ए ग़म कब तलक साथ चलता रहेगा
छोड़ दे मेरा साथ अब खुदा के लिए
ज़र्रा ज़र्रा टूट चुका है मेरा नाजुक सा दिल
माँ ले मेरी बात अब खुदा केलिए
दीपक कुल्लुवी
إ جم كاب طلاق ثاث شلت رهج
شهد د مرة سطح أب خودا ك لي
زارا زارا توت شوكة مرة نازك سى ديل
مان ل مري بات أب خودا ك لي
دبك شارما كلف
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 18, 2010 at 10:44am —
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सामयिक गीत:
आज़ादी की साल-गिरह
संजीव 'सलिल'
*
*
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
चमक-दमक, उल्लास-खुशी,
कुछ चेहरों पर तनिक दिखी.
सत्ता-पद-धनवालों की-
किस्मत किसने कहो लिखी?
आम आदमी पूछ रहा
क्या उसकी है कहीं जगह?
आयी, आकर चली गयी
आज़ादी की साल-गिरह....
*
'पट्टी बाँधे आँखों पर,
अंधा तौल रहा है न्याय.
संसद धृतराष्ट्री दरबार
कौरव मिल करते अन्याय.
दु:शासन…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 17, 2010 at 8:00pm —
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मुक्तिका:
कब किसको फांसे
संजीव 'सलिल'
*
*
सदा आ रही प्यार की है जहाँ से.
हैं वासी वहीं के, न पूछो कहाँ से?
लगी आग दिल में, कहें हम तो कैसे?
न तुम जान पाये हवा से, धुआँ से..
सियासत के महलों में जाकर न आयी
सचाई की बेटी, तभी हो रुआँसे..
बसे गाँव में जब से मुल्ला औ' पंडित.
हैं चेलों के हाथों में फरसे-गंडांसे..
अदालत का क्या है, करे न्याय अंधा.
चलें सिक्कों जैसे वकीलों के झाँसे..
बहू…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 17, 2010 at 7:36pm —
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एक लकडहारा था..बेहद गरीब और मासूम.जबतक जंगल में कड़ी मेहनत कर लकड़ी न काटता था और उसे बेच कर कुछ पैसे न कमाता था उसके घर में चूल्हा नहीं जलता था .एकबार कई दिनों तक लगातार मूसलाधार बारिश हुई, लकडहारा जंगल नहीं जा पाया फलस्वरूप उसके घर भुखमरी की नौबत आ गयी ....खैर ..बारिश तो एक दिन थमना था सो थमी ...लकडहारा कुल्हाड़ी लेकर जंगल भागा.संयोग से उसे एक पेड़ सूखा मिल गया..उसने मेहनत से ढेर सारी लकड़ी काटी...किन्तु एक भूल हो गयी थी ..घर से वह रस्सी लाना तो भूल ही गया था ..अब क्या हो ?लकड़ी का ढेर…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on August 17, 2010 at 6:28am —
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अपने दिल को तब धड़कते पाया था
गो कि तुम नहीं... तुम्हारा साया था --
तुम अय्यार थे जो संभल गए जल्दी
मैं अब तलक तुम्हे भूल ना पाया था --
जुल्फों की तारीकियों में गुज़रे वो लम्हे
औ कल तुम दिखीं, जब जूड़ा बनाया था --
बहुत सिकुड़ी शब-ए-वस्ल इन बाहों में
जो हुई सहर तो कोई सपना पराया था --
तेरे दर से लौटा तो फ़कीर सा खुश था मैं
नाउम्मीदियों का पोटला भी भर आया था --
लो अश्क बन गए अब दोस्त मिरे 'ताहिर'
ख़याल-ए-इश्क जो…
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Added by विवेक मिश्र on August 17, 2010 at 1:30am —
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AAKHARI PANNEN
आखरी पन्नें
آخر بن
मेरे आंसुओं के
कद्रदान हैं बहुत
हम रोना नहीं चाहते
वोह बहुत रुलाते हैं
दीपक शर्मा कुल्लुवी
دبك شارما كلف
हमनें किसी के वास्ते
कुछ भी नहीं किया
अब किसको क्या बतलाएं
किस हाल में मैं जिया
दीपक शर्मा कुल्लुवी
دبك شارما كلف
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 4:23pm —
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मैं और मेरी शायरी
मुझे अपनी खता मालूम नहीं
पर तेरी खता पर हैराँ हूँ
तकदीर के हाथों बेबस हूँ
अफ़सोस है फिर भी तेरा हूँ
दीपक शर्मा कुल्लुवी
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 4:21pm —
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قتل حین
कातिल हैं
तेरी बेरुखी तेरा ग़म
मेरी तकदीर में शामिल है
कभी तो करते हमपे यकीं
के हम भी तेरे काबिल हैं
तेरी बेरुखी तेरा ग़म----
लाख जुदाई हो तो क्या
यादों में कभी हो ना कमीं
बचा लेंगे मंझधार से भी
हम ही तेरे साहिल हैं
तेरी बेरुखी तेरा ग़म----
क़त्ल भी कर दो उफ़ ना करें
हँसते हँसते मर जाएंगे
ना ज़िक्र करेंगे दुनियां से
कि आप ही मेरे कातिल हैं
तेरी बेरुखी तेरा ग़म----
हम 'दीपक' थे जल जाते…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 2:10pm —
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प्राकृति से खिलवाड़
प्राकृति से खिलवाड़ होगा तो प्राकृतिक आपदा आएगी ही I
कहीं बाढ़ कहीं आग कहीं सूखे की मार कहीं बादल फटने की घटनाएँ कहीं भूकंप आज एक आम सी बात हो गई है I कारण केवल एक ही है प्राकृति से खिलवाड़ I पहाड़ों जंगलों खेत खलिहानों को काट काटकर बड़े बड़े भवन,होटल बन गए I भूमाफिया जंगल माफिया राज कर रहे हैं I गरीब लोग परेशान हैं I वृक्ष कटते जा रहे हैं I धीरे धीरे हम प्रलय की और जाते जा रहे हैं I समय रहते हम लोगों में जागरूकता नहीं आई तो वो दिन दूर नहीं जब इस धरा का…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 12:10pm —
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आपकी यादों का खज़ाना लिए
इक रोज़ चले जाएँगे हम
याद तो करोगे ज़रूर
पर कहाँ आ पाएँगे हम
दीपक कुलुवी
दो कतरा-ए-शराब पास न होती
तो क़यामत होती
तमाम रात बीत जाती
तेरी याद ही न जाती
DEEAP SHARMA KULUVI
09136211486
Added by Deepak Sharma Kuluvi on August 16, 2010 at 12:08pm —
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चल रही हो संग हरदम विडंबना बन सहचरी तो क्यों न देखें ज़िन्दग़ी को एक नया आयाम दे कर ।
स्वप्न बन कर रह गई हो नव उषा की लालिमा जो क्यों न अपने रक्त ही से देख लें अंजाम दे कर ॥
देख कर हँसता रहा है द्वेष औ’ गुमान से
इस जमाने की कहें क्या बाँधता व्यवधान से
बढ़ते कदम का हर फिसलना हो अगर संज्ञान से
दृष्टि हँसती तोड़ती-सी कह उठेगी देख कर फिर - थे सधे कितने कदम वो बढ़ते रहे मुकाम दे कर ॥
खेत की हरियालियों में बारुदों के बीज क्यों
शांति खातिर हैं जगह जो बौखलाती…
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Added by Saurabh Pandey on August 15, 2010 at 9:03pm —
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हमसफर हूँ उम्मीद जगा दी उसने,
खुदा से तामील भी करा दी उसने...
मेरे एक शेर को भी ना दाद दी उसने,
मालूम हो के गजल बना दी उसने...
इतना गहरा आगोश मेरे यार तेरा,
ख्वाबों से मुलाकात करा दी उसने...
दामन है या के मैखाना-ए-जन्नत,
रूह को भी शराब पिला दी उसने...
अब तो मीरा बनी नाचती है रूह,
इश्क की वो धुन लगा दी उसने...
सर्द तासीर दिखाती वो मुलाकातें,
आग सी जहन में लगा दी उसने...
रखी मखमल में रूह उसने…
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Added by भरत तिवारी (Bharat Tiwari) on August 15, 2010 at 8:58pm —
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इनकार तू करता नहीं...
मांगता मैं भी नहीं...|
हर बात तू समझ के...
कुछ बताता भी नहीं |
खुद को तनहा क्यों करूँ...
फ़िक्र करके बेवजह |
है रोम रोम में तू बसा ...
करूँ ख्वाहिशें किस के लिए |
मैं आया हूँ...
दो घड़ी के तेरे साथ के लिए ... |
भीड़ में भी मिलते...
तेरे अहसास के लिए... |
गुफ्तगू करता रहा...
शोर से कहीं बेखबर... |
बस तू ही काफी है,
इस रूह-ए-परेशां के…
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Added by भरत तिवारी (Bharat Tiwari) on August 15, 2010 at 8:50pm —
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मन तो करता है के सलाम करूँ | लहरा के तिरंगे को गुमान करूँ || चोर हैं देश का भेष है सिपाही का|
इन सफ़ेदपोशों का काम तमाम करूँ ||
घर बना कैद ये कैसी है आज़ादी |
जश्न तो तब जो सर-ए-आम करूँ ||
गान है राष्ट्र का साज हैं विदेशी |
सुनूँ कैसे क्या खुद को गुलाम करूँ ||
कहीं छपा के खबर अभी मत छापो |
क्या मज़ाक है देश को नीलाम करूँ ||
देश का हूँ तो क्यों ना लिखूँ ये आखिर |
कहते है भरत ना बोले तो आराम करूँ… |
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Added by भरत तिवारी (Bharat Tiwari) on August 15, 2010 at 12:30pm —
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माना की तुम भूल गए हो ,
दिलों दिमाग से खुल गए हो |
वो भी कुछ कम नहीं थे ,
पर दिमाग में उनके बल नहीं थे
तीन रंग उनकी कमजोरी थी ,
खेली खून की होली थी |
वो कहते ये चिर है माँ का ,
शहीद हुए जो धीर थे माँ का ,
जिसके लिए वो जान गवां दी
अपनी माँ की वस्त्र बचा दी
इसको थोड़ी पहचान दो ,बेटे
तीन रंग को सम्मान दो ,बेटे !!
.....रीतेश सिंह
Added by ritesh singh on August 15, 2010 at 8:39am —
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स्वाधीनता दिवस पर विशेष रचना:
गीत
भारत माँ को नमन करें....
संजीव 'सलिल'
*
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें.
ध्वजा तिरंगी मिल फहराएँ
इस धरती को चमन करें.....
*
नेह नर्मदा अवगाहन कर
राष्ट्र-देव का आवाहन कर
बलिदानी फागुन पावन कर
अरमानी सावन भावन कर
राग-द्वेष को दूर हटायें
एक-नेक बन, अमन करें.
आओ, हम सब एक साथ मिल
भारत माँ को नमन करें......
*
अंतर में अब रहे न…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 14, 2010 at 11:39pm —
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तुम कब जानोगे?
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों खून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूं धुऐं से भरी उन गलियों में
जिसे दौड कर पार करने में वह समर्थ न था.
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे.
दूषित नारों के व्यापारियों ने
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
जो…
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Added by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on August 14, 2010 at 11:30pm —
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कल पंद्रह अगस्त है. मैंने सोचा की कुछ लिखूं इस स्वतंत्रता दिवस पर. लिखने बैठा तो कुछ या पंक्तियाँ बनी मेरे मस्तिस्क और ह्रदय में. मई उनको आपके सामने रख रहा हूँ|
वर्षों से थी पराधीनता से भारत माता ग्रस्त|
समय सुहाना सैंतालिस का, आया पंद्रह अगस्त||
आया पंद्रह अगस्त हुआ था नया सवेरा|
देश हुआ आज़ाद, फिरंगियों ने भारत छोड़ा||
गैरों की मर्ज़ी से था, जो चलता जीवन|
अपने बस में हुआ, खिल गए वन औ' उपवन||
खिंजा हटी बागों से, आया था बहार का…
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Added by आशीष यादव on August 14, 2010 at 5:40pm —
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व्याख्या
गूढ़ जीवन को सरल बोल दिए,
परिचय मिला जटिलता से,
सबको जीवन का सार बताया,
स्वयं बन गयी सारांश ताल,
स्वामिनी का रूप भी धर लिया,
पर मन बंदिनी से नहीं उबरा,
अंकुर ही मैंने अब तक रोपा है,
वाट वृक्ष बन नहीं किसी कोघोंटा है.
Added by alka tiwari on August 14, 2010 at 4:41pm —
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उष्ण आगोश था
मैं मदहोश था
ना मुझे होश था
ना मुझमे जोश था
मैं शीतस्वापन में था
ना ही मैं जगा
ना मुझे उठाया गया
ना ही मैं जला
न मुझे सुलगाया गया
मुझे तो बुझाया गया
अब राख ही राख है
और हैं एक चिंगारी
आपका :- आनंद वत्स
Added by Anand Vats on August 14, 2010 at 11:24am —
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