मन – पाँच दोहे
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मन को मत कमजोर कर , फिर से होगी भोर
फिर से गुनगुन धूप में , नाचेगा मन मोर
मन, आखें मीचे अगर , खूब मचाये शोर
आँख अगर हो देखती , मन…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 11, 2014 at 6:00pm — 28 Comments
2122 2122 2122 212
बंदरों को फिर मिला शायद मसलने के लिये
फूल ने मंसूबा कल बान्धा था खिलने के लिये
बह के पानी की तरह अब दूर तक वो जायेगा
दर्द को मैने रखा था कल पिघलने के लिये
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 6:30pm — 16 Comments
2122 2122 2122 212
सच को देखा आँख मूंदे दिन चढ़े सोते हुये
आँसुओं से भीगते , बस झींकते रोते हुये
देख भाई बचपनों से, खो न जाये,सादगी
मैने देखा अनुभवी को धूर्त ही होते हुये
ठीक है अब खूब रोशन आज दिन लगता है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 4, 2014 at 6:00pm — 22 Comments
1222 1222 122
वो तन को ढाँकते हैं रोशनी से
बचा तू ही ख़ुदा इस बेबसी से
बनावट से ज़रा सा दूर रहना
मै कहना चाहता हूँ , सादगी से
नज़र में मुस्कुराहट, होठ चुप हैं
न जाने कह रहे हैं…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 1, 2014 at 6:00pm — 38 Comments
2212 1212 1212 22
तारीक़ी फिर लगी मुझे बढ़ी चढ़ी क्यों है
सूरत में सुब्ह की बसी ये बरहमी क्यों है
क्यूँ रात शर्मशार सी है चुप खड़ी दिखती
ये सुब्ह बेज़ुबान सी , डरी हुई क्यों है
ख़ंज़र की दिल-ज़िगर से, दुश्मनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 27, 2014 at 5:30pm — 22 Comments
2122 2122 2122
फिर हुई जीने की इच्छा आज मन में
फिर बुलाया आज कोई है सपन में
फड़फड़ाने फिर लगा कोई परों को
फिर उड़ेगा वो किसी नीले गगन में
फिर से पीड़ा मीठी सी कुछ हो रही है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 20, 2014 at 9:30pm — 31 Comments
1222 1222 1222 1222
बहुत गुमसुम सी लगती है
ज़बाँ खामोश रहती है, निगाहें कुछ नही कहतीं
अगर जज़्बा न हो दिल में, तो बाहें कुछ नही कहतीं
यहाँ के हादसों का सच,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 16, 2014 at 8:30am — 32 Comments
11212 11212 11212 11212
उसे भूल जा तू न याद कर, जो गुज़र गया वो गुज़र गया
जिसे तख़्ते दिल में बिठाया था,वो उतर गया तो उतर गया
यहाँ आंधियों का वो ज़ोर है ,कि उजड़ गया है मेरा चमन
मेरी चाहतें मिली ख़ाक में , मेरा ख़्वाब था जो बिखर गया
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 9, 2014 at 6:30pm — 47 Comments
बाप के जूते
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जब से
बाप के जूते
बच्चों के पैरों में
आने लगे हैं ,
वो सही ग़लत
बाप को ही
समझाने लगे हैं ।…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 6, 2014 at 8:00am — 42 Comments
॥ नये साल की पहली ग़ज़ल मेरे भगवान को समर्पित ॥
ॐ श्री साई नाथाय नमः
11212 11212
मेरी शायरी का असर है तू
मेरी ज़िन्दगी का हुनर है तू
मै हूँ एक बुझती सी आग बस
मुझे फिर जला दे ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 1, 2014 at 8:30am — 35 Comments
आकर्षण – विकर्षण
चुम्बक मे ही नहीं होता
भाव भी खींचते हैं , दूर कर देते हैं
भावों को ।
बस , नियम उलटा है
चुम्बक से ।
एक ही भावों होता है खिचाव …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 30, 2013 at 7:30pm — 22 Comments
कुंडलिया -
सबके अन्दर जी रहा , मेरा , मै का भाव
वही डिगाता है सदा , आपस का सदभाव
आपस का सदभाव , मिटाये ऐसी दूरी
रिश्ते का सम्मान , हटा दे हर मजबूरी
टूटे रिश्ते जुड़ें , सामने कहता रब के …
Added by गिरिराज भंडारी on December 25, 2013 at 9:00pm — 19 Comments
“दाग“
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मूर्खता है ,
होली में रंगे कपड़ों से
दाग छुड़ाने की कोशिश ।
कोई कहता भी नहीं उसे
दाग दार ।
वो अलग हैं , दागियों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 23, 2013 at 7:30pm — 33 Comments
2122 2122 2122 2122
गुम्बदों से क्यों कबूतर आज कल डरने लगे हैं
दूरियाँ रख कर चलेंगे फैसले करते लगे हैं
पतझड़ों की साजिशों से, अब बहारों में भी देखो
हर शज़र मुरझा गया, पत्ते सभी झड़ने लगे हैं
अपने ख़्वाबों को…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 20, 2013 at 7:30am — 41 Comments
समय के ,
सूर्य के ताप से
सूखता हुआ मल,
स्वयम ही,
स्वाभाविक रूप से ,
हो जायेगा
दुर्गन्ध हीन |
और फिर
वातावरण स्वयम…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 18, 2013 at 6:30am — 18 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on December 16, 2013 at 5:30pm — 28 Comments
2122 2122 2122 212
सिलसिले उनके छिपे, कांटो से भी मिलते गये
फिर भी ऐसा क्यों हुआ वो फूल सा खिलते गये
राह मे दुश्वारियां थीं जब चले थे घर से हम
बिन रुके चलते रहे तो रास्ते मिलते गये
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 12, 2013 at 9:30pm — 32 Comments
मुश्किल काम होता है
चढ़ाये रखना ,
लगातार बहुत समय तक
सजावट को ,
रह पाये कोई अगर तुम्हारे साथ
अधिक समय तक
लगातार, तो
फीकी पड़ने लगेंगी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 11, 2013 at 5:00pm — 27 Comments
2122 2122 2122
जब उजाला चाहते थे सब दिये से
क्यों अँधेरा बंट रहा है हाशिये से
था क्षणिक उन्माद मैं ये मान भी लूँ
मूँद लोगे आँखें क्या अपने किये से ?
बोझ से कोई गिरा,…
Added by गिरिराज भंडारी on December 9, 2013 at 4:30pm — 25 Comments
2122 2122 2122 212
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आपकी पिछली कही मन में प्रवाहित है अभी
इसलिये तो प्रेमधारा मेरी बाधित है अभी
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अब सदा बहती ही रहती है उपेक्षा आँखों से
मै कहाँ हूँ आपके मन में ये साबित है अभी
.…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 6, 2013 at 2:30pm — 29 Comments
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