Added by Yogendra Singh on May 31, 2013 at 11:30pm — 12 Comments
साथी रे बिन प्रीत तुम्हारी रीती है मन की गागर
नदिया की तृष्णा हरे कैसे लवणित बूँद -बूँद सागर
अवगुंठित भाव होकर अधीर
गीतों में निरी भरते हैं पीर
विरह कंटक चुभ हिय घाव करें…
ContinueAdded by rajesh kumari on May 31, 2013 at 11:00pm — 22 Comments
जिन्दगी तुमसे लड नहीं पाया ।
हमने आख़िर में ख़ुद को समझाया।।
कुछ नहीं आदमी के हाथों में,
मरते-मरते ये सबने समझाया।।
जिन्दगी भर गरूर रहता है,
मौत के वक़्त ये नहीं पाया।।
जिन्दगी हर कसौटी पर जी,ली,
इसलिये राम,राम कहलाया।।
आदमी लालची ही होता है,
भूल जाता है राम की माया।।
मैं बहकता रहा हूँ उतना ही,
आपने मुझको जितना बहकाया।।
रात से हमको मिलती शीतलता,
रात ने शांत रहना…
Added by सूबे सिंह सुजान on May 31, 2013 at 11:00pm — 19 Comments
आशा की इक नवकिरण
भर देती है संचार तन में
पंख पखेरू बन के ये मन
भर लेता है ये ऊँची उड़ान
जा पहुंचा है दूर गगन पर
पीछे छोड़ के चाँद सितारे
छू रहा है सातवाँ आसमां
गीत गुनगुनाये धुन मधुर
रच रहा है हर पल नवीन
सृजन निरंतर रहा है कर
झंकृत करता तार मन के
बन जाता मानव महान
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Rekha Joshi on May 31, 2013 at 8:41pm — 5 Comments
========ग्रीष्म=========
सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार
धधके धूं धूं कर धरा, सूखी सरिता धार
मचले मनु मन मार, मगर मिलता क्या पानी
ठूंठ ठूंठ हर ठौर, ग्रीष्म की गज़ब कहानी
उड़ा उड़ा के धूल, लपट लू आंधी चलती
बंजर होते खेत, आह आँखें है भरती
रिक्त हुए अब कूप भी, ताल गए सब हार
सूर्य गरजता गगन से, गिरा गर्म अंगार
पेड़ पौध परजीव , पथिक पक्षी पशु प्यासे
मृग मरीचिका देख, मचल पड़ते मनु…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on May 31, 2013 at 7:30pm — 19 Comments
झमाझम गिरे बारिश , राहत मिला मिली तपन से | |
लू का घेरा बंद हुआ , मलय शीतल पवन से | |
आँखों में पड़े ना धूल , कीचड से पाँव… |
Added by Shyam Narain Verma on May 31, 2013 at 4:00pm — 3 Comments
उस दिन अचानक
न मैंने कुछ सोचा था ,
न वक्त ने कुछ तय किया था .
आकाश भी नीला था
उसने भी तो कुछ सोचा नहीं था -
फिर राह में आ गया बादल
हम आपस में टकरा गये
न उसने कुछ कहा
न मैंने कुछ कहा .
हवा धीरे धीरे बह रही थी ,
मुझे देख ठिठक गयी ,
पर, मैं अभिमानिनी ,
जैसे कुछ सुनने की अपेक्षा ही नहीं .
कुछ दूर चल कर बादल रूका ,
वह चाहता था मुझसे कुछ सुनना ,
पर , मैंने कुछ न कहा.
एक अंतराल बाद
जिसमें समय की…
Added by coontee mukerji on May 31, 2013 at 4:00pm — 14 Comments
कहते हो देशभक्त ,यदि अपने को आप !
लोग दे उदहारण ,ऐसा कर जाइये !!
तन मन धन सब ,लगाओ देश सेवा में !
लोग आप से ले सीख ,कुछ तो बताइये !!
देश का भी हो विकास ,खुद भी विकास करो !
जग में हो नाम ऐसे ,मान को बढ़ाइये!!
मात्र भाषणों से काम,…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on May 31, 2013 at 1:00pm — 11 Comments
प्रिय मित्रों,
हिंदी में आम पाठकों के लिए क्लिष्ट भाषा का उपयोग नहीं होना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है. हिंदी निश्चित ही अपार शब्दों का समंदर है जिसमे सरल से लेकर कठिन, उच्च और बौद्धिक शब्दों की भरमार है. साहित्यकारों, हिंदी प्रेमियों, हिंदी विषय के ज्ञाताओं और हिंदी का ज्ञानार्जन करने वालों के सन्मुख क्लिष्ट भाषा का उपयोग समझ आता है मगर जब आम पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों की बात सामने आती है तब कवि को, लेखक को, नेता को, साहित्यकार को, मीडिया को या कोई भी रचनाकार को आम जनता की मनोस्थिति,…
ContinueAdded by dinesh solanki on May 31, 2013 at 7:51am — 7 Comments
छंद विधान - रगण जगण' की ५ आवृत्तियों के बाद एक गुरु
राष्ट्र स्वाभिमान की प्रतीक है ध्वजा त्रिवर्ण किन्तु अग्नि वर्ण केतु का रहा न मान है
द्रोह की प्रवृत्ति द्रोह को बता रही महान और दिव्य भारतीयता रही न ध्यान है
अन्धकार का प्रसार हो रहा अपार बन्धु मानवीय मूल्य का न लेश मात्र ज्ञान है
राष्ट्रवाद का झुका हुआ निरीह शीश देख राष्ट्रद्रोह का यहाँ तना हुआ वितान है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ
Added by Dr Ashutosh Vajpeyee on May 31, 2013 at 7:30am — 17 Comments
मांगने वाले से छीनने वाला हकदार अच्छा है
हाल तो पूछ ही लिया चलो बीमार अच्छा है
आज बोलता कुछ है कल कुछ और करता है
शहर के सभी…
ContinueAdded by Yogendra Singh on May 30, 2013 at 8:00pm — 17 Comments
शंक निशंक त्रिशंकु मन,
मचि रही उथल पुथल,
जीत हार का फेर करत
उठा पटक यह त्रिशंकु मन।
अंतर्द्वंद हिंडोल के बीच,…
ContinueAdded by annapurna bajpai on May 30, 2013 at 5:30pm — 4 Comments
---नदी...
नदी के कई नाम हैं...'सरिता, सरी, दरिया..........' अनवरत बहता हुआ स्वच्छ पानी -नदी कहलाता है. पर आजकल के सन्दर्भ में दरिया वो भी साफ़ पानी का थोड़ा मुश्किल है. नदी बहते हुए कभी शांत तो कभी चंचल हो जाती है. अमूमन दरिया शांत बहने वाली धारा लगती है.ये अपने मूल स्थान से जब निकलती है तो प्रायः पतली धारा ही होती है ठीक किसी नवजात शिशु की तरह. जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है उसके वेग में परिवर्तन होता जाता है जब पर्वत और पहाड़ों से अपनी यात्रा आरंभ करती है तो उसकी रवानी…
Added by Veena Sethi on May 30, 2013 at 4:30pm — 8 Comments
सड़क पर पड़ी
खाली बोतल
लोग आते- जाते
ठोकर मार जाते हैं .....
और इस तरह
यहाँ से वहाँ भटकती ....
न जाने कहाँ से कहाँ
पहुँच जाती है
ये खाली बोतल…
Added by Sonam Saini on May 30, 2013 at 11:30am — 8 Comments
तब होके रहेगा गोल...!
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पूछा मैंने नन्ही शहरी चिड़िया से
तपती धरती पर तुम क्यों
इस तरह उतर आई .....!
आकाश की ओ स्वछन्द परी,
स्वार्थी इंसानों की दुनिया में
नाहक ही मरने को आयी?
बोली बेचारी मायूस होकर
जहाँ जहाँ था हमारा बसेरा
वहां वहां कट गये वृक्ष के आशियाने
तन गए इंसानों के गगनचुम्बी महल
ये देख हमारी बिरादरी के दिल गए दहल.
अब न मिलती छाँव है
न हवा, न मिलता कहीं जल है.
मैं सोच रही…
Added by dinesh solanki on May 30, 2013 at 8:30am — 11 Comments
“थाम अंगुली जो चलाये वो पिता होता है”
ये पंक्ति तो है हमारी। अब आप इसमें तीन पंक्तियाँ और जोड़ कर चार पंक्तियों का एक मुक्तक बना दीजिये। जिन कवि मित्रों की चार लाइन की रचना हमें पसंद आयेगी, हिंदी की अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका “प्रयास” के जून अंक (पिता विशेषांक) में प्रकाशित की जायेंगी। आप अपनी रचना www.vishvahindisansthan.com पर पोस्ट कर सकते हैं या prayaspatrika@gmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं…
ContinueAdded by Prof. Saran Ghai on May 30, 2013 at 4:21am — 1 Comment
शार्दूलविक्रीडित छंद
इस छन्द में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १९ वर्ण होते हैं। १२ वर्णों के बाद तथा चरणान्त में यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है - गुरु-गुरु-गुरु (मगण ), लघु-लघु-गुरु (सगण ), लघु-गुरु-लघु (जगण), लघु-लघु-गुरु (सगण ) गुरु-गुरु-लघु (तगण ), गुरु-गुरु-लघु (तगण ), गुरु |
माँ विद्या वर दायिनी भगवती, तू बुद्धि का दान दे |
माँ अज्ञान मिटा हरो तिमिर को, दो ज्ञान हे शारदे ||
हे माँ पुस्तक धारिणी जगत में, विज्ञान विस्तार दे…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on May 29, 2013 at 7:26pm — 10 Comments
पहला प्रयास है ,निसंकोच समझा दीजिए
धरती के चिथड़े हुए ,जल बिन सब बेजान |
खाली बर्तन ले सभी ,भटक रहे इन्सान ||
गर्मी से सूखा बढ़ा , जल की हाहाकार |
अफरा तफरी है मची ,प्यासे है नर नार ||
ताल भये सूखे सभी, पारा बढता जाय |
खाली गागर ले फिरे, पानी नजर न आय ||
मिनरल वाटर कंपनी ,धार रूप विकराल |
पानी सारा ले उडी ,जन जन है बेहाल ||
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Sarita Bhatia on May 29, 2013 at 6:32pm — 18 Comments
मानव दौड़ें राह पर, थकते उसके पाँव
आत्मा नापे दूरियाँ, नगर डगर हर गाँव |
थक जाते है पाँव जब, फूले उसकी साँस,
मन तो अविरल दौड़ता,मन में हो विश्वास |
सार्थक मन की दौड़ है, भौतिकता को छोड़
सही राह को जान ले, उसी राह पर दौड़ |
पञ्च तत्व से तन बना, जिसका होता अंत
बसते मन में प्राण है, जिसकी दौड़ अनंत…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 29, 2013 at 6:17pm — 15 Comments
नाच नचाइ रही सबको अरु ,झूठ फरेब लिए बहु रंगे!
प्रेम क पाठ पढ़ाइ सबै फिर, भाग गयी वह दूसर संगे !!
रूप बिगाड़ फिरे मज़नू बन ,लागत हो जइसे भिखमंगे !
आपन बाल उखाड़ रहे अब ,आवत देखि दया…
Added by ram shiromani pathak on May 29, 2013 at 3:30pm — 12 Comments
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