी लगती हैं… Continue

Added by Abhinav Arun on November 30, 2010 at 3:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल:- आज़ादी की बस इतनी परिभाषा

ग़ज़ल:- आज़ादी की बस इतनी परिभाषा



पोर पोर पर प्रकृति ने फेंका पासा देख

क्यों उदास है तू बसंत की भाषा देख |





श्रमजीवी कलमें कहतीं रूमानी शेर

कैसी उभरी अंतस की अभिलाषा देख |





युग के विश्वामित्र ने फिर छेड़ी है रार

फिर त्रिशंकु की टूट रही है आशा देख |





ठूंठ भरी इस राह में रोड़े और छाले

इस पथ जाता कौन पथिक रुआंसा देख |





भूख ग़रीबी महंगाई और भ्रष्टाचार

आजादी की… Continue

Added by Abhinav Arun on November 15, 2010 at 3:25pm — 3 Comments

ग़ज़ल :- आग पानी है



ग़ज़ल :- आग पानी है



मुफलिसी में अब कहाँ है ज़िंदगी

आग पानी है धुआं है ज़िंदगी |





गिरते पड़ते भागते फिरते सभी

यूं लगे अँधा कुआं है ज़िंदगी |





हम जड़ों से दूर गुलदस्ते में हैं

गाँव का खाली मकां है ज़िंदगी |





अब तो हर एहसास की कीमत है तय

कारोबारी हम दुकाँ है ज़िंदगी



एक फक्कड़ की मलंगी देखकर

हमने जाना की कहाँ है ज़िंदगी |





हर… Continue

Added by Abhinav Arun on November 15, 2010 at 2:57pm — 4 Comments

ग़ज़ल- स्कूल की घंटी

ग़ज़ल

ज़मीर इसका कभी का मर गया है

न जाने कौन है किसपर गया है |



दीवारें घर के भीतर बन गयीं हैं

सियासतदाँ सियासत कर गया है |



तरक्की का नया नारा न दो अब

खिलौनों से मेरा मन भर गया है |



कोई स्कूल की घंटी बजा दे

ये बच्चा बंदिशों से डर गया है |



बहुत है क्रूर अपसंस्कृति का रावण

हमारे मन की सीता हर गया है |



शहर से आयी है बेटे की चिट्ठी

कलेजा माँ का फिर… Continue

Added by Abhinav Arun on November 12, 2010 at 10:43pm — 10 Comments

ग़ज़ल-पुराने दौर का कुर्ता

ग़ज़ल



किताबें मानता हूँ रट गया है

वो बच्चा ज़िंदगी से कट गया है|



है दहशत मुद्दतों से हमपर तारी

तमाशे को दिखाकर नट गया है |



धुंधलके में चला बाज़ार को मैं

फटा एक नोट मेरा सट गया है |



चलन उपहार का बढ़ना है अच्छा

मगर जो स्नेह था वो घट गया है |



पुराने दौर का कुर्ता है मेरा

मेरा कद छोटा उसमे अट गया है |



राजनीति में सेवा सादगी का

फलसफा रास्ते से हट… Continue

Added by Abhinav Arun on November 12, 2010 at 10:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल :-आग नहीं कुछ पानी भी दो



ग़ज़ल



आग नहीं कुछ पानी भी दो

परियों की कहानी भी दो |



छोटे होते रिश्ते नाते

मुझको आजी नानी भी दो |



दूह रहे हो सांझ-सवेरे

गाय को भूसा सानी भी दो |



कंकड पत्थर से जलती है

धरा को चूनर धानी भी दो |



रोजी रोटी की दो शिक्षा

पर कबिरा की बानी भी दो |



हाट में बिकता प्रेम दिया है

एक मीरा दीवानी भी दो |



जाति धर्म का बंधन छोडो

कुछ रिश्ते इंसानी… Continue

Added by Abhinav Arun on November 3, 2010 at 10:00am — 8 Comments

ग़ज़ल-तेरा लोटा तेरा चश्मा

ग़ज़ल



कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है

डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |



तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू

तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |



बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो

सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |



वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं

वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |



चुने जाते ही नेता सारे… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm — 12 Comments

ग़ज़ल : कम रहे आखिर



पांव रिश्तों के जम रहे आखिर

हम हकीकत में कम रहे आखिर |



जिनके दिल पर भरोसा पूरा था

उनके हाथों में बम रहे आखिर |



तीर उस ओर थे दिखाने को

पर निशाने पर हम रहे आखिर |



दिन में लगता है भोग पंचामृत

शाम को पी तो रम रहे आखिर |



सच कहे और लड़े सिस्टम से

उसमे दम तक ये दम रहे आखिर |





नोट संसद में जेल में हत्या

काम के क्या नियम रहे आखिर |



जाने क्यूँ महलों तरफ… Continue

Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 2:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल:भूख करप्शन

भूख करप्शन महंगाई बेकारी है

कैसी आगे बढ़ने की लाचारी है |



ट्यूशन के पैसे से पिक्चर देख रहे

अपने ही मुस्तकबिल से गद्दारी है |



वृद्धावस्था पेंशन पर दिन काट रही

बड़े हुए बच्चों की माँ बेचारी है |



काँटों का इक ताज सूली ले आओ

मेरी ईसा बनने की तैयारी है |



साठ साल से हरा भरा फल फूल नहीं

पौधे की जड़ में कोई बीमारी है |



आप कहाँ से इतनी खुशियाँ ले आये

क्या कुर्सी से आपकी रिश्तेदारी है |



किसे सफाई दे और किसका… Continue

Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:42pm — 3 Comments

कविता-मैं दधीची दान लो

जो सहा वो कहा

मौन है ये ज़ुबां

दर्द की इन्तेहाँ |



एक कली गयी कहाँ

थक गया बाग़बां

हमसफ़र चल रहा

रास्ता जल रहा |



किसके हाथ असलहा

कौन हाँथ मल रहा

आज है कल कहाँ

आँख में जल कहाँ

हर तरफ प्यास है

गाँव में नल कहाँ |



योजना मृगतृष्णा

नैतिकता हे कृष्णा

ज़ोर ज़बर चल रहा

फैसला टल रहा

लाल सूर्य ढल रहा

गर्म ग्रह गल रहा |



एक सवाल है खड़ा

किससे कौन है बड़ा

गर्भ क्यों पल रहा

चल रही… Continue

Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:00pm — 1 Comment

ग़ज़ल:काम बेशक न कीजिये

काम बेशक न कीजिए ज्यादा,

मीडिया में मगर दिखिए ज्यादा.



ये सियासत के खेल है साहब ,

बोइये कम छीटिए ज्यादा.



मिल गया है रिमांड पर अभियुक्त

पूछिए कम पीटिए ज्यादा.



सैलरी झाग दूध रिश्वत है,

फूंकिए कम पीजिए ज्यादा.



शेख जी हैं नए नए शायर ,

दाद कुछ और दीजिए ज्यादा.



लिफ्ट छाते में देकर देख लिया ,

बचिए कम भीगिए ज्यादा.



सभ्यता की पतंग और पछुआ बयार,

ढीलिए कम लपेटिए ज्यादा.



अपसंस्कृति की पपड़ियाँ… Continue

Added by Abhinav Arun on October 19, 2010 at 1:30pm — 13 Comments

रिपोर्ट:जब बच्चन जी ने बेची 'मधुशाला'

दशहरा के अवसर पर १७ अक्टूबर २०१० को वाराणसी स्थित श्री शारदापीठ मठ सभागार में वरिष्ठ शायर श्री अनुराग शंकर वर्मा के ग़ज़ल संग्रह "कहने को जुबां है"का विमोचन और इस मौके पर कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. मैं भी आमंत्रित था यह आयोजन कई मायनों में यादगार रहा. पहली बात यह कि श्री अनुराग जी अभी उम्र के ८३ वें वर्ष में चल रहे है और यह उनका पहला संग्रह है. जो उनकी स्वयं की इच्छा से नहीं बल्कि दूसरों के अधिक प्रयास से साकार रूप ले सका है. अनुराग जी का सारा लेखन उर्दू में है और उसे समेटना काफी मुश्किल था… Continue

Added by Abhinav Arun on October 18, 2010 at 4:30pm — 5 Comments

गज़ल - आंधियां चल दीं

आंधियां चल दीं आज़मानें सौ ,

गढ़ लिए हमने आशियानें सौ.



जिनकी हस्ती नहीं बसाने की ,

वो चले बस्तियां ढहानें सौ.



पुलिस के वास्ते बस एक थाना ,

माफिया के यहाँ ठिकानें सौ.



जीते जी तो हुआ न कोई एक,

अब मरा है चले नहानें सौ.



सफेदी ज़ुल्फ़ की यूँ ही तो नहीं ,

एक दिल यहाँ फसानें सौ.



लाख हैं बालियाँ चिडियाँ दस बीस,

खेत में बन गयीं मचानें सौ.



कटी उस ओर है खुशियों की पतंग,

लूटने चल दिए दीवानें… Continue

Added by Abhinav Arun on October 16, 2010 at 4:03pm — 5 Comments

दोहे:-तंगी नट भैरव हुई

तंगी नट भैरव हुई और भूख मदमाद ,

महंगाई के कंठ से फूटे अभिनव राग.



हांथी की चिंघाड से दहके सब आधार,

साइकिल पंचर हो गयी और कमल बेकार.



महंगाई बढती गयी नहीं बड़ी तनख्वाह,

अभिनव इस सरकार को बहुत लगेगी आह.



योजना के संदूक पर बैठे सौ सौ नाग,

भूखा पेट गरीब का कैसे गाये फाग.



राजनीति के खेल में कैसी शह और मात,

संसद में सुबह हुई हवालात में रात.



स्वयं मलाई खा रहे हमें सिखाते योग,

सन्यासी के भेस में कैसे कैसे लोग.

(बाबा… Continue

Added by Abhinav Arun on October 16, 2010 at 3:30pm — 1 Comment

कविता:- माँ

देखा न तुझे

जाना भी नहीं

तेरा रूप है क्या

और रंग कैसा

पर माँ तू मुझमें रहती है.



मैं चलता हूँ

पर राह है तू

हैं शब्द तेरे और भाव तेरे

माँ फूलों सा सहलाती तू

और काँटों को तू चुनती है.



हैं हाँथ मेरे कविता तेरी

ये अलंकार ये छंद सभी

माँ तू ही सबकुछ गढ़ती है

मैं लिखता रहता हूँ बेशक

तू सबसे पहले पढ़ती है.



तू पालक है और पोषक भी

तू ही माँ सुबह का सूरज

और चाँद की शीतल छाँव भी तू

माँ मैं जब भी तितली… Continue

Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 4:09pm — 1 Comment

कविता:- दशहरा

दस रंग भरे

दस रूप धरे

दशहरा हरा कर दे जग को.



दस आशाएं

दस उम्मीदें

दस आकांक्षाएं पूरी हों.



दस आँचल हों

दस गोद भरें

दस बूटे बेल सजे संग संग.



दस द्वेष जलें

दस ईर्ष्याएँ

दस तर्क वितर्क हों धूमिल भी.



दस अलंकार

दस विद्याएँ

दस सिद्धि मिलें दस दीप जलें.



दस ओर हमारा यश गूंजे

दस पदकों की खन-खन भी हो

दस पद अंतर की ओर चलें

दस परिमार्जित हों इच्छाएं .



दस मित्र बने

दस बातें… Continue

Added by Abhinav Arun on October 13, 2010 at 3:30pm — 6 Comments

गज़ल:हमारा शक ...

हमारा शक सही हो ऐसा अक्सर नहीं होता,

हर आदमी के हाँथ में पत्थर नहीं होता.



मेरे दुखों की बाबत मुझसे न पूछिए,

जो ज्वार को रोये वो समुन्दर नहीं होता.



मैं अपने घर के लोगों से मिलता हूँ उसी रोज,

जिस रोज मेरे घर मेरा दफ्तर नहीं होता.



सच बोलता हूँ मान न होने का गम नहीं,

नासूर कितने होते जो नश्तर नहीं होता.



कितने बरस से बन रही हैं योजनाएं पर,

लाखों हैं जिनके सर पर छप्पर नहीं होता.



गढ़ते हैं किले आपके कर पेट पीठ एक,

उनको… Continue

Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am — 2 Comments

गज़ल:याद जाने कहाँ

याद जाने कहाँ खो गयी,

बात आयी गयी हो गयी .



दिन में हल मैं चलाता रहा,

रात में बीज वो बो गयी.



बंद थीं मछलियाँ जार में,

तितली पानी से पर धो गयी.



बाद मुद्दत के आयी खुशी ,

मेरे हालात पर रो गयी.



तुमने बच्ची को डाटा बहुत ,

लेके टेडी बीयर सो गयी.



उसकी यादों में खोया था मैं,

इसका तस्कीन कर वो गयी.



एक नौका नदी से मिली ,

और मंझधार में खो गयी.



माँ ने कुछ भी तो पूछा न था,

कैसे मन को मेरे टो… Continue

Added by Abhinav Arun on October 10, 2010 at 10:00am — 1 Comment

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