हम क्यों खोजते है
सच को
बार बार?
कस्तूरी के
मृग की तरह
वो तो सदा
हमारे बीच
ही रहता है.
हम उसे रोज
देखते है
सुनते हैं
सूंघते हैं
पर अंजान बन
उंघते है.
अगर हमने
मान लिया
हम सच जानते है
तो लोग हमें
झूठा कहेंगे
क्योंकि वो भी
कस्तूरी गंध के
सच को जानते है.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 29, 2014 at 9:30pm — 17 Comments
सच-झूठ,दिन-रात
बनाते रहते हैं लोग.
औरत और आदमी को
अलगाते रहते हैं लोग.
हर रोज जीवन को
उलझाते रहते है लोग.
कभी बनाते है भोग्या
तो कभी चढ़ाते हैं भोग.
नर-नारीपूरक हैं,
नही समझ पाते लोग.
दोनो का सम- भाव हो
कब आएगा यह संजोग?
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 25, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
क्यों घूंघट में है सच?
क्योंकि तुमने प्रयास नहीं किया
कभी इस और ध्यान नहीं दिया.
उलझे रहे जीवन के उहापोह में
परायों के दोष अपनों के मोह में.
अगर तुमने हिम्मत दिखाई होती
कभी अपनी अंतरात्मा जगाई होती.
देखा होता उठाकर तुमने घूंघट,
ख़ुशी भरा होता आँगन खचाखच.
डॉ.विजय प्रकाश शर्मा.
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 22, 2014 at 10:00am — 14 Comments
अंतःकरण की शुद्धि
सुबह में , शाम में,
वर्षा और घाम में,
जीवन के साम-दाम में,
अंतःकरण की शुद्धि चाहिए,
देवता के पूजन में ,
मन्त्रों के गुंजन में,
सज्जन और दुर्जन में,
अंतःकरण की शुद्धि चाहिए,
राग-वैराग्य में,
स्वार्थ और त्याग में ,
जीवन सौभाग्य में,
अंतःकरण की शुद्धि चाहिए,
दुःख में क्लेश में
किसी भी वेश में ,
दुर्भाग्य और भाग्य में,
अंतःकरण की शुद्धि चाहिए,
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा …
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 20, 2014 at 8:08pm — 15 Comments
माँ
मान भरे ममता का आँचल
तो पिता
सर पर नीलाभ आसमान है
दोनों का स्नेह एक सामान है.
माँ
बच्चों के दर्द से बिलबिला जाती है
तो पिता की चिंता
दर्द की दवा बन जाती है.
माँ कोमलता से भरी है
तो पिता के परुष से
विपत्तियाँ भी डरी है.
बच्चों के लिए
दोनों का स्नेह ही
वेदना -निग्रही है.
डॉ.विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 15, 2014 at 12:05pm — 10 Comments
जब से "छपास" का
रोग लगा है.
लिखना रुकता ही नहीं ,
कविता अतुकांत,
कहानी अनगढ़ी ,
बिना यात्रा किये
यात्रा वृतांत,
बिना मिले
विरह वर्णन,
बिना प्यार किये,
रोमांच का सच.
वृद्ध हाथों में
क्रांति की मशाल,
बिना सच जाने
चेतावनी!
क्या मजाल,
कि आप कुछ बोल दें.
जरा सा सच का पर्दा खोल दें
चैनलों पर रात-दिन देखिए,
पूरे देश में,
"नपुंसक बवाल".
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक व् अप्रकाशित…
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 15, 2014 at 12:30am — 14 Comments
वैसे तो मैं
हर डगर से पहुँच जाता हूँ
तेरे पास .
मगर यह
प्रेम डगर बहुत कठिन है.
तुम्ही आ जाओ न
ढलान से होकर.
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 12, 2014 at 8:00pm — 17 Comments
तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.
तुम झुको,
मनुहार से मैं
चित्र भावों का बना लूँ .
कौन जाने कब
मिले फिर
आज तो यह गीत गालूँ.
तुम रुको,
मैं स्नेह से
दीपक जला लूँ.
विजयप्रकाश
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 10, 2014 at 1:03pm — 8 Comments
तुम हर पल जीतना चाहते हो
हारना तुम्हारी फितरत में नहीं है
कोई तुम्हारी युद्ध से
लौटी तलवार को
छूना नहीं चाहता
तुम्हारे रक्त-रंजित हाथ
अब तुम्हारी माँ भी
नहीं पहचानती.
तुम्हारे बाल सखा कबके
विलीन हो गए रणभूमि में
तुम्हारी जीत के लिए.
कोई तुम्हारे कमजोर
पलों में
साथ नहीं देना चाहता
इतनी जीत का क्या करोगे?
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा
(मौलिक व अप्रकाशित )
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 10, 2014 at 11:30am — 14 Comments
तुम नीलाभ
नीरव गगन में
ध्रुवतारे की तरह
अविचल
कैसे रह लेते हो?
शायद तुममें
मानव-मन की
विचलन
का बोध नहीं .
या स्थितिप्रज्ञ हो गए हो.
विजयप्रकाश
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 10, 2014 at 12:00am — 11 Comments
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