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Sheikh Shahzad Usmani's Blog (338)

दशा और दिशा [लघुकथा] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"कहता था न कि अच्छा साहित्य पढ़ा करो, अच्छी वेबसाइट पर ही जाया करो, वरना भटकने में देर नहीं लगती!"



"सबकी नज़र में 'अच्छा' एक जैसा हो, ज़रूरी तो नहीं? मेरी नज़र में यही सब 'अच्छा' था!" दोस्त की बात का जवाब देते हुए उसने सारी पर्चियां टेबल पर फैला दीं।



"तुम लड़कियों और औरतों के जितने नज़दीक़ गये, उतने ही औरत जात से दूर होते गये, क्या मिला तुम्हें?"



पर्चियां फिर से काँच के जार में डालते हुए दोस्त की बात का जवाब देते हुए उसने कहा- "जो नम्बर इन पर्चियों में लिखे हैं न,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 19, 2017 at 12:36am — 6 Comments

न्याय या अन्याय (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"इंसान अब तो अपने बनाये लैंसों से लैस है, तमाम तरह के कैमरों ने हमारे काम संभाल कर हमें बड़ी ज़िम्मेदारियों से बचा लिया है!" एक आँख ने दूसरी से कहा।





"हमारा हक़ भी तो छीना गया है न! हमारा अपना दायरा कितना सीमित कर दिया गया है, सोचा कभी?" दूसरी आँख बोली।



"सीसीटीवी कैमरों से अधिक हुआ है यह सब!"



"क्योंकि वे इंसानी स्वभाव से मुक्त हैं, जिस कारण वे भावुक नहीं हो सकते। वे इंसानों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा सतर्क रहते हैं, इसलिए पुलिस वालों से भी ज़्यादा भरोसा अब… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 17, 2017 at 9:05pm — 2 Comments

घटते क़द (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बच्चों के दोनों तरफ क़िताबों के ढेर लगे हुए थे। नन्हें बच्चे अपनी गोदियों में बड़ी सी क़िताबें लिए विश्व-स्तरीय मशहूर तस्वीरों को निहार रहे थे।



क़िताबों के एक ढेर ने दूसरे से कहा- "किसका क़द ऊँचा? मेरा, तेरा या हमसे इन बच्चों का?"



जवाब मिला- "न तेरा, न मेरा और न ही इन बच्चों का! क़द तो ऊँचा है इन्टरनेट का, जो हम में समाया हुआ है, हम सब पर भारी है, जिसके प्रति शिक्षा जगत आभारी है!"



यह सुनकर पहले ढेर ने कहा- "तो शिक्षा जगत का ही क़द ऊँचा हुआ या शिक्षा-नीतियों का?… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 9, 2017 at 9:59pm — 6 Comments

किसका क़द ऊँचा? (अतुकांत)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

किसका क़द है ऊँचा ?

पुस्तकों का ?

बच्चों का ?

पालकों का ?

शिक्षा-नीति का ?

सत्ता का ?

व्यापार का?

अंग़्रेज़ियत का ?

इन्सानियत का ?

इंटरनेट का ?

अमरीका का ?

बिल गेट्स का ?

भारतीय का?



कौन ऊपर उठता ?

कौन बस गिरता ?

भारत माता हँसती,

या हम पर

जग हँसते ?



क़िताबें हम पर

हँसतीं,

या इंटरनेट हँसता

पुस्तकों पर ?



या हँसता तोता

तोतले तोतों पर !

तोते उड़ते

या क़ैद… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 9, 2017 at 8:30pm — 4 Comments

छोटे पेट वाले (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बेटे के ही नहीं, बिटिया के भी अरमान पूरे करने थे। बच्चों की ज़िद पर गांव से अपना अनचाहा, लेकिन बच्चों व पत्नी का मनचाहा पलायन कर तो लिया था, लेकिन शहर की न तो आबो-हवा रास आ रही थी, न ही शहर वालों के आचरण और कटाक्ष वगैरह! किसी तरह किराए के कमरे में बच्चों के साथ ठहरे हुए थे। सुबह चार बजे उन्हें पढ़ने के लिए जगाकर आज साइकल उठायी और चल पड़े लाखन बाबू किसी मन चाही तलाश में। कुछ किलोमीटर दूर जाकर एक लम्बी सी साँस लेकर बड़बड़ाने लगे "हे भगवान, आज साँस लेना अच्छा लग रहा है इस हरियाली में! अच्छा हुआ कि… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2017 at 7:50pm — 9 Comments

लोकतंत्र का ताजमहल (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

क्षितिज पर अद्भुत नज़ारा था। पर्यटक-स्थल पर राजनीति-शास्त्र के प्रोफेसर वर्मा जी स्टाफ के बाक़ी लोगों की गतिविधियाँ ध्यान से देख रहे थे। कोई ढलती शाम के आसमान की फोटो ले रहा था, कोई अपनी सेल्फ़ी। त्रिपाठी जी उनके पास आकर संबंधित कविता सुनाने लगे। जब उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया तो त्रिपाठी जी बोले- "वर्मा जी, कहाँ खो गये? फिर कोई गहन चिंतन?"



"हाँ भाई, यह दृश्य देखकर कुछ मशहूर नारे याद आ गये थे!"



"नारे! इस वक़्त! कौन से?" त्रिपाठी जी ने पूछा।



आसमान की ओर हाथ… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 26, 2017 at 8:16am — 3 Comments

ताले-चाबी वाले (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रेल यात्रियों में से एक ताले-चाबी वाला कारीगर भी था, सो चल पड़ी चर्चा 'तालों' और 'चाबियों' की, नाना-प्रकार की 'तिजोरियों, सूटकेसों और अलमारियों'' की और कारगर विभिन्न प्रकार की 'चाबियों' की!



"तुम्हारी तो चाँदी है, हर ताला खोलने की असली जैसी नकली चाबी बना लेते होगे!" एक यात्री ने उस ताले-चाबी वाले से पूछा।



"हमारी रसोई का ही ताला खोलती हैं हमारी बनायी ये चाबियाँ जनाब, धंधे में अंधे होकर हम नाजायज़ काम नहीं करते!" उसने जवाब दिया ही था कि दूसरा यात्री बोल पड़ा- "सही कह रहा है… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 25, 2017 at 5:30pm — 7 Comments

स्वतंत्र, परतंत्र या परजीवी (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

चारों तरफ़ हाल बेहाल हैं। 'कुछ लोग' बहुत 'चौंक' रहे हैं। 'कुछ लोगों' के मन में बहुत सारे 'सवाल' हैं। बहुत से सवाल ज्वलंत हैं, कुछ सामयिक हैं और कुछ एक असामयिक या आकस्मिक, जबकि कुछ एक सवाल ऊट-पटांग भी हैं। लेकिन अधिकतर सवाल किसी भी रूप या विधा में अभिव्यक्त नहीं हो पा रहे हैं। डर है कि किसी 'सवाल' को अभिव्यक्त करने पर कोई 'बबाल' न मच जाये।



लेकिन 'कुछ लोग' हर हाल में हालात के मद्देनज़र ज़ोख़िम लेकर अपने-अपने तरीक़ों से 'सवाल' उठा रहे हैं। उन पर मीडिया, नेता और धर्म-गुरू अपनी-अपनी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2017 at 3:40am — 4 Comments

भूखे पेट (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

'भूखे पेट' (लघुकथा) :



सफ़र की थकान दूर करते हुए अगले गंतव्य हेतु रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करते-करते एक युवक अब भूख भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। अपने झोले में से टिफिन निकाल कर उसने अचार के साथ पूरी खाना शुरू किया ही था कि फटेे-चिथे कपड़े पहने एक दाढ़ी वाला बुज़ुर्ग कांपता लड़खड़ाता हुआ सा उसके बगल में आकर बैठ गया। वह कभी उस युवक को देखता, तो कभी उस साँड़ को जो साफ-सुथरे प्लेटफार्म पर खड़ी रेलगाड़ी की खिड़की से यात्रियों से स्वल्पाहार ग्रहण कर रहा था और कुछ अंग्रेज़ यात्री अपने कैमरों… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 18, 2017 at 7:18pm — 9 Comments

बन्दर और मदारी (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

उसका निरंतर विकास हो रहा है। वह बन्दर ही है, लेकिन बन्दर ही कहलाना नहीं चाहता है। उसने अपनी आँखों पर या कानों पर या मुख पर हथेलियां रखना छोड़कर आदर्शों पर न चलने का फैसला भी कर लिया है। वह अब किसी मदारी के इशारे पर भी नहीं चलना चाहता है। वह अब खुद मदारी बनना चाह रहा है। अब उसके अपने फैसले होते हैं, कब-कितना नाचना है? किसको-कितना नचाना है? लेकिन उसे यह पता नहीं है कि 'फैसले' अब उसके 'मदारी' माफ़िक हो गये हैं। 'फैसले' उसे नचाते रहे हैं! 'फैसले' के जवाब में 'फैसले' हो रहे हैं। 'फैसले' की… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 17, 2017 at 1:29am — 6 Comments

ग़ुब्बारों और यथार्थ के बीच (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

सब उड़ान भर रहे थे अपने-अपने 'ग़ुब्बारों' में सवार होकर। कुछ 'धार्मिक कट्टरता' के, कुछ 'अत्याधुनिकता' के कुछ किसी 'राजनीतिक दल' के, कुछ 'उद्योगों' के ग़ुब्बारों में उड़ रहे थे, तो कुछ 'उच्च शिक्षा' और 'उच्च तकनीक' के। जबकि कुछ लोग 'अंधविश्वास' या 'कुरीतियों' या 'भ्रष्टाचार' के ग़ुब्बारों में उड़ रहे थे। कुछ ऐसे भी थे, जो 'दिवास्वप्न' या 'कोरी कल्पनाओं' के ग़ुब्बारों में अनजानी दिशाओं में उड़ते हुए कभी ख़ुश हो रहे थे, कभी उलझ रहे थे।



"तेरा ग़ुब्बारा कौन सा है, तुम क्यों नहीं उड़ते इस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2017 at 5:24pm — 5 Comments

स्लो मोशन या उल्टी गिनती (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"भगवान समय-समय पर मनुष्य को उसकी औक़ात से वाक़िफ़ करवाता रहता है !" टेलीविजन पर भूकम्प की ख़बरें देखते हुए जोशी जी ने अपने मित्र से कहा।



"सच कहा तुमने ! वक़्त और हालात के साथ इन्सान इतना स्वार्थी हो गया कि प्रकृति, पर्यावरण और भगवान से भी रिश्ते बिगाड़ बैठा !"



मित्र की इस बात पर जोशी जी बोले- "वक्त और हालात सदा बदलते रहते हैं, लेकिन अच्छे रिश्ते और सच्चे दोस्त कभी नहीं बदलते ? बिगड़ते तब हैं, जब सोच बिगड़ जाती है ! सोच ही तो पहले प्रदूषित हुई है, पर्यावरण बाद में!… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 7, 2017 at 6:51pm — 7 Comments

भगवान तू है कहां (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मैं धर्म, धार्मिक ग्रंथों और प्रवचनों की सीढ़ियों पर चढ़कर सच्चे सुख की तलाश करता हुआ ईश्वर को तलाश रहा था!" अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए एक आदमी ने अपने साथियों से कहा।



दूसरे ने अपने अनुभव सुनाते हुए कहा- "मैं विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तकनीकी यंत्र-तंत्र की सीढ़ियों पर चढ़कर सच्चा सुख तलाशते हुए भगवान को चुनौती देकर विज्ञान को ही भगवान समझने लगा!"



तीसरा अपने दोनों साथियों से बोला- "मुझे जब जैसा मौक़ा मिला उसी अनुसार सीढ़ियों को चुनता रहा धन को ही भगवान समझ कर। कभी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 3, 2017 at 11:30pm — 8 Comments

जन-मन भावना (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"अरे, हामिद, हेमंत, हरिया और हरवीर .. तुम सब ये तिरंगे लेकर यूँ कहाँ जा रहे हो यहाँ से?" खेत की मेड़ पर दौड़ रहे बच्चों से रामदीन ने चिल्लाकर पूछा।



बच्चे दौड़ते हुए ही क्रमशः बोले-



"नेताजी का स्वागत करने!"

"सुना है वे बच्चों की सुनते हैं!"

"आज हम अपने मन की बातें कह कर रहेंगे उनसे!"



यह सुनकर मुस्कराते हुए रामदीन ने कहा- "लेकिन सड़क से जाओ न! मंच के पास पहुंचो!"



"चाचा, वहां पुलिस लगी है ,भगा देंगे हमें!" हामिद ने तिरंगा संभालते हुए… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 28, 2017 at 9:22pm — 2 Comments

अच्छे और बुरे पर्दे (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

स्मार्ट कक्षा में पटल पर अब तीन कानों का सांकेतिक चित्र प्रदर्शित किया गया जिसमें एक खुले हुए कान के दोनों तरफ के कान उँगलियों से ढके हुए थे। अब्राहम लिंकन के 'उनके ही बेटे के हेडमास्टर के नाम पत्र' के अगले पैराग्राफ का हिन्दी अनुवाद समझाते हुए शिक्षक ने छात्रों से कहा- "हेडमास्टर जी, मेरे बेटे को यह भी सिखाइयेगा कि सुने सबकी और जो कुछ भी वह सुने, उसे सत्य की छलनी से छान कर जो अच्छी बात निकले, केवल उसे ही ग्रहण करे!" इतना कहकर शिक्षक ने पटल के चित्र के खुले वाले कान के अंदर की तरफ उँगली से… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 26, 2017 at 9:30pm — 3 Comments

किसका हक़ ? (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"नहीं, अनवर मियाँ, यह तो नहीं होने दूंगी!" जुबेदा ने पोटली अपनी ओर खींचते हुए कहा- "मेरे अब्बू के ख़ून- पसीने की कमाई का ज़ेवर है यह और मेरी जमा पूँजी!"



"लेकिन मुझे मिले दहेज़ पर मेरा हक़ है! मैं जो चाहूं, करूँगा!" अनवर ने उसको आँखें दिखाते हुए पोटली फिर अपनी तरफ़ खींच ली।



"है, तुम्हारा हक़ है, और मेरा भी! लेकिन मेरी मर्ज़ी के बग़ैर तुम इसे अपनी अम्मीजान के इलाज़ में हरग़िज़ नहीं लगा सकते!"



"तो क्या तुम उन्हें अपनी अम्मी की तरह नहीं मानतीं!"



"मानती… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 21, 2017 at 5:00pm — 9 Comments

डिजिटल स्ट्रेन्थ़ (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

पार्क में योग करने के पश्चात जोशी जी मेहता बाबू के बगल में बैठते हुए बोले- "भैया, इस क़ुदरती माहौल में योग करके तो धन्य हो गया! बीमारियों से मुक्ति पा कर ख़ुद को जवां सा महसूस करता हूँ!"



"हाँ जोशी जी, सुबह-शाम यहाँ आ कर मैं भी एक अद्भुत शक्ति हासिल कर तनाव मुक्त हो जाता हूँ!"



फिर पास ही बैठे ,स्मार्ट फ़ोनों पर आँखें गढ़ाये दो युवकों की तरफ़ देख कर वे बोले- "तरस तो इन पर आता है कि इन पर अद्भुत बुढ़ापा आ रहा है!"



"बुढ़ापा!"



"हाँ बुढ़ापा ! कम उम्र में… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2017 at 7:32pm — 8 Comments

यथार्थ या सत्यार्थ (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

" अच्छा लगता है कि तुम मेरी ज़िन्दगी के इस मुकाम पर भी हमेशा की तरह अपनों की तरह समझाईश देती हो! " उसने सिगरेट का धुआँ मुंह से छोड़ते हुए अपनी इकलौती ख़ास सहेली से कहा।



"समझाईश! कभी असर हुआ मेरी समझाईश का तुम पर? अरे, माँ-बाप के अरमानों का नहीं,तो अपने असली वजूद का अब तो कुछ ख़्याल करो!"



सहेली की बात पर मुस्कराते हुए उसने कहा- "तूने कौन से तीर मार लिए? मैंने तो ऐसी कई सच्चाइयों को नज़दीक़ से जान लिया है, जो तुम्हारी जैसी कई बयान तक नहीं कर पातीं! खुश हूँ मैं अपनी इस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 14, 2017 at 4:31pm — 8 Comments

काग-भगोड़े और इंद्रधनुष (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

हर बार की तरह इस बार भी अपनी चित्रकला कृति को यूसुफ भाई अपने दोस्तों को दिखाकर व्यंग्य मिश्रित तारीफ़ें सुन रहे थे। कलाकृति में श्वेत-श्याम रंगों में खेत, बादल और एक किशोरी थी जो खड़े होकर रंगीन इंद्रधनुष बनाकर बादलों में छिपे पीले सूरज के गोलार्ध में किरणें बना रही थी। बस यही चर्चा के विषय थे।



मदन ने ठहाका लगाते हुए कहा- "लो खड़ी हो गई फिर नई फसल सतरंगे सपने सँजोए!"



"सतरंगे सपने! इंद्रधनुष भी सूरज की किरणों और पानी की बूंदों पर निर्भर होता है भाई!" लाखन ने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 7, 2017 at 2:15am — 8 Comments

नंगे लोग (लघुकथा)

फ़रीद भाई स्वयं अपने व अपने घर के छोटे-छोटे ज़रूरी काम ख़ुद कर लेते हैं लेकिन पता नहीं ऊपर वाले ने उनमें कौन सी दिमाग़ी कमी या बीमारी पैदा कर दी कि विक्षिप्त व्यक्ति जैसा जीवन जी रहे हैं। थोड़ी देर पहले ही किशन ने देखा था कि फ़रीद भाई ख़ुशी से झूमते हुए अपने व्यवसायी भाई के घर की ओर जा रहे थे। किसी भले नाई ने इस बार भी उनकी हेअर कटिंग और सेविंग मुफ़्त में कर दी थी। बड़े ही साफ़-सुथरे लग रहे थे। लेकिन अब यह क्या ! ये क्यूँ यहाँ अपनी हाफ़-पैंट की बेल्ट पकड़े हुए आधे नंगे से दौड़ रहे हैं? किशन… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 25, 2016 at 8:54am — No Comments

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