- 80 बरस बाद दोहराई गई परंपरा
- केरा गांव के लोगों का अनूठा कार्य
- तालाबों के अस्तित्व को बचाने की मुहिम
- जल संरक्षण की दिशा में ग्रामीणों का अहम योगदान
- ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’ का संदेश
भारतीय संस्कृति में संस्कार का अपना एक अलग ही स्थान है। सोलह संस्कारों में से एक होता है, विवाह संस्कार। देश-दुनिया में चाहे कोई भी वर्ग या समाज हो, हर किसी के अपने विवाह के तरीके होते हैं। मानव जीवन में वंश वृद्धि के लिए भी विवाह का महत्व सदियों से कायम…
Added by rajkumar sahu on June 15, 2011 at 1:52am — 1 Comment
खिड़की खुलते ही नज़र आता था सोसायटी के पीछे खड़ा
बरगद का इक बूढ़ा पेड़
हर मौसम में एक नयी पोशाक पहने |
शाखें हिलाकर हाथ की तरह
जाने किस किसको बुला लिया करता था,
अनजान से चेहरे आते
और कुरेदकर लिख जाते
अपनी ख्वाहिशें और ग़म उसके तनों पर
चाँद जब परेड करता रात…
ContinueAdded by Veerendra Jain on June 14, 2011 at 11:50pm — 7 Comments
Added by Hilal Badayuni on June 14, 2011 at 10:00pm — 2 Comments
Added by rajkumar sahu on June 14, 2011 at 3:00pm — No Comments
Added by neeraj tripathi on June 14, 2011 at 11:15am — No Comments
पंछी ए ख्वाब के पर काट के सारे तुमने,
कर दिये फौत ये अरमान हमारे तुमने।
बेकरारी में ये मदहोश मेरी धड़कन है,
अपना साथी तो फकत टूटा हुआ दरपन है,
बेसदा मेरा तराना हुये अल्फाज भी गुम,…
ContinueAdded by Mohini Dhawade on June 13, 2011 at 10:30am — 1 Comment
Added by MAHENDRA BHATNAGAR on June 13, 2011 at 10:00am — No Comments
Added by satish mapatpuri on June 13, 2011 at 2:00am — 9 Comments
पर्यावरण की चिंता हर बरस शुरू होती है, उसके बाद दम तोड़ देती है। पेड़ों की अंधा-धुंध कटाई के बाद जंगल घटते जा रहे हैं, वहीं प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। पर्यावरण से खिलवाड़ का खामियाजा हर किसी को भुगतना पड़ रहा है, फिर भी हम चेत नहीं रहे हैं और हरियाली को हर तरह से उजाड़ने में लगे हैं। विकास के नाम पर पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही हैं और यही धीरे-धीरे हमारे जीवन पर आफत बनती जा रही है या फिर दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पर्यावरण में धीमी मौत घुलती जा रही है, जो प्रदूषण के तौर पर हमें मुफ्त…
ContinueAdded by rajkumar sahu on June 12, 2011 at 11:14pm — No Comments
मैं अकेला हूँ प्रिये -
हर दृश्य में, हर श्राव्य में,
हर मूर्त में, हर काव्य में,
जो परे हर सुख से, मैं वो क्लान्त बेला हूँ प्रिये...
मैं अकेला हूँ प्रिये -
[१] इक संग तेरे जीवन मधुर रसधार बन बहता गया,
तेरे लिए हर क्लेश दुनिया का सहा, सहता गया,…
ContinueAdded by डॉ. नमन दत्त on June 12, 2011 at 6:00pm — 5 Comments
Added by rajkumar sahu on June 12, 2011 at 4:37pm — No Comments
Added by Rohit Singh Rajput on June 12, 2011 at 2:00pm — 3 Comments
तेरी याद के अम्बार लिए बैठे हैं,
गुल तेरे हम ख्वार लिए बैठे हैं.
क़त्ल कर.. दफना गया है तू जिसको,
हाथो मे वोही प्यार लिए बैठे हैं.
जीत का सेहरा तो तेरे सर पे सजा,
हाथ मैं हम 'हार' लिए बैठे हैं.
दुश्मन भी शरमा गया.. अब मुझसे,
सीने मैं, इतने वार लिए बैठे हैं.
पत्थर का, मुझे देखके दिल भर आया,
आँखों मैं वोह. गुबार लिए बैठे हैं,
'उफ़' नहीं मेरी कभी दुनिया ने सुनी,
सदा-ए-दिल…
ContinueAdded by इमरान खान on June 11, 2011 at 8:00pm — 5 Comments
ये रचना मैंने लिखी तो महा उत्सव अंक 8 के लिए थी ... १० जून की रात को पोस्ट भी की लेकिन
शायद मैंने ही लेट हो गया जो सम्मिलित नहीं हो पायी कोई बात यहीं.. ऐसे ही पोस्ट कर देता हूँ...
ये गीत मुझे ही गुनगुनाने नहीं आते,
हाँ मुझे ही रिश्ते निभाने नहीं आते
प्यारी ज़मी को मैंने सींचा था खून से,
हर एक बीज बोया था मैंने जूनून से
इक रोज़ भी न मैं तो आराम कर सका,
इक रात भी न मैं तो सोया सुकून से
अपनाऊँ हर शख्स…
(अदबी महफ़िल की अज़ीम शख्सियात को मेरा आदाब ! मैं बस ऐसे ही किसी को ढूंढते हुए यहाँ चला आया !वो मुझे मिल गया .. लेकिन साथ ही जादूयी जगह भी मिली ! मुझ जैसे शख्स, जो बहुत कुछ लिखना चाहता है सुनना चाहता है ! न तो मुझ पर कुछ कहना आता है न ही साथ निभाना, जब ओपन बुक ज्वाइन कर ही ली है तो सोचा.. अपनी तुकबंदी भी यहाँ पर जोड़ता चलूँ ! गुज़ारिश है सभी से के कुछ तनक़ीद ज़रूर करैं ... तरीफ के लायक तो मेरे अलफ़ाज़ हैं नहीं…
ContinueAdded by इमरान खान on June 10, 2011 at 6:30pm — No Comments
बस कुर्सी पर केवल बेईमान चाहिए.
न जीव चाहिए न जहान चाहिए ,
बस कुर्सी पर केवल बेईमान चाहिए.
हैरत हो बाढ़ से या प्लेग का जमाना,
हैजा भूकंप और गोली का निशाना.
न आंख चाहिए न कान चाहिए,
बस कुर्सी पर केवल बेईमान चाहिए.
संविधान प्रजातंत्र पार्टी व नेता ,
घूस लूट फूट गुट दुनियां को देता,
न मान चाहिए न सम्मान चाहिए.
बस कुर्सी पर केवल बेईमान चाहिए.
आरक्षण की बोल के बोली…
Added by R N Tiwari on June 10, 2011 at 3:00pm — No Comments
Added by rajkumar sahu on June 9, 2011 at 6:44pm — No Comments
Added by rajkumar sahu on June 9, 2011 at 2:51pm — 1 Comment
Added by moin shamsi on June 9, 2011 at 2:00pm — No Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |