विधान – 27 मात्रा, 16,11 पर यति, चरणान्त में 21 लगा अनिवार्य l कुल चार चरण, क्रमागत दो-दो चरण तुकांत l
ह्रदय बसाये देवी सीता
वन वन भटकें राम
लोचन लोचन अश्रु बावरे
बहते हैं अविराम
सुन चन्दा तू नीलगगन से
देख रहा संसार
किस नगरी में किस कानन में
खोया जीवन सार
हे नदिया हे गगन,समीरा
ओ दिनकर ओ धूप
तृण तृण से यूँ हाथ जोड़कर
पूछ रहे…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 10, 2020 at 7:00pm — 8 Comments
2122 2122 2122 2
चुप रहीं आँखें सजल ने कुछ नहीं बोला
इसलिए मनवा विकल ने कुछ नहीं बोला
भाव जितने हैं सभी को लिख दिया हमदम
क्या कहूँ! तुमसे ग़ज़ल ने कुछ नहीं बोला?
जिस किनारे बैठ के पहरों तुम्हें सोचूँ
उस जलाशय के कमल ने कुछ नहीं बोला?
एक पत्थर झील में फेंका कि जुम्बिश हो
झील के खामोश जल ने कुछ नहीं बोला
साथ 'ब्रज' के रात भर पल पल रहे जलते
जुगनुओं के नेक दल ने…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 19, 2020 at 9:00pm — 6 Comments
मुफाईलुन*4
खरीदूँ कौन सी सब्जी बड़े लगते झमेले हैं
कहीं लौकी कहीं कद्दू कहीं कटहल के ठेले हैं
इधर भिन्डी बड़ी शर्मो हया से मुस्कुराती है
अजब नखरे टमाटर के पड़ोसी कच्चे केले हैं
तुनक में मिर्च बोली आ तुझे जलवा दिखाती हूँ
कहे धनिया हमें भी साथ ले लो हम अकेले हैं
शकरकंदी,चुकंदर ने सजाई नाज से महफ़िल
सुनाया राग आलू ने मगन बैगन,करेले हैं
घड़ी भर को जरा पहलु में लहसुन,प्याज आ बैठो
जुदाई में तुम्हारी 'ब्रज' ने…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 1, 2020 at 8:00pm — 7 Comments
सभी पंक्तियाँ 16-16 मात्राभार के क्रम में
घर के किस कोने में रख के
भूल गया तस्वीर तुम्हारी
रोज सवेरे से सिर धुनते
शाम ढले तक याद संभाली
एक सिरा न हाथ में आया
टुकड़े टुकड़े रात खंगाली
आँगन ढूढ़ा कमरा ढूढ़ा
ढूढ़ लिए दालान अटारी
घर के किस कोने में रख के
भूल गया तस्वीर तुम्हारी
देख पपीहे की अकुलाहट
आसमान में बादल आये
बुलबुल छेड़े खूब तराना
भँवरे फूलों पे मंडराये
तू भी कोयल बड़ी…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 18, 2020 at 11:00pm — 6 Comments
बह्र-ए-मीर
पतझर में भी गीत बसंती गाऊँ तो
जैसा जग है वैसा ही हो जाऊँ तो
अंदर का अँधियारा क्या छट जायेगा
कोशिश करके बाहर दीप जलाऊँ तो
शायद लौट चले आएं रूठे पलछिन
फूलों से जो उनकी राह सजाऊँ तो
कार्य हमारे भी सारे सध जायेंगे
सुविधा शुल्क लिये ये हाथ बढ़ाऊँ तो
जग सारा देखेगा 'ब्रज' के पांव फटे
जो चादर के बाहर पग फैलाऊँ तो
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 14, 2020 at 10:00pm — 14 Comments
लंबे अंतराल के बाद एक ग़ज़ल के साथ
2122 1212 22
चाँद के चर्चे आसमानों में
और मेरे सभी फसानों में
अय हवा बख्श दे अभी ये लौ
हैं अँधेरे गरीबखानों में
हम सुख़नवर से पीर ज़िंदा है
दर्द का मोल क्या दुकानों में
आँखों में आँसुओं का डेरा है
ख्वाब हैं क़ैद मर्तबानों में
पंछियों के लिए सदा रखना
कोई उम्मीद आबदानों में
दिल जला 'ब्रज' जरा सुकूँ आये
रौशनी भी रहे मकानों में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 8, 2020 at 3:16pm — 2 Comments
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
निगाह में उदासियां छुपा हुआ अज़ाब था
डरावनी सी रात थी बड़ा अजीब ख्वाब था
दिखी नहीं कली कहीं ख़ुशी से कोई झूमती
लबों लबों कराह और आँख आँख आब था
चमन में छा रही थीं बेशुमार बदहवासियां
न टेसुओं पे नूर था न सुर्खरू गुलाब था
मिला न साथ दे सका जो चाहिए मिला नहीं
थी चार दिन की ज़िंदगानी दर्द बेहिसाब था
फ़ुज़ूल थे सवाल और चीखना फ़ुज़ूल…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 10, 2019 at 12:30pm — 8 Comments
बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन
ये वक़्त के फ़साने सब पैतरे हैं छल के
तुम भी बिखर न जाना यूँ मेरे साथ चल के
उस डायरी में तुमको कुछ भी नहीं मिलेगा
कुछ बन्द गीत के हैं कुछ शे'र हैं ग़ज़ल के
ये याद भी नही है शोला थ याकि शबनम
हालाँकि उस बला ने देखा तो था मचल के
अब क्या तुम्हें बताएं किस बात का गुमां है
कल रात चाँद मेरी छत पे गया टहल के
किस बात से…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 1, 2019 at 12:00pm — 8 Comments
मंच को प्रणाम करते हुए ग़ज़ल की कोशिश
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फाइलुन
लालफीताशाही कितनी मिन्नतों को खा गई
ये व्यवस्था ढेर सारे मरहलों को खा गई
ये कहा था साहिबों ने घर नये देंगे बना
साब की दरियादिली भी झोपड़ों को खा गई
अब तरक़्क़ी की बयारें इस क़दर काबिज़ हुईं
पेड़ तो काटे जड़ों से कोपलों को खा गई
कुछ गवाही दे रही है मयक़दे की रहगुज़र
मयकशी हँसते हुये कितने घरों को खा गई
भूख से बेहाल…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 19, 2019 at 2:29pm — 9 Comments
छा रहा नभ में अँधेरा
जुगनुओं ने सूर्य घेरा
नेह भावों से निचोड़ूँ दीप मैं घर घर जलाऊँ
वेदना तुझको बुलाऊँ
रो दिए वीरान पनघट
टूट के बिखरे हुए घट
हैं बहुत मुश्किल समय के ये थपेड़े सह न पाऊँ
वेदना तुझको बुलाऊँ
अश्रुओं से सिक्त वीणा
न कहूँ अंतस की पीड़ा
रिक्त भावों से पड़े तो किस तरह ये गीत गाऊँ
वेदना तुझको बुलाऊँ…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 7, 2019 at 10:30am — 8 Comments
वेदना ने नेत्र खोले
रात ने उर लौ लगाई
चांदनी कुछ मुस्कुराई
आज फिर चन्दा गगन में बादलों के बीच डोले
वेदना ने नेत्र खोले
रातरानी खिलखिलाई
रुत रचाती है सगाई
आ गया मौसम बसंती प्रीत पंछी ले हिंडोले
वेदना ने नेत्र खोले
ओ बटोही देश आजा
छोड़कर परदेश आजा
टेरती कोयल सलोनी मन पपीहा नित्य बोले
वेदना ने नेत्र खोले
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 20, 2019 at 6:11pm — 8 Comments
बह्र ए मीर
अब तक रहे भटकते उजड़े दयार में
अब कौन बसा आन दिले बेक़रार में
जिस रास्ते पे उनकी मन्ज़िलें नहीं
उस राह में खड़े हैं इन्तज़ार में
बेकार हर सदा है कितना पुकारता
ये कौन सो रहा है गुमसुम मज़ार में
उस फूल को ख़िज़ायें ले के कहाँ गईं
जिस फूल को चुना था लाखों हजार में
ऐ मीत इस कदर भी मत आज़मा मुझे
आ जाये न कमी 'ब्रज' के ऐतबार में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments
उन्हें कौन पूछे उन्हें कौन तारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
उदासी उदासी उदासी घनेरी
विरह वेदना प्रीत की है चितेरी
अँधेरे खड़े द्वार पे सिर झुकाये
तभी रात ने स्वप्न इतने सजाये
उसी रात को छल गये चाँद तारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
लगी रात की आँख भी छलछलाने
अँधेरा मगर बात कोई न माने
क्षितिज पे कहीं मुस्कुराया सवेरा
तभी रूठ कर चल दिया है अँधेरा
नजर रोज सुनसान राहें बुहारे
युगों से जुदा हैं नदी के…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 21, 2018 at 4:30pm — 10 Comments
इस गीत के साथ ओबीओ परिवार के सभी मनीषियों को दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं
सारा जग उजियारा कर दे
दीप कहाँ से लाऊँ
अंधकार ने फन फैलाया
मैला हर इक मन है
सूरज भी गुमसुम सा बैठा
विस्मित नील गगन है
मन को मनका मोती कर दे
सीप कहाँ से लाऊँ
सारा जग उजियारा कर दे
दीप कहाँ से लाऊँ
गली गली में घूमे रावण
हर घर में इक लंका
प्यार मुहब्बत भाईचारा
मिटने की आशंका
कण कण राम बिराजें ऐसा
द्वीप…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 6, 2018 at 11:00pm — 12 Comments
वो बैठा दिल में आन सलीके से
फिर ले ली मेरी जान सलीके से
यूँ ही पहले थोड़ी सी बात हुई
बन बैठे फिर अरमान सलीके से
पल भर को पहलू में आओ चन्दा
इतना तो कर अहसान सलीके से
काफी है पलकों का उठना गिरना
तू नैन कटारी तान सलीके से
दिल की दुनिया लूट गईं दो आँखें
फिर होती हैं हैरान सलीके से
कोने की उस जर्जर अलमारी में
रख छोड़े कुछ अरमान सलीके से
जिनको थी लाज बचानी कलियों की
बन…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 25, 2018 at 5:00pm — 18 Comments
इस ग़ज़ल के साथ ओबीओ परिवार को नवरात्री की शुभकामनाएं.. जय माता की
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
हर कली में देवियों का वास हो
पत्थरों को दर्द का अहसास हो
फिर कोई अवतार आये भूमि पे
निश्चरों को मृत्यु का आभास हो
लाज की मारी न रोये द्रोपदी
अब नहीं वैदेही को वनवास हो
पीर की तासीर जाओगे समझ
लुट चुका कोई तुम्हारा खास हो
बात इतनी सी समझते क्यों नहीं
घात मिलती है जहाँ बिस्वास हो
(मौलिक एवं…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 11, 2018 at 12:30pm — 17 Comments
किसलिये हैं नैन घायल
आँसुओं से तर-ब-तर?
फिर किसी सुनसान कोने
चीख कोई जो उठी
रात की खामोशियों में
रातरानी रो उठी
दानवी अट्टाहसों में
आह तड़पी घुट गई
टूटती साँसें समेटे
लड़खड़ाती वो उठी
इस कदर बरपी क़यामत
बन गई मातम सहर
इसलिये हैं नैन घायल
आँसुओं से तर-ब-तर
है नहीं जग में ठिकाना
आँख जाए नीर का
मोल कोई दे सकेगा
वेदना का पीर का
जिस नज़र पे था भरोसा
घात भी उससे मिली
हाथ…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 4, 2018 at 6:00pm — 20 Comments
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
रक्त रंजित हो उठा मन
रोज के अख़बार से
हर कली सहमी हुई है
आह अत्याचार से
इस चमन में भेड़ियों से
आदमी ये कौन हैं
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
प्रीत का संगीत गुमसुम
भाव के व्यापार में
सत्य का उपहास करता
छल कपट संसार में
प्रेम है अनुबंध जैसा
प्रेम परिणय गौण है
शोर भौरों का सुनोगे
तितलियाँ अब मौन हैं
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 17, 2018 at 6:00pm — 17 Comments
बह्र-ए-मीर पर आधारित ग़ज़ल
कमबख्त कहाँ से आये इतनी रात गये
उनकी यादों के साये इतनी रात गये
आज उभर के आया है इक दर्द पुराना
बेलौस हवा सहलाये इतनी रात गये
कश्ती कागज की गहरे यादों के दरिया
अब नींद कहाँ से आये इतनी रात गये
गीली मिटटी की सौंधी सौंधी सी खुशबू
अंतस में आग लगाये इतनी रात गये
किस प्रियतम के लिए हुआ बैचैन पपीहा
जो घड़ी घड़ी चिल्लाये इतनी रात गये
दूर उफ़क़ से आती हैं ग़मगीन…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 1, 2018 at 4:30pm — 8 Comments
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
दर्द अपना यूँ सर-ए-बाज़ार कर के
क्या मिलेगा वक़्त से तक़रार कर के
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के
सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सब न्योछार कर के
बन्दगी उल्फत है मैं था इस गुमां में
वो नहीं आया अना को पार कर के
दिल जला के रौशनी होती नहीं है
ये भी 'ब्रज' ने देखा है सौ बार कर के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 25, 2018 at 6:00pm — 23 Comments
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