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लघु -कथा - अधूरा काम

बूढी दादी अपने पोते गोलू को लेकर गाँव के प्राथमिक विद्यालय में गई . उनको देखकर मास्टर साहब कहने लगे कि आपने इतना कष्ट क्यों किया . दादी जी बोली -गोलू पढ़ेगा इसी विद्यालय में लेकिन दोपहर का खाना ये घर पर ही खायेगा . बस एक ही बात कहने को आयी हूँ कि इसके पिता ने हमें शहीद की माँ होने का गौरव दिया है और इसे उसके अधूरे काम को पूरा करने के लिए जिन्दा रहना है .

शुभ्रा शर्मा 'शुभ '

मौलिक और अप्रकाशित

Added by shubhra sharma on August 12, 2013 at 1:30pm — 31 Comments

धूप का टुकड़ा.....

दरख़्तों से छुपा-छुपी खेलता हुआ

वो तीखी धूप का एक टुकड़ा

मेरे कमरे तक आने को बेचैन

हवा ज्यों तेज़ हो जाती

वो ताक कर मुझे

वापस लौट जाता

इतना रौशन है वो आज कि

उसके ताकने भर से

अँधेरे से बंद कमरे की

आंखें उसकी चमक से

तुरन्त खुल जाती हैं

बहुत नींद में रहता है कमरा

आंखें मिचमिचाता है

कुछ देर तक यूँही देख

फिर आँखें बंद कर लेता है

हम्म ....मुझे लग रहा है

आज धूप का ये टुकड़ा

बारिश…

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Added by Priyanka singh on August 12, 2013 at 12:13am — 30 Comments

प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो

दोस्तों, पिछले डेढ़ महीने, मंच से नादारद था  ... एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ पुनः हाज़िरी दर्ज करता हूँ ....

प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो

आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो 

उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे

तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो

आपका दिल है तो जैसा चाहिए…

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Added by वीनस केसरी on August 11, 2013 at 10:30pm — 16 Comments

रूप तुम्हारे -(रवि प्रकाश)

मंदिर-मंदिर सजने वाली,

अक्षत,चंदन-सज्जित थाली।

या तुम कोई दीपशिखा हो,

जिस पर जीवन-जोत लिखा हो।

पूजन कोई नमन पुकारे,

जाने कितने रूप तुम्हारे॥



रात का भीगा अश्रु-कण हो,

नव विहान की प्रथम किरण हो।

तपी दोपहर अलसाई सी,

सन्ध्या थोड़ी सकुचाई सी।

चन्द्रलेख हो पंख पसारे,

जाने कितने रूप तुम्हारे॥



फागुन की मादक बयार भी,

पावस की पहली फुहार भी।

कार्तिक की हल्की सी ठिठुरन,

पौष-माघ की ठण्डी सिहरन।

तुझमें खिलते मौसम… Continue

Added by Ravi Prakash on August 11, 2013 at 9:00pm — 25 Comments

नींद चीज है बड़ी

नींद चीज है बड़ी  उंघते रहिए

बेफिक्री में आंखे मूंदते रहिए

आग लगती है लगे हमको क्‍या

आम दशहरी जनाब चूसते रहिए

मौका मिले तो तंज कर लो

नहीं तो मस्‍ती में झूमते रहिए

आसां नहीं है अ‍हम को तोड़ना

दुनिया अजब है घूमते रहिए

अदाकार आप खूब है जनाब 

सूत्रधार की भूमिका निभाते रहिए

बातें विक्षिप्‍त की है आपसे बाहर

हंसी चेहरे पर कूटिल दिखाते रहिए 

"मौलिक…

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Added by रौशन जसवाल विक्षिप्‍त on August 11, 2013 at 8:00pm — 6 Comments

सूरज के घोड़े

सूरज के घोड़े चलते हैं निरंतर,

इस कोने से उस कोने तक ताकि

प्रकाश फैले कोने कोने में.

लेकिन घोड़ों के घर ही में रहता है अँधेरा.

प्रकाश उनसे ही रहता है दूर.

लेकिन उन्हें बोलने की इजाजत नहीं   

मांगना उन्हें वर्जित है

घोड़े के मुंह में लगा होता है लगाम

उन्हें रूकने, हांफने और सुस्ताने की भी इजाजत नहीं

उन्हें बस चलते रहना है ताकि सूरज चल सके

निरंतर, निर्बाध.

डर है, रुके तो हिनहिना उठेंगे .

उनके आँखों पर लगी होती…

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Added by Neeraj Neer on August 11, 2013 at 7:52pm — 13 Comments

पत्थर

पत्थर चुप हैं

वे ज्यादा बोलते नहीं

ज्यादा खामोश रहते हैं

 

खामोश रहना

जीवन की

सबसे खतरनाक क्रिया होती है

आदमी पत्थर हो जाता है

 

खामोशी का कोई भेद नहीं

कोई वर्गीकरण नहीं

बस,

दो शब्दों के

उच्चारण के बीच का अन्तराल

जहां कोई ध्वनि नहीं,

दो अक्षरों के बीच की

खाली जगह

जहां कुछ नहीं लिखा;

कोरा

 

ऐसे ही पत्थर होते हैं

जहां कुछ नहीं होता

वहां पत्थर…

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Added by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 5:00pm — 28 Comments

!!! गीत !!!

!!! गीत !!!



तुम राष्ट् के कर्णधार देवदूत हो,

यदि शांति का, मार्ग दर्शन कर सकोगे?

नित नये नूतन किसलय अरूणिमा में,

या सांझ की श्याम धुन बांसुरिया हो।

धूप भी चन्दन लगेगा दोपहरिया में,

राष्ट् को यदि कीर्ति गौरव दे सकोगे? 1

तुम मनुष्य हो कर्म का फल भूल जाओ,

देश-धर्म हित लड़ो स्व भूल जाओ।

प्यार की पवि़त्र गंगा हर कहीं हो,

राष्ट् को यदि एक भगीरथ दे सकोगे? 2

सत्यम आहिंसा प्रेमु धन खूब लुटाओ,

राजपथ का मार्ग…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 11, 2013 at 4:51pm — 14 Comments

साहित्य के नाम-वरों से बचना जरूरी

मै क्या लिखूं ,ये कैसे लिखूं और वो कितना लिखूं ,क्या शुद्ध है और परिष्कृत है और क्या अस्वीकार्य है? ये वरिष्ठ साहित्यकारों की जमात  नहीं मेरे समझने वाले पाठक तय करेंगे तो मुझे खुशी होगी और मेरा सृजन सफल होगा ! मुझे किसी वरिष्ठ पर कोई विश्वास नहीं,हो सकता है वो अपनी आलोचनाओं से मेरी ठीक-ठाक रचना का कबाडा कर दे ! मुझे अपने से जूनियर और अपने समकालीन मित्र से अपनी सृजन पर समीक्षा लिखवाना अच्छा लगता है और इससे मुझे और लिखने का हौसला मिलता है ! मुझे नहीं लगता कि आपके द्वारा सृजित सामग्री को किन्ही…

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Added by शिवानन्द द्विवेदी सहर on August 11, 2013 at 3:30pm — 73 Comments

निगाहों ने छुपा रखी समन्दर की निशानी है

निगाहों ने छुपा रखी समन्दर की निशानी है ।

बहा करता है अश्कों में ये जो खारा सा पानी है ।

ये मानो या न मानो तुम कोई सागर तो है दिल में,

उठा करती यहाँ पल पल जो मौजों की रवानी है ।

हज़ारों दर्द सहकर भी मोहब्बत छोड़ ना पाया ,

अकेला दिल नही मेरा ये हर दिल की कहानी है ।

इश्क से रूबरू होकर नए हर दिल के किस्से हैं ,

मगर ये चीज उल्फत तो यहाँ सदियों पुरानी है ।

भले ही दुनियादारी के बड़े नादान पंछी हम ,

मगर दिल…

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Added by Neeraj Nishchal on August 11, 2013 at 3:07pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अपना जीवन तो सुरंग है

जब अन्धियारा संग संग है,

सब रंगों का एक रंग है।

एक लड़ाई है बाहर तो,  

ख़ुद के अन्दर एक जंग है।

शहरों की गलियों से जादा,

गली दिलों की और तंग है।

कुछ करने की चाहत…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 11, 2013 at 8:00am — 7 Comments

ग़ज़ल

बहर= "रमल मुसम्मन महजूफ" 

2122 2122 2122 212

गर दिलों का दर्द उतरे शायेरी बन जाये ये

भूल ना चाहें अगर आवारगी बन जाये ये

मत समझना तुम मुहब्बत खेलने की चीज़ है

दिल्लगी करते हुये दिलकी लगी बन जाये ये

हम समझते ही रहें खुद को शनासा दोस्तों

मार कर हमको हमारी ज़िन्दगी बन जाये ये

दर्द ही मिलते रहें ऐसा नहीं होता अगर

चाह जिसकी वो मिले तो हर ख़ुशी बन जाये ये

तुम न करना इस क़दर बिस्मिल मुहब्बत…

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Added by Ayub Khan "BismiL" on August 10, 2013 at 9:00pm — 9 Comments

!!! निरगुन !!!

!!! निरगुन !!!

मन है मेरा गंगा-जमुना,

तन वृन्दावन भाए।

नील गगन से नयनागर मे,

नटवर की छवि पाऊं प्रियतम!

नयन नीर छलकाए।

मन मन्दिर में मनमोहन सी,

मूरत सदा बसाऊं प्रियतम!

मन चंचल भरमाए।

सुध-बुध खोकर बुध्दि विचारूं,

ज्ञान-विराग लुटाऊं प्रियतम!

पग-पग नृत्य कराए।

निश-दिन तेरी ज्योति निहारूं,

लौ आत्मा से पाऊं प्रियतम!

यह तन दीप सुहाए।

प्रेम दया करूणाकर तुम हो,

सदा प्रेम…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 10, 2013 at 2:42pm — 22 Comments

ग़ज़ल - सलीम रज़ा रीवा

ग़ज़ल 

.

क्यूँ  कहते हो कोई कमतर होता है !
दुनिया  में  इन्सान बराबर होता है !
 
पाकीज़ा  जज़्बात  है  जिसके सीने में !
उसका  दिल  भरपूर मुनौअर होता है !…
Continue

Added by SALIM RAZA REWA on August 10, 2013 at 9:30am — 19 Comments

सोचने भर से यहाँ कब क्या हुआ

सोचने भर से यहाँ कब क्या हुआ

चल पड़ो फिर हर तरफ रस्ता हुआ

 

जिंदगी तो उम्र भर बिस्मिल रही

मौत आयी तब कही जलसा हुआ

 

रोटियां सब  सेंकने में थे लगे

घर किसीका देखकर जलता हुआ

 

जख्म देकर दूर सब हो जायेंगे

आ मिलेंगे देखकर भरता हुआ

 

चाहिए पत्थर लिए हर हाथ को

इक शजर बस फूलता-फलता हुआ 

               

बिस्मिल = ज़ख्मी 

 

मौलिक और अप्रकाशित 

Added by Dr Lalit Kumar Singh on August 10, 2013 at 6:39am — 16 Comments

सावन की कसम

सावन की कसम 

कसक  उठी मन में

तार दिल के झनझना दिये.

बारिश की फुहारों ने

तपते बदन को छू

नस नस में तूफ़ान मचा दिये.

उफ़ ! सावन के इस ग़दर ने

प्रियतम की प्यास बढ़ाकर

मस्तिष्क की तरंगों को

कई गुना शून्य लगा दिये.

अब तुम आ जाओ प्रिये

एक एक पल न गुजर रहे ,

तुम्हे सावन की कसम

जो यदि नज़र फेर चल दिये.

 

-दिनेश सोलंकी 

स्वरचित और अप्रकाशित 

Added by dinesh solanki on August 9, 2013 at 5:00pm — 7 Comments

इस नील स्यामल

अनन्तता में

धकेल कर मुझ निर्वसना को

कोई चुरा ले गया है मेरे शब्द..

मेरी ध्वनियाँ... मेरे चित्र..

जा बैठा है ना जाने

किस कदम्ब की शाख पर

कैसे पुकारूँ सखी...मैं तो गई... !!

(मौलिक व  अप्रकाशित )

Added by Vasundhara pandey on August 9, 2013 at 5:00pm — 3 Comments

दिल्ली में फिर नादिर

शरीफों में शराफत नहीं

सिंह बकरी सा मिमियाए.

देख के, भारत माता का

आंचल भी शर्माए.

**********

दुष्ट कब समझा है जग में

निश्छल प्रेम की परिभाषा.

अपनी ही लाशों पर लिखोगे

क्या देश की अभिलाषा.

 

लाल पत्थर की दीवारें भी

महफूज़ नहीं रख पाएंगी .

सीमा पर बही रक्त जब

दिल्ली तक तीर आएगी .

 

सत्ता सुख क्षणिक है

सदैव नहीं रह पायेगा.

दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर

जब फिर से नादिर…

Continue

Added by Neeraj Neer on August 9, 2013 at 11:30am — 14 Comments

ग़ज़ल / नीरज

दर्दे सितम जो डोरे दिल कमज़ोर कर गए ।

माला से दिल की टूट कर मोती बिखर गए ।



ता उम्र हमने रखा जिनको सहेज़ कर ,

हाथो से मेरे छूट कर जाने किधर गए ।



अरमा अधूरे रह गये दिल में जो प्यार के ,

बनकर के अश्क वो मेरी आँखों में भर गए ।



आये थे दिल की दास्ताँ सुन ने वो शौक से ,

गहराइयों में दिल की झाँका तो डर गए ।



दो पग भी उनके बिन चलूँ मुमकिन न हो सका ,

हमतो खड़े ही रह गए रस्ते गुज़र गए ।



ज़िंदा हमे समझ रहे उनको खबर नही ,

जिस रोज… Continue

Added by Neeraj Nishchal on August 9, 2013 at 10:01am — 20 Comments

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