2122 2122 2122 2
सो रहा माझी किनारा दूर लगता है
बढ़ रही कश्ती पथिक मजबूर लगता है।1
रोशनी का जो सबब हमदम कभी बनता,
आँख पे पट्टी चढ़ी मद चूर लगता है।2
सिर गिने जाते अभी तक थे जमाने में
हो रहा उल्टा नशा भरपूर लगता है।3
खेल चलता है यहाँ शह-मात का कबसे
मात चढ़ती शाहपन काफूर लगता है।4
हो रहीं सब ओर हैं बाजार की बातें
बिक गया जैसे यहाँ हर नूर लगता है।5
दाँव पर लगता यहाँ अब जो बचा कुछ था
लुट रहा कोई बिका मशकूर…
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Added by Manan Kumar singh on July 17, 2016 at 10:00am —
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2122 2122 2122
काफियों की अब करो पहचान फिर से
पानी बहता मत करो हिमवान फिर से।1
ढ़ल रहा कबसे घड़ा में बेझिझक वह
अब अतल से तो मिले नादान फिर से।2
आज निर्मल बह रहा कहता धरा पर
प्यास बुझती हो यही अरमान फिर से।3
मैल मन का धो रही उसकी लहर है
मत सुनाओ अब गड़ा फरमान फिर से।4
काफिये का जल बँधेगा कब हदों में ?
तूमरी में मत उठा तूफान फिर से।5
आब कह दो या कहो पानी इसे तुम
फर्क कितना है कहो गुणवान फिर से।6
बात…
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Added by Manan Kumar singh on July 13, 2016 at 8:30am —
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2122 2122 2122 212
घिर गयीं कितनी घटाएँ बेसबब मौसम रहा
डूबते हैं घर कहीं पर आदमी बेदम रहा।1
झेलते ही रह गये वाचाल मौसम की अदा
नम हुई धरती किसीकी तो कहीं पे गम रहा। 2
उठ गया जो सरजमीं से सुन रहा कुछ भी नहीं
बस तिरंगे के तले फहरा मुआ परचम रहा।3
श्वान भी शरमा रहे हैं भौंकने से इस कदर
मुफ्त की रोटी उड़ाकर वह दिखा दमखम रहा।4
देश-सेवा को चला वह लूट का सामान ले
लूटने की ताक में कहते यहाँ हरदम रहा।5
बाँटकर कुछ बोटियाँ…
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Added by Manan Kumar singh on July 6, 2016 at 12:01pm —
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2122 2122 212
आइना क्यूँ आज बेईमान है
चल रहा चेहरे' चढ़ा इंसान है।1
घूमता बेखौफ सीना तानकर
लग रहा यह आदमी नादान है।2
पूछते सब आइने से डाँटकर
कौन मुजरिम की बता पहचान है।3
रात में पड़ताल चेहरों की कहाँ
झुर्रियों में मस्तियों की खान है।4
सूलियाँ भी देख अब शरमा रहीं
चढ़ रहा जिसको मिला फरमान है।5
आइना पहचानता मुल्जिम नहीं
बिक रहा सब कह रहे ईमान है।6
चश्मदीदों का उजड़ता गाँव ही
हो गयी फर्जी…
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Added by Manan Kumar singh on July 3, 2016 at 11:00pm —
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2122 2122 212
आहटों से डर रहा वह अाजकल
चाहतों का बस हुआ वह आजकल।1
फूल को समझा रहा है असलियत
सुरभियों को डँस रहा वह अाजकल।2
शब्द मय चुभते नुकीले दुर्ग में
राह भूला,है फँसा वह अाजकल।3
बात की गहराइयाँ समझे बिना
तंज बेढब कस खड़ा वह आजकल।4
रोशनी की चाह में खुद को भुला
हो गया है अलबला वह अाजकल।5
आदमी लगता कभी सुलझा हुआ
फिर लगा खुद ही ठगा वह अाजकल।6
चादरें हैं श्वेत सबको क्या पता
काजलों में है रँगा…
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Added by Manan Kumar singh on July 1, 2016 at 6:30am —
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2122 22 2
आ गये फिर गिरगिट जी
शुरू हुई अब गिट-पिट जी।1
रंग बदले कितने सब
हो गये हैं अब हिट जी।2
माप कोई जूते की
पाँव इनके हैं फिट जी।3
ढ़ाल लिया सबको शीशे
इस कला के डी.लिट. जी।4
राह इनकी रूकती कब
पास पड़े सब परमिट जी।5
रोशनी के ठेके हैं
बन गये हैं सर्किट जी।6
पास होते हरदम ही
काम आती बस चिट जी।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Added by Manan Kumar singh on June 30, 2016 at 7:10am —
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महफिल सजा हम आज तक बैठे हुए
महबूब तो हैं बेवजह उखड़े हुए।1
अपनी वफा पे ढ़ा गये जुल्मो सितम
मुड़कर जरा देखा नहीं चलते हुए।2
आसान उनकी राह हमसे हो गयी
मुश्किल हुई अपनी चले गाते हुए।3
मौसम गया है लोढकर सारा शुकूं
बेकस हुए पादप तने बिखरे हुए।4
कसमस कथाएँ झेलती कलिका रही
बनठन चले हैं आज वे निखरे हुए।5
बहतीं कहाँ खुलकर हवाएँ अब यहाँ
हँसते हुए तारे अभी सहमे हुए।6
रूकता कहाँ बेखौफ कातिल मनचला
अंदाज…
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Added by Manan Kumar singh on June 27, 2016 at 11:00pm —
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आजकल मन लग रहा नक्कारखाना हो गया
कुर्सियों के खेल में सच भी फसाना हो गया।1
योग का मतलब अभी तक जोड़ना समझा गया
सोच की बलिहारियाँ अब तो घटाना हो गया।2
कर रहा परहेज जिससे चल रहा था बावरा
गर्ज एेसी पड़ गयी फिर गर लगाना हो गया।3
घूँघटों की ओट से ही चल रहे थे तीर सब
बह गयी ऐसी हवा मुखड़ा दिखाना हो गया।4
शब्द साधे थे कभी जिनको निशाना कर यहाँ
आज उनके पाँव में कैसे सिढ़ाना हो गया।5
तुम नशे में चल रहे हो, मैं नशा करता…
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Added by Manan Kumar singh on June 23, 2016 at 12:08pm —
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दीप बन जलता रहा हूँ रात-दिन
रोशनी बिखरा रहा हूँ रात-दिन।1
जब अचल मन का पिघलता है कभी
नेह बन झरता रहा हूँ रात-दिन।2
फिर उबलता है समद निज आग से
मेह बन पड़ता रहा हूँ रात-दिन।3
कामनाएँ जब कुपित होकर चलीं
देह बन ढ़हता रहा हूँ रात-दिन।4
व्योम तक विस्तार का कैसा सपन!
मैं 'मनन' करता रहा हूँ रात-दिन।5
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Added by Manan Kumar singh on June 20, 2016 at 11:00am —
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2122 2122
धूप का मंजर बला था
साथ पर साया चला था।1
आज जितना तब कहाँ यह
छाँव का आलम खला था।2
सच कहा है घर हमेशा
खुद चिरागों से जला था।3
क्यूँ मिटाने पर तुले अब
बच गया जो अधजला था।4
बातियों का नेह बहकर
हो गया तब जलजला था!5
स्वेद सिंचित हो गयी भू
पेड़ तब कोई पला था।6
रंग सबके मिल गये थे
इक तिरंगा तब फला था।7
रश्मियों के प्रेम-रस पग
जड़ हिमालय भी गला था।8
कट रहे हम…
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Added by Manan Kumar singh on June 16, 2016 at 11:00pm —
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2122 2122 212
दो कदम आगे बढ़ा कर देखिये
अब जरा नजदीक आकर देखिये।1
जो सुलगती है रही तबसे यहाँ
आग वह फिर से जला कर देखिये।2
सोलहों आने खरा अपना कनक
जो लगे अब भी तपा कर देखिये।3
खनखनाता मैं रहा कितना कहूँ
अब नहीं फिर से बजा कर देखिये।4
देख लेंगे लोग बस डरते रहे
जी करे नजरें बचा कर देखिये।5
चल चुके अबतक बहुत जाने-जिगर
पग कभी मुझसे मिला कर देखिये।6
हो रहे हैं बेखबर फिर बेवजह
फासले कुछ तो मिटाकर…
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Added by Manan Kumar singh on June 14, 2016 at 7:03am —
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2122 2122 212
आग जंगल में लगी बुझती कहाँ
तीलियों-सी रौ समंदर की कहाँ।1
रस धरा का पी रहे बरगद खड़े
लग रहा है जिंदगी यूँ जी कहाँ।2
लाज ढ़कने का उठा बीड़ा लिया
तार होता है वसन जो सी कहाँ।3
अब लजाने का जमाना लद गया
यह नयन बहता जुबानी भी कहाँ।4
साथ चलने का भरा था दम कभी
दिख रहा मझधार में वह ही कहाँ।5
आँसुओं में घुल गये कितने शिखर
है पिघलता आज भी यह जी कहाँ।6
सुन रहा कब से जमाने की सदा
कह…
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Added by Manan Kumar singh on June 5, 2016 at 4:00pm —
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2122 212 2212
रात यूँ रसने लगी मेरी गजल
राग बन बहने लगी मेरी गजल।1
रोशनी हूँ चाँद की सुन लो सनम!
कान में कहने लगी मेरी गजल।2
फिर चली पुरवा सुहानी मंद-सी
कँपकपा गहने लगी मेरी गजल।3
अधखुले-से केश लहराते गगन
पाश में कसने लगी मेरी गजल।4
गुम हुई सहमे रदीफों की हवा
काफिये ढ़लने लगी मेरी गजल।5
चौंधिआयी आँख तारक मल रहे
प्रेम-रस पगने लगी मेरी गजल।6
धड़कनें अब थामकर बैठा 'मनन'
साँस बन चलने लगी मेरी…
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Added by Manan Kumar singh on May 28, 2016 at 6:30pm —
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2122 2122 2122 212
सैर करना हो रहा हावी बला की वार पर
चौखटें कब लाँघती वह बिलबिलाती द्वार पर।1
ध्यान केंद्रित कीजिये आचार फिर आहार पर
शर्करा कम लीजिये नजरें रखें जी खार पर।2
तेल-घी कुछ कम चपोड़ें सादगी सबसे भली
दाल-रोटी सब्जियाँ फल बात बनती चार पर।3
रात को बिस्तर लगाना जल्द होना चाहिए
ध्यान रहना चाहिए रोजी तथा व्यापार पर।4
त्यागिये बिस्तर सबेरे ताजगी देती हवा
भागिये मैदान में कर रोग- बाधा द्वार पर।5
मौलिक व…
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Added by Manan Kumar singh on May 15, 2016 at 7:00pm —
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2122 2122 2122
लोग कैसे रंग अपने कर लिये हैं
फूल की है चाह पर पत्थर लिये हैं।1
शेर मारे फिर रहे हैं दर- बदर अब
रोब उनके बकड़ियों ने हर लिये हैं।2
मुस्कुराकर मिल रहे हैं महफिलों में
हाथ में सब लोग तो खंजर लिये हैं।3
फूल की खेती करेंगे कह रहे सब
दिल बड़ा ही खुरदरा बंजर लिये हैं।4
भूलकर कल पार जाना था क्षितिज के
अस्थियों का वे अभी पंजर लिये हैं।5
दे रहे रिश्ते दुहाई देखिये भी
लोग अपनों का यहाँ तो डर लिये…
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Added by Manan Kumar singh on May 11, 2016 at 8:04pm —
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2122 2122 212
कुर्सियों का खेल बस चलता रहा
आदमी हर बार कर मलता रहा।1
रोशनी की खोज में निकले सभी
रोज सूरज भी उगा, ढलता रहा।2
फैलता जाता तिमिर घर-घर यहाँ
बस उजाला हाथ है मलता रहा।3
सींचते बिरवे रहे हम श्वेद से
सूखना असमय जरा खलता रहा।4
मुश्किलें हों लाख दर पे देखिये
हर घड़ी सुंदर सपन पलता रहा।5
पंछियों का क्या ठिकाना,उड़ गये,
है अलग कलरव अमर चलता रहा।6
जो बुझाता आग तपकर रोज ही
आदमी वह आज भी…
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Added by Manan Kumar singh on May 8, 2016 at 7:30am —
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2122 2122 212
कुर्सियों के खेल में माहिर हुए
भेद सारे आपके जाहिर हुए।1
ख्वाब लोगों को दिखाकर सुनहरे
आप तो पलकें नचा साहिर हुए।2
हो गये सब ही गुनाहों से बरी
वे जले फिर आप तो ताहिर हुए।3
हों भले कितने बड़े ही हाथ पर
आप तो कानून से बाहिर हुए।4
हारता अबतक मुआ यह तंत्र है
बिन किये कुछ आप तो काहिर हुए।5
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Added by Manan Kumar singh on April 12, 2016 at 12:55pm —
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राम-राम,सलाम संग होली का पैगाम:
#गीतिका#
30 मात्राएँ, 16 14 पर यति
मापनी 2*8 2*7
***
छौंरा-छौंरी खेले होली खिसिआये हैं काकाजी
अपने-काकी के लफड़े रिसिआये हैं काकाजी।
आयी है होली हुड़दंगी हैं रंगे रामू-रजनी
काकी रंगों से कतराती बिखिआये हैं काकाजी।
पकवानों से मन भरता कब मीठा-मीठा हो जाता
कुछ तीखी नमकीनी खातिर रिरिआये हैं काकाजी।
काकी कहती खुद को देखो देखा करते काकी को
मटका करती भर आँगन सज दिठिआये हैं काकाजी।
काकी कहती छोड़ो बूढ़े! अब तो…
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Added by Manan Kumar singh on March 24, 2016 at 8:11am —
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2212 2 22 22
गगरी कहो तो भरती कब है!
परवान चाहत चढती कब है।1
उफनी उमंगों की लहरी यह
चढती चली फिर गिरती कब है।2
कबसे रही भँवरों में फँसकर
नैया भला यह तिरती कब है।3
बाँहें पसारे सागर उछला
सिकता जरा भी घिरती कब है।4
उठते किले ख्वाहिश के कितने!
आशा अपूरित मरती कब है।5
टंगी नजर दर आहट खातिर
रुनझुन रूठी लय रचती कब है।6
धड़कन गिना दे पुरवा खुलके
महफिल कहीं भी सजती कब है ।7
भौंरा बिंधा है…
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Added by Manan Kumar singh on March 23, 2016 at 12:25pm —
5 Comments
2212 12 12
मछली बड़ी तो' जाल क्या?
निकली अगर मलाल क्या?
चारा बड़ा भला लगा
टोनाा गया बवाल क्या?
बंसी मगर रही कहूँ-
बेधार की,निहाल क्या?
पिटता रहा दफा दफा
पीटता अभी कपाल क्या?
घोंपे गये छुरे बहुत
बतला नमकहलाल क्या?
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Added by Manan Kumar singh on March 10, 2016 at 7:56pm —
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